वेद मेहता (1934-2021) नहीं रहे – एक विनम्र श्रद्धांजलि

Mahatma Gandhi & his Apostles – महात्मा गांधी पर लिखी उनकी बेमिसाल किताब है! अथक मेहनत और नायाब दृष्टि! लाहौर में पैदा हुए और 3 वर्ष होते-होते आंखें चली गईं। मुंबई में इलाज सफल नहीं हुआ, तो अमेरिका में इलाज हुआ। दृष्टि तो नहीं लौटी लेकिन एक अंग्रेजी लेखक, पत्रकार के रूप में सलमान रश्दी आदि लेखकों से बहुत पहले भारतीय झंडा बुलंद किया।

नौ खंडों में उनकी जीवनी छपी है: Contents of Excile – चंपारण सत्याग्रह के 100 वर्ष पूरे होने पर उनकी किताब से प्रेमपाल शर्मा जी ने कुछ अंश अनुवाद किए थे। प्रस्तुत है –

चंपारण : वेद मेहता की कलम से –

#दिसंबर 1916 में भारतीय राष्‍ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन लखनऊ में था। गांधी को दक्षिण अफ्रीका से लौटे लगभग दो साल हो चुके थे। गांधी जी भी वहां पहुंचे। कांग्रेस के एजेंडा में चंपारण के किसानों का मसला भी था। गांधी को चंपारण के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। इसलिए चंपारण के ऊपर हुई गोष्‍ठी में भी शामिल नहीं हुए।

लेकिन उसके बाद एक गरीब किसान उनके पास गया और उसने गांधी से मिन्‍नत की कि वे खुद चंपारण आएं और देंखें कि अंग्रेज जमींदार कैसे किसानों का शोषण कर रहे हैं।

चंपारण बिहार राज्‍य में हिमालय की तलहटी में इतना दूर था कि गांधी ने कभी नाम भी नहीं सुना था। अत: उन्‍होंने उस किसान की बातों पर कोई ध्‍यान नहीं दिया। लेकिन यह किसान नहीं माना और गांधी के साथ-साथ कानपुर, अहमदाबाद से लेकर कलकत्ता तक लगा रहा। हारकर गांधी चंपारण जाने के लिए तैयार हो गए। अप्रैल 1917 में वे दोनो कलकत्ता से चंपारण के लिए रवाना हुए।

वे पहले मुजफ्फपुर गए। यह चंपारण के नजदीक था। यहां के वकीलों ने गांधी को बताया कि यहां अधिकांश कृषि जोत पर अंग्रेजों का अधिकार है और इसे उन्‍होंने भारतीय किसानों को लगान पर दे रखा है। लगान की शर्तों के अनुसार इसके पंद्रह प्रतिशत पर नील उगाना अनिवार्य है और यह सब अंग्रेज सरकार को लगान के रूप में देना होगा।

नील उन दिनों की सबसे मंहगी कृषि पैदावार थी। नील की इस पैदावार को अंग्रेज नजदीकी फैक्‍टरी में ले जाकर उत्‍पाद में बदलते थे। जहां से ऊंची कीमत पर इसे यूरोप के बाजारों में बेचा जाता था।

सदी की शुरूआत में जर्मनी ने सिंथेटिक नील बनाना शुरू कर दिया, जो बहुत सस्‍ता था। अत: बाजार में प्राकृतिक नील की मांग बहत कम हो गयी। किसानों को तो इस बात की जानकारी नहीं थी, लेकिन अंग्रेज मालिकों ने चाल खेली और किसानों से नकद लगान की मांग की।

नील की इस फसल को अब कोई लेने को तैयार नहीं था। किसानों को अंग्रेजों की चाल का अहसास हुआ। वे इकट्ठे हुए और जो लगान दिया था, उसकी वापसी की मांग की।

गांधी को लगा कि वकील और मुकद्दमेबाजी में तो यह किसान और भी मारे जाएंगे। अत: अच्‍छा यही होगा कि वकील गांव-गांव किसानों के पास जाएं, उनकी शिकायतें सुनें, प्रमाण इकट्ठे करें और पहले कदम के रूप में लगान के नियमों में सुधार की मांग करें।

गांधी अपनी बात के प्रति इतने आग्रही थे कि वकीलों ने यह जानते हुए भी कि इसका अंजाम राजनीतिक गिरफ्तारी हो सकती है, गांधी की बात मानी। जब गांधी ने चंपारण के जमीन मालिकों से बात की तो वे कहां मानने वाले थे। उन्‍होंने गांधी को बेकार की मुसीबत पैदा करने वाला मानकर टरका दिया।

चंपारण में गांधी ने खुद घर-घर किसानों के पास जाकर दस्‍तावेज इकट्ठे किए। ब्रिटिश शासन को जैसे ही इसकी भनक लगी, गांधी को जिला मजिस्‍ट्रेट के समक्ष पेश होने के लिए कहा गया। गांधी ने इसकी सूचना वायसरॉय समेत सभी दोस्‍तों को टेलिग्राम से भेज दी।

स्‍थानीय लोगों को जैसे ही यह खबर मिली कि किसानों के हितैषी गांधी मोतिहारी में मजिस्‍ट्रेट के सामने पेश होंगे, पैदल बैलगाड़ी पर सवार जनसमूह सड़कों पर उतर गया। मानों गांधी की मात्र उपस्थिति ने किसानों, गरीब जनता को सरकारी कारकूनों, जमींदारों से लड़ने की ताकत दे दी हो।

गांधी ने मजिस्‍ट्रेट से कहा कि “उन्‍होंने किसी भी रूप में शांति भंग नहीं की है। हां, आपकी आज्ञा न मानने का अपराधी जरूर हूं। मैंने आपके आदेशों का उल्‍लंघन किसी असम्‍मान के लिए नहीं किया है, बल्कि अपनी अंतर्आत्‍मा की आवाज की खातिर ऐसा किया है।”

इससे पहले कि गांधी को कोई सजा सुनाई जाती, दिल्‍ली में बैठी सत्ता को अहसास हो गया कि स्‍थानीय अधिकारियों से गांधी के मामले में गलती हो गई है और वे नायक बना दिए गए हैं। दिल्‍ली से आदेश आए कि “गांधी को दोषमुक्‍त माना जाए और वे जो भी काम कर रहे हैं, उन्‍हें करने दिया जाए।”

वकीलों और दूसरे स्‍थानीय लोगों की मदद से चंपारण के लगभग आठ हजार किसानों से उन्‍होंने दस्‍तावेज इकट्ठे किए। चंपारण में तैनात तत्‍कालीन एक अंग्रेज अधिकारी की टिप्‍पणी थी, “इस गांधी को अपने-अपने ढ़ंग से एक आर्दशवादी, पागल अथवा क्रांतिकारी कुछ भी माने, लेकिन किसानों, जनता की नजरों में गांधी उनका उद्धारक है और उसमें अलौकिक शक्ति है। वह गांव-गांव, गली-गली किसानों के पास जाकर उनका दर्द सुनता है और उन अबोध, भोले-भाले किसानों को मुक्ति का स्‍वप्‍न दिखाता है।”

गांधी को लोग मसीहा मानने लगे, क्‍योंकि इतने लंबे समय के शोषण से मुक्ति की उम्‍मीद पहली बार जगी थी। अंतत: वायसरॉय लार्ड चेम्‍सफोर्ड के हस्‍तक्षेप से चंपारण कृषक जांच समिति नियुक्‍त की गई, जिसमें गांधी भी एक सदस्‍य बनाए गए। किसानों को अपने दिए गए पूरे टैक्‍स की वापसी की उम्‍मीद थी, लेकिन समिति ने केवल 25 प्रतिशत रिफंड की सिफारिश की।

गांधी ने इस मुद्दे पर थोड़ा समझौता इसलिए किया कि यह रकम वापसी इस बात का प्रमाण थी कि जमींदारों ने किसानों के साथ अन्‍याय किया है। गांधी का मानना था कि यह सिद्धांतों की जीत ज्‍यादा है, न कि उनकी सभी परेशानियों का हल। यह मानना कि नील के दाग-धब्‍बे कभी नहीं मिटाए जा सकते, इस भ्रांति को भी सदा के लिए दूर करना था।

गांधी इसके बाद भी चंपारण में कई महीने रूके। उन्‍होंने बंबई जैसे दूर-दराज के इलाकों से वालंटियर बुलाए और यहां की जनता में सफाई, स्‍वच्‍छता का अभियान चलाया। उन्‍हें शिक्षित करने की कोशिश की। यहां पेचिस, मलेरिया, फोड़े, फुंसियों की कई बीमारियों ने जनता को जकड़ रखा था।

प्राकृतिक चिकित्‍सा के साथ-साथ उन्‍हें सामान्‍य दवाओं, कुनैन, सल्‍फर के मरहम आदि से गांधी ने परिचित कराया। उन्‍हें अपनी झोंपड़ी, सड़क, गली को साफ-सुथरा रखने की शिक्षा दी। झोंपड़ियों में खुले स्‍कूलों को सुधारा, उन्हें रसोईघर बनाने के सुझाव दिए और पौष्टिक भोजन आदि के बारे में बताया।

लेकिन 1917 का अंत होते-होते उन्‍हें अहमदाबाद से बुलावा आ गया। वहां की एक कपड़ा मिल में मजदूर हड़ताल पर चले गए थे। गांधी के चंपारण छोड़ते ही सभी स्‍वयंसेवक/वालंटियर भी वापस लौट गए और चंपारण के गांव उसी पुराने ढ़र्रे पर वापस आ गए।

-Ved Mehta – Mahatma Gandhi & his Apostles – Penguin Books.

(Ved Mehta was lived in New York. A well known writer, columnist in New York, Amreica)

अंग्रेजी से अनुवाद: #प्रेमपाल_शर्मा

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