जब-जब रेल की कमान तंगदिल और क्षुद्र सोच वाले लोगों के हाथ में गई, तब-तब इसकी स्थिति खराब हुई!
हद हो गई है अनिर्णय की? नए रेलमंत्री की छवि बिगाड़ने का पूरा खेल खेल रहे हैं चंद दिनों के मेहमान सीईओ साहेब! रेलमंत्री अश्विनी वैष्णव को बहुत सी चीजों पर अपनी पैनी निगाह रखनी होगी और पैदा होने की तारीख (डेट ऑफ बर्थ) वाली योग्यता और वास्तविक योग्यता वाले लोगों में फर्क करना होगा तथा इन दोनों की कार्यशैली समझनी होगी, वरना जन्मतिथि की एकमात्र योग्यता रखने वाले रेलवे के निर्णायक पदों पर बैठे ऐसे ही “जाख” अधिकारी उनको फेल भी करेंगे और बदनाम भी!
रेलवे को दयनीय माली हालत से उबारने के लिए एकमात्र उपाय यानि अर्निंग बढ़ाओ, लोडिंग बढ़ाओ, आदि पर आजकल रेल का जोर है। रेलवे में अभी “हंग्री फॉर कार्गो” अभियान चल रहा है। लेकिन सीईओ साहेब मंत्री के नाम पर खेल खेलकर अर्निंग और लोडिंग करने वाले एकमात्र विभाग (ट्रैफिक) के पीएचओडी (पीसीओएम/पीसीसीएम) की पोस्टिंग नहीं होने दे रहे हैं। उत्तर रेलवे में मंत्रीजी की नाक के नीचे ही इनके अनिर्णय के कारण पीसीसीएम की पोस्टिंग नहीं हो पा रही है।
तो फिर यह काहे का अभियान चल रहा है “हंग्री फॉर कार्गो”, जब रेल में सबसे ज्यादा पार्सल लोडिंग करने वाले और सबसे महत्वपूर्ण जोन में इस काम के मुख्य कर्ता-धर्ता (पीसीसीएम) की पोस्टिंग की ये स्थिति है?
#रेलवे को दयनीय माली हालत से उबारने के लिए #अर्निंग_बढ़ाओ_लोडिंग_बढ़ाओ पर पूरा जोर है।
— RAILWHISPERS (@Railwhispers) September 26, 2021
रेल में #Hungry_For_Cargo अभियान चल रहा है,पर अनिर्णय के शिकार @IR_CRB की अकर्मण्यता के चलते योग्य अधिकारियों की पोस्टिंग ही नहीं हो पा रही है!
अविलंब उचित कदम उठाएं रेलमंत्री!@AshwiniVaishnaw pic.twitter.com/NIKH3OUJIO
15 साल वाली ट्रांसफर पालिसी की आड़
चर्चा यह है कि चेयरमैन/सीईओ रेलवे बोर्ड का यह कहना है कि मंत्री जी के आदेशानुसार जो लोग 15 साल से ऊपर एक जगह यानि दिल्ली में रह रहे हैं, उनकी पोस्टिंग नहीं करनी है।
उल्लेखनीय है कि पीसीओएम/उ.रे. की पोस्टिंग तो मेंबर/ओबीडी ने किसी तरह करा ली, लेकिन सीईओ की अकर्मण्य हठधर्मिता के कारण पीसीसीएम/उ.रे. जैसे महत्वपूर्ण पद पर अभी तक किसी योग्य अधिकारी की पदस्थापना नहीं हो पाई है।
नियम और औचित्य का सवाल
15 साल के इस तथाकथित घोषित/अघोषित नियम के ऊपर रेलवे बोर्ड और अन्य जोनों के लगभग सभी विभागों के वरिष्ठ अधिकारियों का कहना है कि “पहले जब बंगला प्यून की व्यवस्था थी, तो उस समय किसी को भी कहीं भी भेजना उचित और औचित्यपूर्ण था। लेकिन उस समय तो रेलवे ने इस नियम को सख्ती से लागू किया ही नहीं, क्योंकि सीआरबी से लेकर जितने भी बड़े अधिकारी थे, सबकी कहानी एक जैसी ही थी।
उनका कहना है कि वे खुद एक जगह तभी छोड़े, जब डीआरएम, जीएम या मेंबर बने, या फिर उनके लायक वहां कोई पोस्ट ही नहीं थी, और जैसे ही कार्यकाल पूरा हुआ, वापस उसी जगह आ विराजे। तब सीआरबी महोदय किस नियम और नैतिकता की बात कर रहे हैं?”
लेकिन अब तो जब बंगला प्यून की बहाली की मूल व्यवस्था ही खत्म कर दी गई है, तो कोई भी अधिकारी, जहां पर है, वह जगह वह कतई नहीं छोड़ना चाहेगा।
दूसरे जोन से कोई एसएजी या एचएजी अफसर अधेड़ावस्था या जब वह सीनियर सिटिजन की श्रेणी में आने वाला है, क्या खुद चूल्हा-चक्की करने जाएगा?
रेलवे में जहां पर है, वहां से उसका बंगला प्यून आखिर क्यों उसके साथ जाएगा? जब उसे पता है कि अब पहले जैसी स्थिति नहीं रही!
और फिर जहां नई जगह वे ज्वाइन करेंगे, वहां कौन बेवकूफ बंगला प्यून का पुराना कैडर चेंज के बाद उनके साथ या किसी के भी साथ बंगला प्यून में काम करने की सहमति देगा?
ऐसा व्यवहारिक तौर पर किसी भी विभाग के पीएचओडी के साथ संभव नहीं है। शायद इसमें कार्मिक के पीएचओडी को कोई सहूलियत हो जाए – कारण सभी जानते हैं – वरना बाकी किसी विभाग के पीएचओडी के पास स्वयं खाना बनाने, बर्तन मांजने और झाड़ू-पोछा करने के सिवाय अन्य कोई भी वैध या व्यवहारिक विकल्प नहीं बचा है!
मूलभूत सुविधा के अभाव में कोई नहीं जाना चाहेगा
अभी तो यह केवल पीएचओडीज की बात है। अब बंगला प्यून की मूल सुविधा और व्यवस्था खत्म होने से जूनियर अधिकारियों के लिए भी यही दिक्कत रहेगी। खासकर बड़े शहरों में! वह भी अब अन्यत्र जाने को जल्दी और आसानी से तैयार नहीं होंगे।
अधिकारियों का कहना है कि आने वाले समय में अधिकारी की अगर खुद जरूरत नहीं है, तो उसे एक जगह पर लंबे समय तक रहने के आधार पर हटाने पर पीड़ित अधिकारी प्रोटेस्ट करेगा, पैरवी करेगा या फिर कोर्ट कचहरी करेगा। केवल कोई विकल्प नहीं बचने पर ही वह ट्रांसफर आदेश का पालन करेगा, और फिर बेमन से काम करेगा, और अपने तरीके से सिस्टम से अपनी खीझ निकलेगा।
सुविधा बहाल की जाए, फिर जहां चाहे वहां भेजा जाए
कायदे से सीआरबी, बोर्ड मेंबर्स और एफआरओए को इस व्यवहारिक समस्या से रेलमंत्री को अवगत कराना चाहिए था, उन्हें मूलभूत जमीनी हकीकत से रू-ब-रू करवाना चाहिए था, और रेलमंत्री भी व्यवहारिक कदम उठाकर दरियादिली दिखाते हुए बंगला प्यून की पूर्व बहाली प्रक्रिया को बहाल करें, और फिर चुन-चुनकर, बिना किसी अपवाद के, प्रत्येक अधिकारी पर 10/15 साल वाली पालिसी लागू करें, तभी व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन दिखाई दे सकता है।
जानकारों का कहना है कि ऐसा होगा, तभी अधिकारियों की मनमानी और भ्रष्टाचार पर लगाम लग सकती है और उनका लोकल कार्टेल छिन्न-भिन्न हो सकता है। इसके बिना सब कुछ एडहॉक पर पूर्ववत चलता रहेगा। यह तय है और मंत्रीजी की सारी मेहनत व्यर्थ जाएगी।
प्रशासनिक अक्षमता और अदूरदर्शिता का परिचायक
वहीं विभागीय अधिकारियों का यह कहना है कि समाधान निकालने का काम ही सीईओ, बोर्ड मेंबर्स और मंत्रीजी का है, लेकिन अनिर्णय की स्थिति उत्पन्न करना उनकी प्रशासनिक अक्षमता और अदूरदर्शिता का ही परिचायक है।
उनका कहना है कि जब तक ऐसी स्थिति है, तब तक जो सबसे सही और कर्मठ नाम हैं, उन्हीं में से पोस्टिंग की जानी चाहिए, जैसा कि पीसीओएम/उ.रे. की पोस्टिंग के समय किया गया है।
पीसीसीएम/उ.रे. में भी जो दो सबसे सही और कर्मठ नाम सबसे ऊपर हैं, वह हैं मुकुल माथुर और अमित वर्धन के, यह दोनों अधिकारी अपनी योग्यता के कारण यह पद डिजर्व भी करते हैं। ये दोनों पार्टी पॉलिटिक्स से दूर रहकर रेल के हित में काम करने वाले अधिकारी बताए जाते हैं।
अनिर्णय और प्रशासनिक अक्षमता का दुष्प्रभाव
सर्वप्रथम तो बंगला प्यून की मूल व्यवस्था खत्म होने के बाद कोई स्वेच्छा से दिल्ली आना नहीं चाहेगा। इस स्थिति में अब इस 15 साल के बहाने किसी योग्य अधिकारी को मौका न देना, न केवल उसके साथ ज्यादती होगी, बल्कि इस अनिर्णय और प्रशासनिक अक्षमता का दुष्प्रभाव पूरे उत्तर रेलवे जोन की कार्य-प्रणाली और परिणाम पर भी पड़ेगा।
परम्परागत रूप से पीएचओडीज की पोस्टिंग्स में संबंधित मेंबर द्वारा स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने की स्वतंत्रता रही है और रहनी भी चाहिए, कुछेक अपवादों को छोड़कर! शायद इसीलिए रेलवे बोर्ड के गलियारों में कुछ लोगों में यह भी चर्चा है कि सीईओ इस बहाने मंत्री को भरमाते हुए कायदे की पोस्टिंग न कर किसी को अपनी पसंद से थोपना चाहते हैं, जिसके माध्यम से दूसरे विभागों की भावी पोस्टिंग्स पर उनकी महत्ता साबित हो जाए और लोग तुष्टि परिक्रमा शुरू कर दें!
रेलमंत्री को हकीकत समझनी होगी…
पश्चिम रेलवे में बतौर जीएम और बाद में बोर्ड मेंबर रह चुके एक रिटायर्ड वरिष्ठ अधिकारी का कहना है कि “मंत्री जी को यह समझना होगा कि इस चेयरमैन/सीईओ का कुछ भी स्टेक पर नहीं है, जो है वह मंत्री जी का है, इसलिए नीचे तक किस चीज से क्या संदेश जा रहा है, यह मंत्री जी को ही देखना और समझना होगा। उन्हें यह भी ठीक से दिमाग में बैठा लेना होगा कि केवल “उम्र वाली योग्यता” के बूते ऊंचे, महत्वपूर्ण और निर्णायक पदों (जीएम, मेंबर, सीईओ) पर पहुंचने वाले लोग न पहले काम किए हैं, और न अब करेंगे। हालांकि यह अलग बात है कि इसमें भी कुछ अपवाद रहे हैं, लेकिन हकीकत यही है।”
उनका यह भी कहना था कि “मंत्री जी को यह भी समझना होगा कि उनके बैकबोन फील्ड में काम कर रहे अधिकारी और अधिकांश समय फील्ड में काम कर चुके अधिकारी ही होंगे, वही रिजल्ट देंगे और वही उनके लिए असली असेट्स साबित होंगे। अतः उन्हें सीईओ और मेंबर्स की कुटिलताओं तथा राजनीति को समझना चाहिए, क्योंकि वह स्वयं एक ब्यूरोक्रेट रह चुके हैं, तनिक सा ध्यान देने पर यह सब उनकी समझ में बहुत अच्छी तरह आ जाएगा, वरना यह रेल की ब्यूरोक्रेसी है, जो घाघ से घाघ मंत्रियों को फेल कर चुकी है।”
उन्होंने कहा कि बोर्ड का भी स्तर काफी खराब इसलिए हुआ कि ईडी और डायरेक्टर जैसे सबसे महत्वपूर्ण पदों पर उन लोगों की ही भरमार है, जिनके पास फील्ड में काम करने का पर्याप्त अनुभव नहीं है और सब “दिल्ली कैडर” वाले ही हैं। इसलिए वर्तमान मंत्री का काम और कठिन है।
अगर रेल को सही दिशा में ले जाना है तो…
उनका मानना है कि निश्चित रूप से बोर्ड में फील्ड का पर्याप्त अनुभव रखने वाले (बेस्ट एक्सपीरियंस्ड) और बेस्ट यंग ब्रेन कैसे आएं, इस पर मंत्री जी को गंभीरतापूर्वक विचार करना होगा। अगर वह वास्तव में रेल को सही दिशा में ले जाना है, तो उन्हें बोर्ड में बैठे लोगों के कार्य-व्यवहार का गहराई से अध्ययन करना होगा!
उन्होंने याद दिलाया कि लालू जी से पहले कोई ब्राइट अफसर डिप्टी डायरेक्टर/जॉइंट डायरेक्टर और डायरेक्टर के पद पर बोर्ड में आना ही नहीं चाहता था, लेकिन लालू जी ने पहली बार बोर्ड में भी जेएजी अफसर तक को बंगला प्यून और गाड़ी तक का एन्टाइटलमेंट दे दिया था, जिसका परिणाम यह हुआ कि युवा तथा ऊर्जावान अच्छे अधिकारी कुछ व्यक्तिगत मजबूरियों के बावजूद भी खुशी-खुशी रेलवे बोर्ड में आने लगे और तब रेलवे ने कामयाबी का कीर्तिमान स्थापित किया था।
रेलवे का यह इतिहास रहा है कि जब-जब इसकी कमान तंगदिल और क्षुद्र सोच वाले लोगों के हाथ में गई है, इसकी स्थिति खराब हुई है, और जब-जब दरियादिल और ऊंची सोच के लोग इसके मंत्री बने हैं, भारतीय रेल ने अपनी उपलब्धियों से पूरे देश को ही नहीं, पूरी दुनिया को चौकाया है। पहली बार मंत्री बने, वह भी कैबिनेट स्तर के रेलमंत्री अश्विनी वैष्णव भी चहुंमुखी प्रतिभा के धनी हैं, वह विशाल हृदय वाले भी हैं। उन्हें व्यवस्था की लगभग सभी शाखाओं का पर्याप्त अनुभव भी है। अब भारतीय रेल के पुनरुद्धार का भार उनके कंधों पर है। अतः देश को उनसे कड़े फैसले लेने की अपेक्षा है।
प्रस्तुति: सुरेश त्रिपाठी
साढ़े 7 साल में 4 रेलमंत्री/4 रेलराज्यमंत्री हो गए परंतु केवल उखाड़-पछाड़ के सिवा रेल में उपयोगी विकास नहीं हुआ!
— RAILWHISPERS (@Railwhispers) September 25, 2021
अगर 168 साल से व्यवस्थित चल रहे ढ़ांचे में कुछ सुधार जरूरी है तो ढ़ांचे की मरम्मत हो, उसकी नींव न हिलाई जाए!
क्या इतनी योग्यता है वर्तमान प्रशासन में?@RailMinIndia pic.twitter.com/4jsslhFjgo
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