पोर्टर्स रेस्ट रूम का नमाज रूम में परिवर्तित होना – रेल प्रशासन की बेशर्म नाकामी
क्या यह मंडल रेल प्रबंधक, मंडल के सभी ब्रांच अफसरों, स्टेशन स्टाफ की नाकामी नहीं है?
बंगलुरू रेलवे स्टेशन पर रेलवे सहायक अर्थात पोर्टर्स (कुली) रेस्ट रूम को एक साजिश के तहत कुछ तत्वों द्वारा अतिक्रमण करके नमाज रूम में बदल दिया गया और रेलवे के जिम्मेदार लोगों को पता ही नहीं चला?
आखिर नमाज रूम रेलवे स्टेशन पर बना कैसे? पोर्टर रेस्ट रूम को नमाज रूम में बदला कैसे गया? यह एक दिन में हुआ काम नहीं है। इसमें ढ़ेरों नल लगाए गए, टाइल्स लगाई गई, मार्बल फ्लोरिंग की गई, दीवारों को रंगा गया, यह सब एक-दो दिन में हुआ काम नहीं है।
आईओडब्ल्यू क्या कर रहा था? स्टेशन मास्टर, स्टेशन मैनेजर, सारा स्टेशन स्टाफ कहां था? बंगलुरू मंडल के मंडल रेल प्रबंधक और सभी ब्रांच अफसरों ने अपनी आंखों पर क्या काली पट्टी बांध रखी थी?
इसे बनाए जाने की अनुमति किसने दी? जवाबदेही किसकी है? ऐसे तो स्टेशनों पर कभी-भी दहशतगर्दों द्वारा “आतंकी प्रशिक्षण केंद्र” भी खोला जा सकता है!
क्या किसी अधिकारी के निरीक्षण में ये बात नोट नहीं की गई? या जानबूझकर नजरंदाज कर दी गई? या फिर इंस्पेक्शन भी मात्र खानापूर्ति होता था?
प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और रेलमंत्री को इसे तुरंत गंभीरता से लेने की आवश्यकता है और दोषियों के विरुद्ध कड़े कदम उठाए जाने की भी जरूरत है।
यह दंडात्मक कार्यवाही उच्च स्तर के रेल अधिकारी से शुरू होकर स्टेशन के जिम्मेदार स्टाफ तक आनी चाहिए।
इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट को भी इस मुद्दे पर स्वत: संज्ञान लेते हुए रेलवे लैंड पर, स्टेशनों पर, प्लेटफॉर्मों पर अवैध कब्जा करके बनाए गए ऐसे सभी निर्माणों को ध्वस्त करने के आदेश देने चाहिए। उसके पूर्व के एक आदेश पर सड़कों के किनारे बने केवल बहुसंख्यक समुदाय के निर्माण हटाए गए, पर कथित अल्पसंख्यक समुदाय के किसी भी निर्माण को हाथ नहीं लगाया गया। अर्थात शासन-व्यवस्था केवल बहुसंख्यक समुदाय को ही दबा रही है। रेल प्रशासन और रेल अधिकारियों को केवल फटकार लगाकर उन पर यह जिम्मेदारी डाल देना पर्याप्त नहीं है। व्यवस्था जब नपुंसक हो जाती है, तब सुप्रीम कोर्ट को ही आगे आना पड़ता है।
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