रेल को बचाना है तो दोनों को एक होकर अनेक की भूमिका निभानी होगी!

“सरकारें समग्रता में सोचती और काम करती हैं, उनकी नजर में देश की जनता की भलाई तथा उनके साथ न्याय और देश का विकास महत्वपूर्ण होता है। इसमें साधन और संसाधन महत्वपूर्ण होते हैं। सिर्फ इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए हर विभाग और संस्था मात्र साधन है, न कि अंतिम लक्ष्य।”

IRMS के गठन पर मीडिया के कई हलकों में सिविल एवं इंजीनियरिंग सेवाओं के अधिकारियों के बीच कई तरह के विमर्श चल रहे हैं। दोनों ही स्वयं को एक-दूसरे से श्रेष्ठ बताने पर आमादा हैं। इस विमर्श के साथ इससे संबंधित कई अन्य खबरों को देखने के बाद इच्छा हुई कि किसी बाहर के तटस्थ व्यक्ति से इस पर उसकी राय ले ली जाए।

दिल्ली में एक पुराने मित्र, जो राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त पत्रकार और स्तंभ लेखक हैं, जिनको परिवहन, तकनीकी, आर्थिक/वित्तीय सहित प्रशासनिक विषयों पर महारत हासिल है, इस सब का उन्हें 40 साल का लंबा अनुभव भी है, से इस पेपर कटिंग और इस पूरे विषय पर उनकी राय मांगी।

उन्होंने हंसकर कहा, “इसी तरह की सोच का परिणाम है यह डेवलपमेंट!” उन्होंने कहा कि “किसी भी जगह, जहां लोग आत्मावलोकन छोड़कर दूसरों को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति पाल लेते हैं, वह जगह, चाहे कोई समाज हो, संस्था हो या फिर परिवार ही क्यों न हो, जल्दी ही नष्ट हो जाती है।”

उन्होंने आगे कहा, “जो संस्था अथवा जिस संस्था के लोग अपना मूल कार्य – जैसे रेलवे में परिवहन, रेल संचालन, माल ढ़ुलाई इत्यादि मुख्य गतिविधियां – को छोड़कर बाकी निरर्थक गतिविधियों में ज्यादा ध्यान दिया जाने लगता है, रस लिया जाने लगता है, उसे बढ़ाया-विस्तारित नहीं किया जाता है, समयांतराल पर उसमें नए-नए कारक नहीं जोड़े जाते हैं, उस संस्था और उसके लोगों को बहुत जल्दी ही दुर्दिन देखने की नौबत आ जाती है।”

उन्होंने कहा, “यह सरकार जो भी कर रही है, बहुत सोच-समझकर और बड़ी दूरदर्शिता के साथ कर रही है। शुरुआत में लोगों को अटपटा लग सकता है, लेकिन चीजें सही दिशा में जाती दिखाई दे रही हैं।”

यह कहने पर कि क्या यह इंजीनियर्स के साथ अन्याय  नहीं है? इस पर उनका सीधा जवाब था कि “सरकारें समग्रता में सोचती और काम करती हैं, उनकी नजर में देश की जनता की भलाई तथा उनके साथ न्याय और देश का विकास महत्वपूर्ण होता है। इसमें साधन और संसाधन महत्वपूर्ण होते हैं। सिर्फ इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए हर विभाग और संस्था मात्र साधन है, न कि अंतिम लक्ष्य।”

इस तरह की निम्न स्तरीय सोच या बयान, स्वयं उसका स्तर उजागर कर देता है! और जो ऐसी सोच रखता है, वह सृजन नहीं, लूट और विनाश का कारण होता है!

उन्होंने कहा कि अब रही बात, लखनऊ के अंग्रेजी दैनिक में 18.02.2022 को प्रकाशित इस खबर पर कमेंट करने की, जो आपने फारवर्ड करके भेजी है, तो मैं अपको एक मैसेज फारवर्ड कर रहा हूँ, जो इस संदर्भ में मुझे अब तक का सबसे तर्कपूर्ण और यथार्थपरक लगा है, इससे सारी वस्तुस्थिति स्पष्ट हो जाती है –

“Sir, there are number of myths which have been propagated by the engineering fraternity –

First is that engineers are technical hand and railways is a technical organization. Fact is that engineers are just like civil servants, recruited only through a simpler examination.

Railways is not a technical organization, it is just like any government organisation working in transport sector. Did engineers in AIR India, said we should run AIR India, because we maintain all the assets?

Railways in last 70 years could not produce even a single technical break through which could be exported in the rest of the world. We imported LHB coaches, hire consultants for infrastructure building.

We are still a decade behind running first high speed train while technology is more than six decades old.

The real technical organisations in india are ISRO, BARC, or to some extent DRDO. If we really want Railways to be a technical organization we should overhaul structures completely.

In present scenario it doesn’t matter through what mode people are recruited, because we are not doing any R&D. So if IRMS is through Civil Services it is not going to affect railway working.

In fact Railways will start seeing the change just after the postings of at least two IRMS batches in the field.”

“Sir, in fact nowadays it is the contractor who makes the estimates and concerned engineer only signs it. Actually, Engineers made railway a “contract organisation”.

There is another interesting thing, that variation in any work upto 50% is allowed. If such a thing happens in any private company, the CEO & CFO would be sent home immediately.

If estimates made by such a great technical experts, can vary upto 50%, we surely need to question the wisdom and technical expertise of our engineer brethren.

There are various posts like SrDEN/Co, SrDME/EnHM, SrDME/C&W etc etc, who do nothing except signing here and there.

CAO as head of so called Technical Organisation that is Construction, does nothing except accepting TC minutes. Even here they hire consultants to advise on technical specification of a project.

This is akin to saying that “because Railway’s technical hand lack technical expertise so we are hiring an external agency.” Even though, Railway’s residential colonies or even a working place, not a single construction is up to the mark.

Thus there is no rationale of having more and more technical people who are doing purely administrative work.”

सिविल और इंजीनियरिंग सेवाओं की यह लड़ाई ही असल में रेलवे में विभागवाद (डिपार्टमेंटलिज्म) की असली जड़ है। अतः इस जड़ को समाप्त करना अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि जब से रेलवे में सपोर्टिंग/बैकिंग देने वाले विभागों को ज्यादा तवज्जो दी गई, जब से कमाने वालों को पीछे धकेलकर उड़ानें अर्थात खर्च करने वालों को आगे लाया गया, तभी से रेल का बंटाधार होना शुरू हुआ। और यह काम खासतौर पर पिछले पांच-छह सालों में ज्यादा हुआ है। इसके निहितार्थ समझे जा सकते हैं।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि प्रकृति और व्यवस्था में सृजन के साथ-साथ निर्माण की भी अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका है। जब तक यह दोनों अपनी-अपनी सीमा में रहकर अपने-अपने दायित्व का निर्वाह करते हैं, तब तक सब कुछ ठीक चलता है। सीमा लांघने अथवा एक-दूसरे की भूमिकाओं का अतिक्रमण करने का अर्थ है, प्रकृति और व्यवस्था दोनों का विनाश। अगर रेल को बचाना है तो दोनों को एक रहकर अनेक की भूमिका निभाने के लिए तत्पर होना पड़ेगा।

प्रस्तुति: सुरेश त्रिपाठी

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