यह आजाद देश है, या अंग्रेजों का गुलाम? सिविल सेवा परीक्षा पर सवाल
‘आत्मनिर्भर भारत’ का नारा, ‘आत्मनिर्भर भाषाओं’ से ही संभव है!
इस बार भी अधिकांश उम्मीदवारों ने मुख्य परीक्षा में एंथ्रोपोलॉजी, समाजशास्त्र, राजनीति शास्त्र, भूगोल जैसे वैकल्पिक विषय लेकर यह परीक्षा पास की है। इसीलिए यह बहुत गंभीर प्रश्न है कि वैकल्पिक विषयों को क्यों न पूरी तरह से समाप्त कर दिया जाए? और इनकी जगह कानून तथा लोक प्रशासन जैसे अत्यंत आवश्यक विषयों को सामान्य ज्ञान के पर्चे में शामिल करके अनिवार्य बना दिया जाए!
संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) ने भारत की सर्वोच्च प्रशासनिक सेवाओं की भर्ती के लिए आयोजित परीक्षा के परिणाम घोषित कर दिए हैं। यूपीएससी की तारीफ की जानी चाहिए कि हजार बाधाओं के बीच आजादी से अब तक समय पालन जैसी सक्षमता पर कोई प्रश्न नहीं लगा। विशेषकर तब जब हर राज्य के प्रांतीय आयोग दो-चार साल से पहले अपनी राज्य स्तर की परीक्षाओं को पूरा नहीं कर पाते हैं, और भ्रष्टाचार, परीक्षा रद्द करने की बातें आए दिन सुनने को मिलती हैं।
सन 2020 के लिए घोषित 836 पदों के लिए 761 उम्मीदवार सफल घोषित किए हैं। तीन चरणों में संपन्न होने वाली परीक्षा के प्रारंभिक चरण में लगभग पांच लाख उम्मीदवार बैठे थे, जिसमें से 10,554 मुख्य परीक्षा देने के योग्य पाए गए। साक्षात्कार के लिए 2053 उम्मीदवार बुलाए गए थे।
इस बार के परिणामों की कुछ बातें ध्यान खींचती हैं, जैसे पहले 25 टॉपर्स में 12 महिलाएं हैं, और कुल मिलाकर 35% से ज्यादा महिला उम्मीदवार सफल हुई हैं। तालिबान द्वारा महिलाओं को सताए जाने और उनकी क्रूरताओं के बीच भारतीय लोकतंत्र में महिलाओं का झंडा बुलंद हो रहा है और साथ ही 10% आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के उम्मीदवार भी चुने गए हैं।
पांच वर्ष पहले यूपीएससी टॉपर टीना डाबी की छोटी बहन रिया ने भी 15वीं रैंक के साथ अपनी प्रतिभा सिद्ध की है, तो दिल्ली में रह रही बहुत गरीब परिवार की दो सगी बहनें – सृष्टि और सिमरन – भी एक साथ सफल हुई हैं। इस बार के टॉपर तो बिहार के शुभम कुमार रहे ही, पिछले दस वर्षों की तरह 70% से अधिक इंजीनियरिंग पढ़े हुए उम्मीदवारों का बोलबाला रहा है।
चिंता की बात यह है कि इनमें से अधिकांश ने मुख्य परीक्षा में एंथ्रोपोलॉजी, समाजशास्त्र, राजनीति शास्त्र, भूगोल जैसे वैकल्पिक विषय लेकर यह परीक्षा पास की है। इसीलिए यह बहुत गंभीर प्रश्न है कि वैकल्पिक विषयों को क्यों न पूरी तरह से समाप्त कर दिया जाए, और इसकी जगह कानून तथा लोक प्रशासन जैसे विषयों को सामान्य ज्ञान के पर्चे में शामिल करके अनिवार्य बना दिया जाए!
सन 2000 में वाई. के. अलघ की कमेटी ने भी इन विषयों की सिफारिश की थी। इससे वैकल्पिक विषय के बीच होने वाली असमानता भी समाप्त हो जाएगी। मुख्य परीक्षा में कुछ वैकल्पिक विषय लेने वाले उम्मीदवार 10 से ज्यादा नहीं होते, तो कुछ की संख्या कई हजार से भी ज्यादा पहुंच जाती है। इससे भोजपुरी, मगही, जैसी भाषाओं को आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग भी स्वत: खत्म हो जाएगी।
इतना ही बड़ा प्रश्न आयोग के सामने पिछले 10 वर्षों से यह भी है जिसमें प्रारंभिक परीक्षा को लेकर बार-बार शंकाएं उभर रही हैं। ऐसे हजारों उम्मीदवार हैं जो लगातार प्रारंभिक परीक्षा में फेल होते रहे और फिर टॉपर बन गए, और ऐसे उम्मीदवारों की भी कमी नहीं, जो पहले प्रयास में अच्छी रैंक ले पाए, लेकिन फिर कभी प्रारंभिक परीक्षा भी पास नहीं कर पाए।
सच्ची प्रतिभा रातों-रात इतनी ऊंची-नीची नहीं होती। जरूर यूपीएससी की परीक्षा प्रणाली में कोई न कोई दोष आ रहा है, जिसे और नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। वह भी तब जब वर्ष 1979 में कोठारी कमेटी द्वारा सभी प्रशासनिक सेवाओं के लिए एक ही परीक्षा की सिफारिश की गई थी।
इसमें पहले 30 वर्षों तक ऐसी अनियमितताएं कभी सामने नहीं आईं। इसमें 2011 से गड़बड़ तब शुरू हुई जब प्रारंभिक परीक्षा का मॉडल सी-सैट बनाया गया। हिंदी समेत सभी भारतीय भाषाओं के उम्मीदवार भी 2010 तक लगभग 15 प्रतिशत तक सफल होते रहे। भारतीय भाषाओं पर भी गाज 2011 में तब गिरी, जब अंग्रेजी प्रारंभिक परीक्षा में ही अनिवार्य कर दी गई।
मोदी सरकार ने 2014 में उसे बदल तो दिया, लेकिन उसके बाद भारतीय भाषाओं को उभरने का मौका आज तक नहीं मिला। सिविल सेवा परीक्षा में अंग्रेजी के दबदबे ने सारी भारतीय भाषाओं को बर्बादी की तरफ मोड़ दिया है।
आंकड़े बताते हैं कि इस वर्ष भी भारतीय भाषाओं में सफल उम्मीदवारों की संख्या 3 प्रतिशत से ज्यादा नहीं है। यानि 97 प्रतिशत अंग्रेजी माध्यम वाले! यह आजाद देश है, या अंग्रेजों का गुलाम?
हिंदी सहित भारतीय भाषाओं की पक्षधर मोदी सरकार को गंभीरता से इसे बदलने की जरूरत है। ‘आत्मनिर्भर भारत’ का नारा ‘आत्मनिर्भर भाषाओं’ से ही संभव है।
लेकिन सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि 80 के दशक में इन प्रशासनिक सेवाओं में रिक्तियों की संख्या सात सौ के करीब होती थी, जबकि जनसंख्या आधी थी। इस बीच बढ़ती जनसंख्या को संभालने के लिए सरकारी कार्यकलाप भी बढ़े हैं। माना निजीकरण का दौर है, लेकिन इतने विशाल देश को संभालने के लिए देश के पहले उप-प्रधानमंत्री सरदार पटेल ने जिस स्टील फ्रेम की वकालत की थी उसे इतना कमजोर तो न किया जाए कि भविष्य में देश के प्रशासनिक तंत्र को संभालने के लिए मुश्किलें पैदा हों।
भारतीय रेल इस विशाल देश की जीवन-रेखा कही जाती है। पिछले दो वर्ष से सरकार ने इंजीनियरिंग सेवा परीक्षा (ईएसई) और सिविल सेवा परीक्षा (सीएसई) दोनों में ही रेलवे में प्रतिवर्ष होने वाली लगभग 250 अफसरों की भर्ती बंद कर दी है। ऐसा ही वज्र जन-जन तक चिट्ठी-पत्री पहुंचाने वाली डाक सेवा का हुआ है। कई अन्य विभागों में भर्ती शून्य की तरफ बढ़ रही है।
सवाल यह है कि क्या केंद्रीय सेवाएं, सरकार के लिए अब इतनी गैरजरूरी हो चुकी हैं? यदि सरकारी ढांचे में कुछ कमी है, उसमें जंग लगी है, तो उसे तुरंत सुधारने की आवश्यकता है, न कि जिस पानी से बच्चे को नहलाया गया है, उसी के साथ उसे फेंक देने की!
सरकारी तंत्र को अगर निजी क्षेत्र की तरह सक्षम बनाना है, तो तुरंत 37 साल की उम्र तक की भर्ती करने के बजाए सिविल सेवाओं में भर्ती की उम्र अधिकतम 28 वर्ष रखी जाए, और प्रारंभिक परीक्षा को भी पुनराकलन (रिव्यू) करके तर्कसंगत बनाया जाए, जिससे देश की सर्वश्रेष्ठ प्रतिभा इन सेवाओं में चुनी जा सके।
एक लोकतांत्रिक सरकार में जाति, धर्म के किसी भी अंश से मुक्त होने की जरूरत है, और वैसा ही शिक्षा संस्थानों को भी बनाया जाए। समाज में जाति है, तो सरकार में भी होगी, राजनीतिक उद्देश्यों से दिए जा रहे ऐसे मूर्खतापूर्ण कुतर्कों से देश डूब जाएगा।
जाति को देश से भी खत्म करने की आवश्यकता है, न कि उसे बार-बार गिनने की, जैसे उत्तर भारत का एक गिरोह बार-बार इसकी मांग कर रहा है।
एक सक्षम नौकरशाही पूरे देश का कल्याण कर सकती है, न कि पहले टुकड़ों-टुकड़ों में बांट दो और फिर उसे आईसीयू में भर्ती करने के लिए मजबूर हों। देश के हित में कुछ निर्णय राजनीतिक दांव-पेच और वोट-बैंक से ज्यादा जरूरी होते हैं। सिविल सेवाओं की परीक्षा और लॉटरी को एक तराजू में नहीं रखा जा सकता।
#प्रेमपाल_शर्मा, पूर्व संयुक्त सचिव, रेल मंत्रालय, 96, कला विहार अपार्टमेंट, मयूर विहार, फेज-1, दिल्ली-91.
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