जाति – जर्रे-जर्रे में जारी है खोज!

यूरेका!!! दिलीप मंडल ने खोजी मुक्तिबोध की जाति!

शुद्ध रूप से “मुक्तिबोध” को “कुशवाहा” बताया!

दिलीप मंडल का भी जवाब नहीं! सरकार तो “जाति” के विभिन्न टुकड़ों में बंट ही गई है। इसीलिए सरकारी कार्यालयों का बंटाधार भी पूरी तरह हो चुका है!

और देश की प्रशासनिक व्यवस्था का भी! कामकाज का भी! निर्णय लेने की क्षमता का भी! “निजीकरण” इसी का अंजाम है!

सवर्ण भी सोच रहे हैं – न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी।

आरक्षण का झंझट ही खत्म!

दिलीप मंडल, अनिल चमड़िया जैसे और भी कई-कई मुखोटे लगाए लेखक भी तथाकथित पत्रकारिता करते हुए बीबीसी से लेकर हर जगह जाति की शिनाख्त में लगे हैं।

वहां भी खाने बन गए होंगे। मैं उस दुनिया को ज्यादा तो नहीं जानता। लेकिन हां, विश्वविद्यालय और कॉलेज तो साफ-साफ जाति से ही बन और बिगड़ रहे हैं। कुछ वी. पी. सिंह ने किया, फिर अर्जुन सिंह ने उसे इंजीनियरिंग से लेकर नर्सरी तक कर दिया।

और फिर अचानक यह सब कहने लगते हैं कि संविधान में तो बराबरी है! भेदभाव नहीं है!

यह सब उत्तर भारत में तो भयानक रूप से है। न उन्हें बढ़ती जनसंख्या की चिंता है, न वहां कोई इंडस्ट्री है, कानून ्-व्यवस्था की भी कोई व्यवस्था नहीं।

मगर जाति और धर्म का खेल पूरे जोरों पर है!

दिलीप मंडल को इस खोज पर कोई बड़ा पुरस्कार तो जरूर मिलना चाहिए!

अभी पिछले दिनों “सिविल सेवा परीक्षा” में इंटरव्यू के नंबरों को लेकर भी उनकी एक पूरी जमात जाति-जाति खेल रही थी।

“जाति की खोज” इन आधुनिक जाति-विज्ञानियों की जर्रे-जर्रे में जारी है।

बहुत-बहुत बधाई दिलीप मंडल को!

#प्रेमपाल_शर्मा, दिल्ली – 09.11.2021.

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