रेल मंत्रालय, बायजस की कोचिंग क्लास नहीं है!
“सीआरबी और रेलमंत्री को यह समझना होगा कि वे बायजस की कोचिंग क्लास नहीं चला रहे हैं, जिसमें हर छात्र से संवाद करना जरूरी है! आप विश्व की चौथे नंबर की एक बड़ी संस्था को नेतृत्व दे रहे हैं, तब इसको कोचिंग क्लासेस या इलेक्शन कैंपेन की तर्ज पर नहीं चलाया जा सकता!”
एक बात तो माननी पड़ेगी कि रेलमंत्री अश्वनी वैष्णव 18 फरवरी को मुंबई के अतिव्यस्त कार्यक्रम के अगले ही दिन से लगातार तीन दिन तक जीएम्स की क्लास लेने का प्रोग्राम एडवांस में बनाकर रखे थे। यह होती है काम करने और करवाने की अदम्य इच्छाशक्ति! उन्होंने 19, 20, 21 फरवरी को तीन दिन, तीन हिस्सों में सभी जोनल जीएम को रेल भवन में बुलाकर उनके साथ रेलवे में चल रहे विकास कार्यों, निर्माण परियोजनाओं की ऑफ लाइन, यानि प्रत्यक्ष समीक्षा बैठक की।
बताते हैं कि तीनों दिन मंत्री जी के तेवर काफी कड़क रहे। पहले ही दिन उन्होंने किसी बात को लेकर कहा कि “उनके पास चार जीएम की फीडबैक है, जो राजा-महाराजा की तरह व्यवहार करते हैं, मगर काम नहीं करते।” उन्होंने यह भी कहा कि “उनके पास पुख्ता जानकारी उपलब्ध है कि दो जीएम तो ऐसे हैं, जिनका कार्य व्यवहार संदिग्ध है।”
मंत्री जी ने उपस्थित जीएम्स को संबोधित करते हुए यह भी कहा कि “सुधर जाओ, अभी भी समय है, अन्यथा घर बैठा दिया जाएगा। देखा है न कि एक बोर्ड मेंबर को घर भेजा जा चुका है। काम करो, अगर समय से रिजल्ट नहीं दे सकते हैं, तो वीआरएस ले लो, यहां आपकी जगह लेने के लिए पचासों लोग लाइन में हैं।” यहां शब्दों और भाषा में हो सकता है कि कुछ हेर-फेर हो, मगर उसका मंतव्य ऐसा ही कुछ था।
इस पर एक जीएम ने थोड़ी सी हिम्मत दिखाते हुए अपने द्वारा किए गए संरक्षा-सुरक्षा सहित अन्य निरीक्षणों, कर्मचारी कल्याण और संभवतः दैनंदिन कार्यों इत्यादि के बारे में बताना शुरू किया, इस पर मंत्री जी ने रोष व्यक्त करते हुए कहा कि “यह सब तो उनका रुटीन कार्य है, जिसके लिए उन्हें वेतन और तमाम सुविधाएं मिलती हैं, इसमें आपने नया क्या किया है, वह बताएं।”
बताते हैं कि इससे पहले प्रत्येक जीएम के कामकाज अर्थात आउटपुट की समीक्षा के लिए उनके साथ एक-एक करके अलग-अलग यानि वन-टू-वन बैठक करने की बात हुई थी, परंतु कुछ जीएम ने इससे कतराते हुए बड़ी चालाकी से एकसाथ चार-पांच जीएम को लेकर बैठक करने की बात कही। उनके इस प्रस्ताव को इस शर्त के साथ स्वीकार किया गया कि तब मंत्री जी के सामने जो भी प्रजेंटेशन होगा, वह जीएम स्वयं करेंगे। इस पर पहले तो लगभग सभी जीएम के हाथ-पांव फूल गए थे, परंतु इसी बीच चार-पांच दिन का समय मिल जाने से उन्होंने स्वयं को इसके लिए तैयार कर लिया था।
मंत्री जी के कड़े रुख पर कुछ वरिष्ठ अधिकारियों का मानना है कि जिन जीएम के संदिग्ध कार्य-व्यवहार की जानकारी है, उन्हें उनके नाम के साथ उल्लेख किया जाए, अर्थात उन्हें नामांकित किया जाए, तो बाकी जीएम इससे स्वयं को अलग देख सकेंगे। केवल यह कह देने से कि चार या दो जीएम ऐसे-वैसे हैं, इससे तो सभी को एक ही कठघरे में खड़ा कर दिया जाना समझा जाएगा और सब एक-दूसरे को संदिग्ध निगाह से देखेंगे तथा हतोत्साहित रहेंगे।
वह कहते हैं, अगर पुख्ता जानकारी है, तो संबंधित जीएम को हटा देना चाहिए, अथवा अन्यत्र शिफ्ट कर देना चाहिए, मगर वह सब कहने की कोई आवश्यकता नहीं थी, जो कहा गया। मंत्री जी के स्तर पर यह सब कहना शोभा भी नहीं देता है, क्योंकि उनके पास तो असीमित पावर है! उन्होंने कहा कि जहां तक आउटपुट की बात है, तो सेट प्रक्रिया को शिथिल किए बिना समय से पहले परिणाम मिलने की अपेक्षा करना बेमानी है, क्योंकि प्रक्रिया को बायपास करके कोई भी जीएम स्वयं को फंसाना नहीं चाहेगा।
वह कहते हैं, परिणाम चाहिए तो उसके लिए रास्ता भी बताना पड़ेगा। उनका कहना है कि अगर यह कहा जाए कि दिल्ली से मुंबई जाना है, तो रास्ता भी बताना चाहिए कि कोटा-रतलाम होकर जाना है, या झांसी-भोपाल होकर! डांट-फटकार से लोगों को केवल दहशत में लिया जा सकता है, अपेक्षित रिजल्ट नहीं मिलता। उनका कहना है कि मंत्री जी का रुख तीनों दिन इतना कड़ा रहा कि तीसरे दिन उन्होंने सीआरबी का नरम रुख देखकर उन्हें भी इसके लिए टोक दिया।
वे यह भी कहते हैं कि मंत्री जी ने एक बात बहुत अच्छी कही कि वे अब डीआरएम/जीएम में मेरिट के अनुसार अधिकारियों का चयन करेंगे। यह सही कदम होगा। पूर्व रेलमंत्री ने भी यही बात कही थी। परंतु उन्होंने इसे प्राथमिकता में नहीं रखा। इसके लिए सर्वप्रथम जरूरी यह है कि पूरे बैच को कंसीडर किया जाए। परंतु इसके लिए ऑनलाइन इमोशनल परीक्षण पर्याप्त नहीं है। इसके लिए बिना किसी रेल अधिकारी को शामिल किए तीनों मंत्री स्वयं एलिजिबल अधिकारियों का इंटरव्यू करें और अपनी प्राथमिकता पर योग्य अधिकारियों का चयन करके कम से कम तीन साल के लिए उन्हें डीआरएम में लगाएं।
इसके बाद उन्हें डीआरएम से सीधे जीएम में ले जाया जाए। वह कहते हैं कि जब सीधे जीएम में लोगों को लगाया जाएगा, तब जीएम के लिए 76 डीआरएम में आपसी कंपीटिशन होगा, उनमें से 26-27 बेस्ट जीएम का चयन करना तब बहुत आसान हो जाएगा। इसके बाद इन 26-27 जीएम में से बोर्ड मेंबर और सीआरबी के लिए पांच बेस्ट परफॉर्मर का चयन करना और भी ज्यादा आसान होगा।
हालांकि हमारे एक अत्यंत विश्वसनीय सूचना स्रोत का कहना है कि जिन जीएम की जानकारी मंत्री जी को है, उनको बहुत अच्छी तरह से जता दिया गया है कि “वह सुधर जाएं, महाराजाओं और अंग्रेजों के जैसे चोंचले छोड़कर काम पर ध्यान दें।” कहने का तात्पर्य यह है कि मंत्री जी को केवल समय पर आउटपुट से मतलब है, उनका अपना कोई हिडेन एजेंडा नहीं है।
दिल्ली में काफी लंबे समय से रेलवे को निकट से जानने और कवर करने वाले हमारे एक वरिष्ठ पत्रकार मित्र का कहना है कि “सीआरबी और रेलमंत्री को यह समझना होगा कि वे बायजस की कोचिंग क्लास नहीं चला रहे हैं, जिसमें हर छात्र से संवाद करना जरूरी है। आप विश्व की चौथे नंबर की एक बड़ी संस्था को नेतृत्व दे रहे हैं, तब इसको कोचिंग क्लासेस या इलेक्शन कैंपेन की तर्ज पर नहीं चलाया जा सकता। कोशिश भी करेंगे तो औंधे मुंह गिरेंगे।”
वह कहते हैं, रेलमंत्री और सीआरबी को सिर्फ बोर्ड मेंबर्स से ही मीटिंग करनी चाहिए, क्योंकि अभी बोर्ड मेंबर बड़ी चालाकी से अपना सारा बोझ सीआरबी के ऊपर डाल दिए हैं और मीटिंग में मिट्टी के माधव बनकर बैठे रहते हैं। मीटिंग के बाद पीछे से अधिकारियों को चढ़ाते रहते हैं। इस प्रकार वह अपनी अकर्मण्यता छुपाकर सीआरबी के मत्थे ही सब कुछ डाल दे रहे हैं।
उनका कहना है कि सीआरबी से मीटिंग में जब मेंबर खुद पूरी तरह तैयार होकर आएंगे, तब उनके मातहत आने वाले संबंधित विभाग और उनसे संबंधित किसी भी मैटर पर विभाग प्रमुख से लेकर जीएम, डीआरएम तक सब तैयार नजर आएंगे।
जब आप बोर्ड मेंबर से उनके काम/आउटपुट/ड्यूटी के बारे में प्रश्न करेंगे, तो वह यही बोलते हैं कि “मैं पोजीशन लेता हूँ, मॉनिटरिंग करता हूँ। काम तो मेरा एडीशनल मेंबर करता है।” एडीशनल मेंबर साहब के पास जाने पर वह भी यही बात अपने मातहत पीईडी के लिए कहते हैं, और यह सिलसिला रेलवे बोर्ड के डेस्क बाबू तक पहुंचकर बारास्ता जीएम, पीएचओडी और डीआरएम से होते हुए ब्रांच ऑफिसर एवं फील्ड कर्मियों तक जाकर रुक जाता है।
यहां हर आदमी मॉनिटरिंग कर रहा है, पोजीशन ही ले रहा है। काम कौन कर रहा है, जब यह देखा जाता है, तो सबका इशारा अपने से नीचे वाले की तरफ है।
जब शीर्ष पर “जन्मतिथि की एकमात्र योग्यता” के कारण बैठे लोगों को ही यह भान नहीं रहा कि बोर्ड का गठन मूलतः किसलिए हुआ है, और कहीं भी किसी भी संस्थान में बोर्ड का रोल क्या होता है, तो ऐसे बोर्ड को खत्म/बंद कर देना ही अच्छा है। इसी स्तरहीन सोच और योग्यता के कारण रेलवे की आज यह दुर्दशा है।
वह कहते हैं कि आपको याद होगा कि जब सुरेश प्रभू रेलमंत्री थे तो उस समय एक बहुत बड़ा कॉन्क्लेव हुआ था, जिसमें बड़े पैमाने पर रेल अधिकारियों की भागीदारी हुई थी और उसमें एक दिन प्रधानमंत्री भी आए थे। उन्होंने हंसते हुए अधिकारियों से वार्तालाप में कहा था कि “आपके यहां ‘डिपार्टमेंटलिज्म’ बहुत है!”
वह कहते हैं कि प्रधानमंत्री ने रेल अधिकारियों की तुच्छ मानसिकता और स्तरहीन कार्यकुशलता तथा अमानक कार्यशैली को भांप लिया था। उन्होंने देख लिया था कि बोर्ड के शीर्ष स्तर तक के अधिकारी का भी आज तक यही स्तर है, और ये अधिकारी अब तक यही करते रहे हैं। इसीलिए मोदी जी भी सही कर रहे हैं कि इस फालतू भीड़ को कम करने के लिए धीरे-धीरे रेलवे बोर्ड को ही बंद कर रहे हैं।
वह कहते हैं, रेलवे बोर्ड का काम नीति नियंता का है। लगातार बदल रहे व्यापारिक, आर्थिक और उपभोक्ता से संबंधित परिवेश के अनुरूप पॉलिसी बनाना, और तब उसके अनुपालन को सुनिश्चित करवाना तथा लगातार मॉनिटरिंग इस उद्देश्य से करना कि नीति में किस प्रकार के सुधार से इसे और बेहतर, प्रधानमंत्री के विजन के अनुरूप, इसे दुनिया का नंबर वन संस्थान बनाया जा सकता है! लेकिन उससे तो हजार में किसी एक रेल अधिकारी को मतलब रहता है और उसको इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ता है।
यह एक नग्न सत्य है कि रेल के प्रायः सभी विभागों की महत्वपूर्ण पॉलिसी रेलवे बोर्ड में बैठे अधिकारी नहीं, हर डिपार्टमेंट के ऊपर कब्जा जमाए माफिया कांट्रेक्टर, सप्लायर, वेंडर आदि की पार्टियां ही बनाती हैं। ये ही पार्टियां अपने मन-माफिक अधिकारियों की पोस्टिंग ‘की-पोस्टों’ पर करवाती हैं, जहां से पॉलिसी बनती है और जहां से फील्ड में डंडा चलवाया जा सकता है।
रेलवे बोर्ड के गलियारों के एक पुराने और प्रभावशाली लायजनर का कहना है कि “साहब, बोर्ड में प्रायः सभी डिपार्टमेंट में इस तरह के कम से कम 2/3 ऐसे पद तो ईडी लेवल पर ही हैं, जिनकी महीने की दस्तूरी 50 लाख से ऊपर है, तो फिर उनके ऊपर वालों की बात ही क्या है!”
थोड़ा कुरेदने पर इस लायजनर ने यह बताया कि हर डिपार्टमेंट में काम करने वाले अलग-अलग लायजनर हैं। कुछेक एक ही नेचर के काम होने के कारण 2/3 डिपार्टमेंट में भी पैठ रखते हैं। इन लायजनर्स की एक बहुत बड़ी खासियत यह होती है कि जिस विभाग में ये ऑपरेट करते हैं, उसके अधिकांश अधिकारियों के विषय में थोडी बहुत जानकारी रखते हैं, लेकिन जो अधिकारी पार्टीबाजी के शौकीन होते हैं, उनकी और उनके पूरे परिवार की पूरी जन्मकुंडली इनके पास होती है, और अधिकारी से ज्यादा जानकारी उसकी और उसके परिवार के विषय में इन लायजनर्स के पास होती है। गौर से देखें तो पाएंगे कि असली काम तो बोर्ड में ये माफिया पार्टियां, फर्में ही करती हैं, बाकी सचमुच में सभी अधिकारी अपडेट लेकर मॉनिटरिंग ही करते हैं!
वह कहते हैं कि अगर मेंबर को काम पता रहता, तो कम से कम उसे यह तो पता रहता कि शीर्ष स्तर पर मॉनिटरिंग भी किस चीज की करनी है? पीरियोडिकल ट्रांसफर, पोस्टिंग की ही पॉलिसी जैसी भी है, उसे अगर ऊपर से लेकर नीचे तक – बिना किसी अपवाद के – सभी विभागों और सभी कैटेगरी – क्लर्क आदि सब – पर शत-प्रतिशत लागू कराने की ही मॉनिटरिंग अगर सही ढ़ंग से कोई सीआरबी या मंत्री कर ले, तो रेल का संपूर्ण कल्याण और कायाकल्प हो जाए।
सारे विभाग रिग्रेसिव और कुटिल नीयत से किसी खास तबके को ही फायदा पहुंचाने के उद्देश्य से बनाई गई पॉलिसीज से भरे हुए हैं। मानव संसाधन/स्थापना यानि एचआर/इस्टैब्लिशमेंट की तकरीबन सारी पॉलिसी का भी यही हाल है।
अब तक हुए सीआरबी में से एक भी सीआरबी अगर अपने पूरे कार्यकाल में एचआर और इस्टैब्लिशमेंट की एक भी सही-सही, अर्थपूर्ण और पुख्ता पॉलिसी बना जाता, तो आज रेल कहां से कहां पहुंच जाती। आज रेल की यह दुर्दशा नहीं होती, परंतु उन्हें काम मालूम होता, काम करना और करवाना आता होता, तब न!
कई युवा और प्रायः सभी विभागों के कई वरिष्ठ एवं अत्यंत अनुभवी अधिकारियों का कहना है कि —
पहला – पीरियोडिकल ट्रांसफर और पोस्टिंग को निष्पक्षता तथा निर्ममता से बिना किसी विभागीय और सर्विस क्लास में फर्क किए लागू करवाना।
दूसरा – ऑर्गनाइजेशन और कैरिअर विकास की दृष्टि से रेलवे के सबसे महत्वपूर्ण पद “डीआरएम” पर 52 साल के ‘मैच फिक्सिंग’ वाले एब्सर्ड क्राइटेरिया को हटाकर हर सर्विस के पूरे बैच को एलिजिबल मानते हुए इंटरव्यू में मेरिट और योग्यता के आधार पर चयन करना!
ये दो ऐसे चिरप्रतीक्षित नीतिगत निर्णय होंगे, जो भारतीय रेल का कायाकल्प कर सकते हैं। और यह दोनों काम जो भी करेगा या करवाएगा, उसे इतिहास याद रखेगा, फिर चाहे वह मंत्री हो या सीआरबी!
इसके अलावा उपरोक्त दोनों कामों में से खासकर दूसरा वाला काम अगले दो-तीन साल तक ही करना है, क्योंकि तब आईआरएमएस कैडेट्स के आ जाने से “सर्विस” और “बैच” का झंझट ही पूरी तरह से समाप्त हो जाएगा।
रेलवे में भ्रष्टाचार, अक्षमता, अकर्मण्यता, विभागवाद आदि सारी बीमारियों का 95% शर्तिया इलाज केवल उपरोक्त दो उपायों से ही सम्भव है। एक में मॉनिटरिंग करनी है, और दूसरे में रेल मंत्रालय (रेलवे बोर्ड) को अपनी हिम्मत और नीयत दिखानी है। अतः रेल के भविष्य को बचाने के लिए एक सही पॉलिसी बिना देर किए बनाए जाने की अत्यंत आवश्यकता है।
बहरहाल, रेल मंत्रालय को जे. पी. बत्रा के समय से लेकर अब तक के सबसे योग्य, ईमानदार और कर्मठ सीआरबी मिले हैं और इसी तरह कई दशकों बाद रेल मंत्रालय को सम्भावनाओं से भरे अनुभवी, ऊर्जावान रेलमंत्री भी मिले हैं। और इसके साथ ही यह भी सही है कि ऊपर से मॉनिटरिंग या पूछताछ नहीं होने से नीचे के सभी स्तरों पर काहिली और निर्द्वंद्विता आ गई है। इसलिए जोर का डंडा चलाया जाना भी आवश्यक हो गया है। यह भी सही है कि मंत्री या रेल प्रशासन के इस रुख एवं बदलाव को रेल के हर वर्ग में काफी पसंद किया जा रहा है, सराहा भी जा रहा है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस रुख परिवर्तन रेल का बड़ा वर्ग खुश है और वह मानते हैं कि इन दोनों महानुभावों के रहते अगर अब भी रेलवे में क्रांतिकारी सुधार नहीं हो पाया, तो फिर कुछ भी कहना मुश्किल है!
प्रस्तुति: सुरेश त्रिपाठी
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