यह क्रूरता तो है.. लेकिन क्या करूं, ऊपर से आदेश है!

दुनिया में कहीं पर भी हर अपराध की सजा सुनिश्चित है। परंतु वर्तमान परिदृश्य में देखने में आ रहा है कि रेलवे की जितनी भी स्वघोषित नियमावली हैं, उनमें क्लास-3 और क्लास-4 कर्मचारियों के लिए ही ज्यादातर सजा का प्रावधान है। यदि कोई बहुत भीषण परिस्थिति बनती है तो किसी क्लास-2 अधिकारी को छोटी-मोटी सजा दे दी जाती है। लेकिन बड़े अधिकारियों के द्वारा किए जाने वाले कितने भी पापों के बाद भी उनको उनके मौसेरे भाई अपनी पूरी जी-जान लगाकर बचा लेते हैं कि कहीं यह मेरी भी पोल न खोल दे।

रेलवे में एक नियम है कि चालक यदि रेड सिग्नल पार करता है तो उसकी सेवाएं समाप्त की जा सकती हैं। लेकिन यह कहीं भी स्पष्ट नहीं है कि यह नियम उस चालक के लिए है, जो नशे की हालत में 100 किमी की गति से रेड सिग्नल पार करते हुए बिना रोके गाड़ी को आगे ले जा रहा है? या उस चालक के लिए है, जो नींद में गाड़ी चला रहा है? या उस चालक के लिए है, जो अपनी जान देने के लिए रेड सिग्नल पार करता हुआ पागलों की तरह भागा चला जा रहा है? या किसी मानसिक रूप से असंतुलित चालक के लिए है?

अथवा यह नियम उन सभी चालकों पर भी लागू होता है, जो कि अपने पूरे होशो-हवास में गाड़ी चला रहे हैं और रेड सिग्नल देखने के बाद गाड़ी को रोकने के लिए अपनी पूरी शक्ति झौंक देते हैं? इसके बावजूद किसी अन्य कर्मी या चालक के द्वारा देर से ब्रेक लगाने की स्थिति में गाड़ी रेड सिग्नल के आगे जाकर सुरक्षित रूप से बिना किसी जान-माल की क्षति के खड़ी हो जाती है। इस पर भी वही चालक सभी संबंधितों को घटना के बारे में सूचित करता है। ऐसे में उस चालक की बलि चढ़ा देने का क्या औचित्य है?

इसी तरह से यह नियम यार्ड में 15 किमी की गति से एम्प्टी रेक मूवमेंट कर रहे चालक द्वारा सिग्नल पास कर खड़े हो जाने और उसी के द्वारा सर्व संबंधित को सूचित कर किसी दुर्घटना को बचा लेने की स्थिति में भी उसको तुरंत नौकरी से निकाल दिया जाना कितना अमानवीय और कितना बर्बर कृत्य है? इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।

वर्तमान में देश के अंदर जहां बेरोजगारी की दर लगातार बढ़ती जा रही हो, वहां पर किसी व्यक्ति द्वारा दिन-रात अपनी सेवाएं राष्ट्र के प्रति, समाज के प्रति पूरी मुस्तैदी से समर्पित करते हुए अगर कभी अनजाने में उससे कोई ऐसी चूक हो जाती है, जो कि रेल और राष्ट्र को कोई जान-माल की क्षति पहुंचाए बिना सुधारी जा सकती हो, तो ऐसी स्थिति में उसे नौकरी से निकाल देना क्रूरता से ज्यादा कुछ नहीं हो सकता।

संसार में ऐसा कौन व्यक्ति है जिससे कभी कोई गलती न हुई हो? चालक भी तो आदमी ही है। जब इस बारे में कर्मचारियों द्वारा या उनके प्रतिनिधियों द्वारा संबंधित अधिकारी से बात की जाती है तो वह इतनी सहानुभूति जताते हुए कह देते हैं, “यह बहुत गलत है, मैं तो कभी नहीं चाहता हूं कि ऐसा हो, लेकिन क्या करूं ऊपर से आदेश है, आप डीआरएम सर से बात कर लें।”

जब डीआरएम साहब के पास पहुंचते हैं तो डीआरएम साहब भी पूरी सहानुभूति रखते हुए अपने ऊपर वालों की बात बोलकर अपनी लाचारी जाहिर करते हैं। और जब मुख्यालय के तथाकथित अधिकारी, जो कि अपने चेंबर से बाहर निकलना अपना अपमान समझते हों, के पास जाकर जब कर्मचारी गिड़गिड़ाते हैं, तो वे भी पूरी सहानुभूति जताते हुए रेलवे बोर्ड पर ढ़केल देते हैं।

तब यह जानना बहुत आवश्यक हो जाता है कि आखिर यह क्रूरता कर कौन रहा है? कर्मचारी और यूनियनें हमेशा अपने रेलवे के प्रमुख से लेकर रेलवे बोर्ड तक वर्षों से बार-बार गुहार लगाती रही हैं कि, “सिग्नल पासिंग एट डेंजर” (स्पेड) में दी जाने वाली सजा की पुनर्विवेचना की जानी चाहिए, यह अत्यावश्यक है। मामले की गंभीरता के हिसाब से उसकी सजा निर्धारित की जाए। परंतु जोनल/डिवीजनल प्रशासन से लेकर रेलवे बोर्ड तक इस विषय पर गंभीर नहीं है।

रेड सिग्नल पास करने वाले चालक के प्रति उसके सहकर्मियों की सहानुभूति तो होती है लेकिन उसे क्षमा कर दिया जाए, यह बात न तो सहकर्मी ही कहते हैं, और न ही यूनियनों ने कभी कही। परंतु चांटा मारकर सुधार लाने की जगह उसकी हत्या कर देना कहां तक उचित है?

यहां यह ध्यान रखना चाहिए कि ईश्वर की कृपा के चलते और चालकों की सजगता तथा कर्तव्यनिष्ठा के चलते देश में और खासतौर से मुंबई मंडल में सिग्नल पासिंग की दुर्घटनाएं तो होती हैं, लेकिन इनमें किसी भी तरह के जान-माल का नुकसान नगण्य रहता है। अगर सच में चालक इतना लापरवाह है, तो कम से कम मुंबई की जनसंख्या साल-छह महीने में आधी हो गई होती।

आश्चर्य की बात तो यह है कि चालक की गलती होने पर लोको निरीक्षक को भी सजा दी जा रही है, कि उसके मातहत चालक ने कैसे गलती की? ऐसे में प्रश्न उठता है कि देश के हर कोने में, गांव में, छोटे-छोटे क्षेत्रों में पुलिस थाने बने हुए हैं तो फिर अपराध क्यों होते हैं? और होने वाले अपराधों पर भारत सरकार के द्वारा या अदालतों के द्वारा वहां के कितने पुलिसकर्मियों को या वहां की व्यवस्था के प्रति जवाबदेह तहसीलदार, सरपंच, कलेक्टर, कमिश्नर, कार्पोरेटर, एमएलए, एमपी, जज आदि कितनों को सजा दी गई? या फांसी पर चढ़ाया गया?

भारत में या किसी भी देश में यदि कुछ गड़बड़ी होती है, तो उसके प्रति एक बहुत बड़ा तंत्र जवाबदेह होता है। क्या उन लोगों को कभी किसी व्यक्ति विशेष की गलती पर सजा दी गई? तो फिर एक चालक के द्वारा सिग्नल पास होने पर लोको सुपरवाइजर क्यों दोषी है? कैसे दोषी है? और यदि वह दोषी है, तो उस अव्यवस्था से संबंधित अधिकारी क्यों दोषी नहीं है? जिस डिवीजन में गड़बड़ी हो रही है, उस डिवीजन के मंडल रेल प्रबंधक क्यों नहीं दोषी हैं? जिस रेलवे में यह दुर्घटना हो रही है वहां डिवीजन से लेकर मुख्यालय तक के विभिन्न श्रेणियों के अधिकारी क्यों दोषी नहीं है?

जब कहीं कोई कर्मचारी अच्छा काम करता है, तो उसका श्रेय लेने के लिए तो अधिकारी सबसे पहले दौड़ कर आगे खड़े हो जाते हैं। लेकिन जब कोई विषम परिस्थिति आती है, कोई गलती होती है, कुछ ऐसा घटित हो जाता है, जो नहीं होना चाहिए, तो उसमें केवल कर्मचारी और सुपरवाइजर ही क्यों दोषी माने जाते हैं? जब तक इस तरह की सामंतवादी व्यवस्था में परिवर्तन नहीं लाया जाएगा, तब तक रेलवे की भलाई के बारे में सोचना भी बेमानी है।

जो अधिकारी गलतियों और नियमों की व्याख्या अपने स्तर पर अपने विवेक से नहीं कर सकते, केवल रट्टू-पट्टू बने रहते हैं, उन्हें पद पर बने रहने अथवा बनाए रखने के बारे में रेल प्रशासन द्वारा विचार किया जाना आवश्यक है। उन्हें न्यायपूर्ण व्यवस्था बनाए रखने के लिए मोटी तनख्वाह और तमाम सुविधाएं सरकार द्वारा उपलब्ध कराई जाती हैं, ऐसे में अगर वह अपने दायित्व का निर्वाह नहीं करते हैं, तो उनकी भी जवाबदेही सुनिश्चित की जाए और तुरंत बर्खास्त किया जाना चाहिए, क्योंकि एक चालाक की गलती अगर कुछ लोगों की जान-माल का नुकसान होता है, तो एक अधिकारी की अपने दायित्व के प्रति लापरवाही का खामियाजा पूरी व्यवस्था को भुगतना पड़ता है।

प्रस्तुति: सुरेश त्रिपाठी