विषैला वामपंथ: “भेड़ की खाल ओढ़े भेड़िया”
एक ऐसा परजीवी वर्ग खड़ा किया गया, उसे मुफ्तखोरी की लत लगाई गई, ढ़ेर सारा विक्टिमहूड कॉम्प्लेक्स और एन्टाइटलमेंट का बोध दिया गया और फिर उसे वर्किंग क्लास के गले बाँध दिया गया
200 वर्षों तक भारत और इंग्लैंड का इतिहास एक दूसरे से बिल्कुल गुत्थमगुत्था रहा है और आज भी दुनिया के जिस किसी एक देश से भारत का इतिहास सबसे अधिक जुड़ा है, तो वह इंग्लैंड ही है।
भारत की सांस्कृतिक दिशा और आर्थिक नियति आज भी इंग्लैंड से इतनी प्रभावित होती है कि इंग्लैंड को समझना भारत को समझने के लिए एक जरूरी शर्त दिखाई देती है।
एक स्वीकृत प्रवृत्ति यह मानने की है कि इंग्लैंड ने अपनी समृद्धि दुनिया को लूटकर कमाई है। पर यह एकांगी और अधूरा सत्य है। अगर इंग्लैंड ने दुनिया को लूटकर ही अपनी समृद्धि कमाई, तो उसके लिए यह करना संभव कैसे हुआ? वह भी उस काल में जब वह इसके लिए अन्य यूरोपीय शक्तियों से स्पर्धा में था?
आप यह नजरंदाज नहीं कर सकते कि दुनिया के इतिहास की सबसे बड़ी घटनाओं में से एक था औद्योगिक क्रांति, और इंग्लैंड को इसकी निर्विवाद श्रेष्ठता प्राप्त थी।
औद्योगिक क्रांति ने दुनिया पर इंग्लैंड का प्रभुत्व सम्भव किया।
औद्योगिक क्रांति ने इस छोटे से द्वीप को पर्याप्त आर्थिक शक्ति, तकनीकी श्रेष्ठता और सामरिक क्षमता दी, जिससे दुनिया के सबसे बड़े साम्राज्य का निर्माण सम्भव हुआ.
यह सही है कि ब्रिटिश साम्राज्य ने जब यह शक्ति अर्जित कर ली, तो दुनिया का जमकर शोषण भी किया।
परंतु यहां यह भी न भूलें कि इंग्लैंड ने अपने देश को जो मुक्त व्यापार की व्यवस्था दी थी, वह अपनी कॉलोनियों को नहीं दी थी। इसीलिए जो समृद्धि इंग्लैंड को मिली, वह उसकी कॉलोनियों को नहीं मिली।
लेकिन उसकी आज की समृद्धि इस शोषण का परिणाम नहीं है।
साम्राज्य से इंग्लैंड ने जो भी कमाया था, वह दो विश्व युद्ध लड़ने में खपा कर कंगाल हो गया था।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की लेबर सरकारों और ट्रेड यूनियनों ने इंग्लैंड की स्थिति बेहद खराब कर दी थी और इंग्लैंड की गिनती पूर्वी यूरोप के गरीब देशों के साथ होती थी।
लेकिन 80 के दशक में इंग्लैंड ने फिर से पूँजीवाद को अपनाया और इकोनॉमिक रिकवरी की, जिसकी नेत्री रहीं, आयरन लेडी तत्कालीन प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर!
लेकिन औद्योगिक क्रांति और पूँजीवादी अर्थतंत्र ने सिर्फ दुनिया को नहीं बदला, इसने अंग्रेजी समाज को भी अंदर से बदल दिया।
इंग्लैंड एक सामन्ती अर्थव्यवस्था और समाजवादी व्यवस्था से बाहर निकल पाया, तो इसी पूँजीवाद की वजह से।
पहली बार समृद्धि के रास्ते सब के लिए खुले, और संपन्न होने के लिए एक सम्पन्न व्यक्ति की संतान होना एक शर्त नहीं रह गया।
उद्योग और व्यवसाय ने समृद्धि को जन-जन तक पहुँचाया, शहर बसे और इंग्लैंड के निवासियों ने झोपड़ों से निकलकर पहली बार आलीशान घरों में रहने का अवसर पाया।
पूरे लंदन के पक्के मकान इसी विक्टोरियन काल में बसे और उसमें रहने वाले लोग सामन्ती तथा पूँजीपति नहीं बल्कि आम नागरिक थे, जिनकी पहली पीढ़ी समृद्धि का मुँह देख रही थी।
अगर आर्थिक समृद्धि पूरे वृहद समाज के नसीब में आई, तो वह इसी पूँजीवाद के कारण संभव हुआ।
पर इसका सबसे बड़ा नुकसान यहाँ के सम्पन्न सामन्ती वर्ग को हुआ। जो जॉन स्मिथ कल तक उसकी रैयत हुआ करता था, उसने उसके बराबर में पक्का मकान बना लिया और मिस्टर स्मिथ कहलाने लगा, उसी के जैसे कपड़े पहनकर उसी की जैसी बग्घी में चलने लगा और उसकी बेटी से शादी करने का हिसाब लगाने लगा।
और तब आया वामपंथ !
वामपंथ चीन और रूस में नहीं, बल्कि जर्मनी, फ्रांस और इंग्लैंड में अपने अलग-अलग रूपों में पनपा।
यहां यह ध्यान देना जरूरी है कि कार्ल मार्क्स ने अपने जीवन का महत्वपूर्ण भाग इंग्लैंड में बिताया था और जहाँ वीर सावरकर का क्रोमवैल एवेन्यू वाला घर था, उससे कुछ कदम की दूरी पर मार्क्स की कब्र भी है।
इंग्लिश भोजन, इंग्लिश ह्यूमर, इंग्लिश मौसम और इंग्लिश कपड़ों के रंग की तरह इंग्लिश समाजवाद का फ्लेवर भी बेहद दबा ढ़ंका हुआ है।
यहाँ वामपंथ अपने जिस रूप में फैला, वह आसानी से दिखाई नहीं देता पर वही जो सबसे मारक है –
वह है “फेबियन सोशलिज्म” !
1890 के आसपास यहाँ फेबियन सोसाइटी का गठन हुआ जिसमें यहाँ के कुछ बहुत बड़े-बड़े नाम जुड़े रहे, जैसे –
जॉर्ज बर्नार्ड शॉ, सिडनी, बीएट्रिस वेब, हैरॉल्ड लास्की, बर्ट्रेंड रसेल, एच जी वेल्स, और प्रसिद्ध समाजवादी अर्थशास्त्री जॉन मेनार्ड केन्स प्रसिद्ध फेबियन हुए।
जर्मनी के फ्रैंकफर्ट स्कूल की तरह “फेबियन सोसाइटी” से जुड़े ये सारे नाम बेहद सम्पन्न सामंती पृष्ठभूमि के ही थे।
इंग्लैंड की “लेबर पार्टी” और “लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स” भी फेबियन उपलब्धियाँ हैं।
एशिया और अफ्रीका के अनेक देशों के होने वाले राष्ट्राध्यक्ष भी फेबियन प्रभाव में बड़े हुए। भारत में जवाहर लाल नेहरू और भीमराव अम्बेडकर भी फेबियन सोसाइटी की ही देन हैं।
फेबियन सोसाइटी का नाम रोमन जनरल फैबियस मैक्सिमस के नाम पर पड़ा है, जो युद्ध को टालते रहने की अपनी स्ट्रेटेजी के लिए जाना जाता था।
फेबियन सोसाइटी ने भी समाजवादी क्रांति के लिए मार्क्स के सशस्त्र संघर्ष के बजाय इस धीमे और मीठे जहर को चुना, जिसमें समाज अनजाने में धीरे-धीरे एक वामपंथी समाज में परिवर्तित हो जाएगा।
उनके और रूसी कम्युनिस्टों के उद्देश्यों में कोई अंतर नहीं है, लेकिन उसे हासिल करने की तकनीक अलग है और इसीलिए फेबियन सोसाइटी का प्रतीक है – उसके कोट ऑफ आर्म्स पर बना – “भेड़ की खाल ओढ़े भेड़िया” का चित्र।
समाजवाद मूलतः पूँजीवाद और औद्योगिक प्रगति से समृद्ध होते समाज के ऊपर से सामन्ती वर्ग की पकड़ छूटने की छटपटाहट है।
मेहनत करके आत्मनिर्भर, स्वावलंबी और समृद्ध होते वर्किंग क्लास को अपना प्रतिस्पर्धी बनते देखने का डर है समाजवाद।
इसलिए एक ऐसा परजीवी वर्ग खड़ा किया गया, जिसे मुफ्तखोरी की लत लगाई गई, ढ़ेर सारा विक्टिमहूड कॉम्प्लेक्स और एन्टाइटलमेंट का बोध दिया गया और उसे फिर वर्किंग क्लास के गले बाँध दिया गया।
आज इंग्लैंड की इकॉनमी थैचर के जमाने के निर्णयों के कारण एक पूँजीवादी व्यवस्था में सर्वाइव तो कर रही है, लेकिन उसके पैरों में पड़ी यह समाजवादी बेड़ियाँ और 50% से ऊपर का टैक्सेशन उसे साँस भी नहीं लेने देता।
फेबियन सोसाइटी ने इंग्लिश इकॉनमी को लिक्विड ऑक्सीजन में डाल रखा है। समाजवाद इसे जीने नहीं देता, और पूँजीवाद इसे मरने नहीं देता।
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