कहीं एनडीए के प्रफुल्ल पटेल बनने की राह पर अग्रसर तो नहीं हैं रेलमंत्री अश्वनी वैष्णव!

प्रफुल्ल पटेल बनाम अश्वनी वैष्णव: क्या एयर इंडिया के ट्रैक पर जा रही है भारतीय रेल?

मॉडर्नाइजेशन की राह पर चलकर कहीं एयर इंडिया तो नहीं बनने जा रही भारतीय रेल!

क्योंकि वह सरकार हैं, और सरकार को कोई भी निर्णय लेने का अधिकार है!

भारतीय रेल में आय-व्यय और निवेश का कोई हिसाब नहीं है। तथ्यों पर अगर गौर किया जाए, तो ऐसा ही कुछ संकेत मिलता है। एक मंत्री जी आते हैं, वह एक दुर्घटना के बाद 15-20 हजार आईसीएफ कोचों को एक झटके में सर्विस से बाहर करने की घोषणा कर देते हैं। बिना सोचे-समझे केवल अपनी वाहवाही के लिए पांच हजार से ज्यादा कोचों को कोविड के नाम पर बरबाद कर देते हैं। कहीं कोई रोकने-टोकने वाला नहीं, क्योंकि वह सरकार हैं, और सरकार को कुछ भी करने का अधिकार है!

जुनून में आकर अचानक सर्विस से बाहर घोषित किए गए ऐसे लगभग 10-12 हजार आईसीएफ कोच अभी भी भारतीय रेल की तमाम साइडिंग्स को घेरे खड़े हैं, जिनकी सर्विस लाइफ अभी-भी 12-15 साल बाकी है, मगर न तो उन्हें सर्विस में लिया जा रहा है, और न ही उन्हें अंतिम रूप से कंडम घोषित करने का साहस कोई सक्षम अधिकारी कर पा रहा है। इस तरह जनता की गाढ़ी कमाई के लगभग ₹12 हजार करोड़ पटरियों पर पड़े-खड़े रखकर सड़ाए जा रहे हैं। कोई कुछ नहीं कह सकता, क्योंकि वह सरकार हैं, और सरकार को कुछ भी करने का अधिकार है!

आए दिन इस या उस नाम पर सैकड़ों ट्रेनें रद्द कर दी जा रही हैं, क्योंकि रेक नहीं हैं, मगर जो रेक साइडिंग्स में खड़े रखकर सड़ाए जा रहे हैं, जिनकी कोडल लाइफ अभी-भी 12-15 साल बची हुई है, उन्हें जन-सुविधा के लिए उपयोग करने हेतु पटरी पर लाने की बात कहने के लिए किसी बोर्ड मेंबर के मुंह में जुबान नहीं है। आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष में भी ब्यूरोक्रेसी में गुलामी की यह मानसिकता देश की अपूरणीय क्षति कर रही है। पर कोई कुछ बोल नहीं पा रहा है, क्योंकि वह स्वयं को ही सरकार समझते हैं, इसलिए वह कुछ भी कर सकते हैं!

हाई स्पीड और सेमी हाई स्पीड के नाम पर टुकड़ों में (सेक्शन वाइज) ट्रैक अपग्रेड करने के लिए हजारों करोड़ के टेंडर कर दिए गए, परंतु असल में काम हुआ, कि नहीं, या फिर एडवांस टेंडर केवल कमीशन खाने के लिए किए गए, टेंडर वाइज ऐसे कितने कार्यों का आज तक असेसमेंट किया गया, यह पूछने वाला कोई नहीं है। कोई कुछ नहीं बोल सकता, क्योंकि वह सरकार हैं, इसलिए सरकार को कुछ भी करने का अधिकार है!

अब निजाम फिर बदल गया है। पूर्व निजाम के कुछ ऊलजलूल निर्णय हालांकि रद्द किए गए हैं और बजट में 400 वंदेभारत ट्रेन सेट वर्ष 2024 तक बनाने की घोषणा की गई है। यह अच्छी बात है, क्योंकि इससे नया वातावरण निर्मित हुआ है। इसके पहले 44+58 = 102 रेक के साथ 30% अतिरिक्त, यानि कुल 132 रेक निर्माण के टेंडर जारी किए जा चुके हैं। इस तरह यह कुल लगभग 532 रेक हो जाते हैं। इतनी बड़ी संख्या में इन ट्रेनों को कहां बनाया और कहां चलाया जाएगा, यह अब तक स्पष्ट नहीं है। प्रस्तुत हैं कुछ तथ्य –

दिसंबर 2020 में 44 वंदेभारत ट्रेन सेट इलेक्ट्रिकल का आर्डर मेधा को दिया गया। इस आर्डर में अब 30% और बढ़ा दिया गया है।

मार्च 2022 में 58 ट्रेन सेट इलेक्ट्रिकल का आर्डर 6 वेंडर्स को दिया गया। इनमें से 22 ट्रेन सेट का आर्डर मेधा को, और 18 ट्रेन सेट का आर्डर बंबार्डियर को मिला है।

बाकी सीमेंस, भेल, टीटागढ़ और सैनी इलेक्ट्रिकल्स को छोटा (डेवलपमेंटल) आर्डर दिया गया है। अब इसमें भी 30% की और वृद्धि कर दी गई है।

इस तरह अगर देखा जाए तो –
44+30% + 58+30% = 132 ट्रेन सेट होते हैं।

पहले वाले 44 ट्रेन सेट (रेक) आईसीएफ, पेरंबूर, चेन्नई में बनेंगे।

दूसरे वाले 58 ट्रेन सेट (रेक) आईसीएफ, आरसीएफ और एमसीएफ में बनेंगे।

संभावित प्लानिंग

अब प्लान यह बताया जा रहा है कि 400 वंदेभारत ट्रेन सेट प्राइवेट सेक्टर से खरीदे जाएंगे। प्राइवेट सेक्टर में तीन प्लेयर हैं – 1. मेधा 2. बंबार्डियर 3. टीटागढ़। इन तीनों प्लेयर्स की ही फैक्ट्री भारत में हैं।

आईसीएफ, आरसीएफ और एमसीएफ में अर्थात रेलवे की प्रोडक्शन यूनिट्स में 132 ट्रेन सेट बनेंगे, लेकिन 400 ट्रेन सेट प्राइवेट सेक्टर द्वारा बनाए जाएंगे।

उत्पादन इकाईयों का भविष्य

इसका अर्थ यह हुआ कि 132 ट्रेन सेट बनने के बाद भारतीय रेल की उत्पादन इकाईयों (आईसीएफ, आरसीएफ और एमसीएफ) के पास करने के लिए कोई काम नहीं बचेगा।

इसका कारण यह है कि भविष्य में वंदेभारत ट्रेनों का सारा उत्पादन निजी क्षेत्र (प्राइवेट सेक्टर) में ही होगा।

रेलकर्मियों का रोजगार

इसके अलावा, यह जो 400 रेक (ट्रेन सेट) निजी क्षेत्र से खरीदे जा रहे हैं, वह सप्लाई के साथ-साथ 15 साल के रखरखाव (मेंटेनेंस) की गारंटी/समझौते के साथ लिए जाने वाले हैं। अर्थात निकट भविष्य में रेलवे के कर्मचारियों के पास भी करने के लिए कोई काम नहीं होगा।

हालांकि जानकारों का मानना है कि यह काम एक तरह से बहुत अच्छा होगा कि इंसेंटिव के बाद भी कामचोरी, हरामखोरी का सही अर्थ तब रेलकर्मियों को पता चलेगा और उनके साथ ही इसे बढ़ावा देने वाले उनके नेताओं को भी इसका मतलब अच्छी तरह से समझ में आएगा।

तथापि, प्रधानमंत्री और रेलमंत्री, जो संसद पटल सहित लगभग हर मंच से जोर देकर यह कहते हैं कि रेलवे का निजीकरण नहीं होगा, तो देश उनसे भी निजीकरण की परिभाषा जानना चाहता है कि इससे बड़ा निजीकरण और क्या होगा? और इसके अलावा निजीकरण किसे कहते हैं?

कोई नहीं कर सकता इतना उत्पादन

अब जहां तक इन 400 ट्रेन सेट के बजट की बात है, तो मेंटेनेंस और प्रोडक्शन के साथ इसकी कांट्रैक्ट वैल्यू लगभग ₹60-65 हजार करोड़ तक हो सकती है। बल्कि जानकारों का तो मानना है कि यह कुल लागत लगभग ₹80 हजार करोड़ तक जा सकती है। उनका यह भी कहना है कि इतनी बड़ी संख्या में ट्रेनों का उत्पादन तो चीन भी नहीं कर सकता है। इसका सीधा अर्थ यह है कि इस पूरी प्रक्रिया का उद्देश्य अब तक पर्दे के पीछे छिपा हुआ है।

जानकारों का यह भी दावा है कि यह ट्रेनें 2024 तक तो बनने से रहीं, बल्कि 2029 तक भी अगर बन जाएं, तो यह एक बहुत बड़ा करिश्मा ही होगा। इसके लिए वे मुंबई-अहमदाबाद हाई स्पीड कॉरिडोर और डेडीकेटेड फ्रेट कॉरिडोर (डीएफसीसीआईएल) तथा स्टेशन डेवलपमेंट जैसी बैलगाड़ी की गति से चलने वाली निर्माण परियोजनाओं का उदाहरण देते हैं।

सेमी हाई स्पीड ट्रेनों की आवश्यकता

इसके अलावा, वर्तमान में चल रही राजधानी, शताब्दी और दूरंतो ट्रेनों के रेक्स की पूरी संख्या भी अगर जोड़ी जाए, तो यह 100 रेक से भी कम होगी। तब 532 नए रेक की अचानक आवश्यकता कहां से आ पड़ी! और इतने सारे रेक दौड़ेंगे कहां! चलाए कहां जाएंगे!

क्या इसके लिए कोई कार्यशाला आयोजित की गई! कोई ऑपरेटिंग अथवा मार्केटिंग सर्वे कराया गया! क्या रेलमंत्री ने अथवा ट्रैफिक विभाग ने ऐसी कोई आवश्यकता व्यक्त की है! क्या रेलवे बोर्ड अर्थात मेंबर ऑपरेशन एंड बिजनेस डेवलपमेंट (एमओबीडी) ने फाइल पर ऐसी कोई लिखित टिप्पणी दर्ज की है कि इन 532 सेमी हाई स्पीड ट्रेनों की आवश्यकता है!

मेंटेनेंस शेड्स का निर्धारण

इसके साथ ही तीन साल में इन 532 ट्रेन सेट्स को बनाने का जो दावा किया जा रहा है, क्या इनके लिए मेंटेनेंस के शेड या डिपो के स्थानों का निर्धारण कर लिया गया है, क्योंकि इन नए शेडों के बनने अथवा पुराने कारशेडों को अपग्रेड करने में कम से कम 4-5 साल से ज्यादा का समय लगेगा और इसमें न्यूनतम 5-6 हजार करोड़ रुपये का खर्च भी होगा, जिसका बजट में कोई प्रावधान नहीं किया गया है।

अब अगर प्राइवेट सेक्टर अपनी ट्रेनों का मेंटेनेंस स्वयं करेगा, तो भी उसे रेलवे के वर्तमान कारशेडों में से कुछ कारशेड हस्तांतरित करने पड़ेंगे। यह हस्तांतरण किन टर्म्स एंड कंडीशंस पर होगा, इसकी कोई व्यवस्थित या अव्यवस्थित योजना अब तक सामने नहीं आई है।

रेलवे के वर्तमान कारशेड्स/वर्कशाप्स में जो काम अभी हो रहा है, और जो रेलकर्मी अभी वहां काम कर रहे हैं, उन्हें कहां ले जाया जाएगा, इसकी भी कोई कार्य योजना अब तक सामने नहीं आई है, या तैयार नहीं की गई है। डब्ल्यूपीओ की बात आगे की जाएगी।

कैबिनेट अप्रूवल की आवश्यकता!

जानकारों के अनुसार, ₹60-65 हजार करोड़ के इतने बड़े खर्च/निवेश और प्राइवेट सेक्टर से खरीद के इतने बड़े निर्णय के लिए कैबिनेट का अप्रूवल लिया गया है, या नहीं, यह स्पष्ट नहीं है। इसके लिए नीति आयोग का भी अनुमोदन प्राप्त किया जाना चाहिए, परंतु यह भी स्पष्ट नहीं है। जबकि इनसे बहुत छोटी-छोटी परियोजनाओं का अनुमोदन लिया जाता है।

उनका कहना है कि रेलवे के रोलिंग स्टॉक के उत्पादन में यह एक बहुत बड़ा नीतिगत फेरबदल महसूस किया जा रहा है। इसीलिए इसके लिए कैबिनेट का अप्रूवल आवश्यक हो जाता है। इसके अलावा, वित्त मंत्रालय, उद्योग मंत्रालय और कानून मंत्रालय का भी इन सब विषयों पर समन्वय आवश्यक है।

अब अंतिम बात यह कि मनमोहन सिंह की सरकार में प्रफुल्ल पटेल ने एयर इंडिया के लिए ₹44 हजार करोड़ के हवाई जहाज खरीदे थे, उस भारी-भरकम बोझ से एयर इंडिया कभी उबर नहीं पाई और भारी नुकसान सहते हुए आखिर में बिक गई। अब देखना यह है कि रेलवे में ये जो ₹65 हजार करोड़ से ज्यादा का खर्च करने की कोशिश की जा रही है, इस आर्थिक बोझ को भारतीय रेल कैसे सहन करेगी!

बहरहाल, देश के लिए ही सभी नागरिक, सरकारी और निजी क्षेत्र सब काम कर रहे हैं। परंतु रेल को, देश को आर्थिक क्षति पहुंचाने वाली नीतियों में अनावश्यक संशोधन करके किसी उद्योग समूह विशेष को लाभ पहुंचाना सही नहीं है, क्योंकि सरकार जनकल्याण के लिए काम करती है, जबकि उद्योग समूह स्व-कल्याण के लिए काम करता है। राजनीतिक-निजी स्वार्थों और कामचोरी, घूसखोरी के चलते वैसे ही सार्वजनिक क्षेत्र का बंटाधार हो चुका है, ऐसे में रोजगार सृजन के लिए निजी क्षेत्र को निश्चित रूप से बढ़ावा मिलना चाहिए, यह सही है, क्योंकि वहां काम करने वाले, रोजगार पाने वाले लोग भी देश के ही नागरिक हैं। परंतु सरकार द्वारा इस दिशा में स्पष्ट नीति अपनाए जाने की आवश्यकता है। क्रमशः

प्रस्तुति: सुरेश त्रिपाठी

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