अभूतपूर्व संकट में राष्ट्रीय आम सहमति और साझा मंच की जरूरत, विप्लव का इंतजार न किया जाए!
देश में जो हालात बन रहे हैं और मुंबई, सूरत, दिल्ली, लुधियाना जैसे बड़े शहरों से कामगार डर के मारे भाग कर गांव आ रहे हैं, आश्चर्य नहीं होगा कि अगले कुछ समय में कोरोना का प्रसार ग्रामीण क्षेत्रों तक हो जाए
राम दत्त त्रिपाठी
कोरोना वायरस की महामारी के इस संकट के चलते पिछले तीन महीनों के दौरान भारत में अच्छी-बुरी बहुत सी बातें उजागर हुई हैं, लेकिन सबसे हैरानी वाली बात मुझे यह लगती है कि हमारे सिस्टम में देश के आम आदमी के रहन-सहन, उसकी समस्याओं और जरूरतों की न तो समझ है और न ही समझने की इच्छा है। इच्छा के लिए दिल में संवेदना चाहिए, जिसका अभाव स्पष्ट दिखता है। दूसरे, न राजनीतिक दलों में और न ही सरकार में जवाबदेही, पारदर्शिता और जिम्मेदारी का कोई सिस्टम कारगर रह गया है।
सिस्टम से मेरा अभिप्राय समूचे स्टेट के सिस्टम से है, जिसमें विधायिका, कार्यपालिका, अफसरशाही और अदालत सब शामिल हैं। सिस्टम या व्यवस्था में पक्ष- विपक्ष सभी शामिल हैं। सबसे बड़ी वजह यह कि ये सब अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में आम आदमी और समाज से दूर रहते हैं। वह अभेद्य सुरक्षा के घेरे में रहते हैं और कोई नागरिक उनसे बराबरी से आँख मिलाकर बात नहीं कर सकता। वे न पैदल चलते हैं, न साइकिल से और न पब्लिक ट्रांसपोर्ट से, न ही किसी पार्क में टहलते मिलते हैं।
आज ट्विटर पर वायरल हो रहा यह ट्वीट देखिए जिसमें एक नागरिक लंदन के पार्क में प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन को अपने मन की व्यथा सुना रहा है और वह डर नहीं महसूस करता। यहां जन मन की बात सुनने की इच्छा हाई नहीं है। आप यहां शायद ग्राम प्रधान से भी इस तरह बहस नहीं कर सकते। समाज यह अपेक्षा भी नहीं करता।
it’s a privilege to live in a country where you can do this to the premier with zero repercussions, don’t ever take it for granted pic.twitter.com/B38ouSE9uB
— Jim Pickard (@PickardJE) May 10, 2020
व्यवस्था को इस बात का एहसास ही नहीं था कि कितने करोड़ लोग अपने घर गांव से पांच से लेकर दो हजार किलोमीटर दूर रोजी-रोटी कमाने जाते हैं। और वे किन परिस्थितियों में काम करते हैं। इनमें से ज्यादातर के पास न नियुक्ति पत्र होता है, न कोई जॉब सिक्योरिटी। बहुत से लोग अपना खुद का छोटा-मोटा कारोबार कर लेते हैं। या फिर स्ट्रीट वेंडर वगैरह बनकर अपनी रोजी-रोटी कमाते हैं। किराया देने की क्षमता न होने से एक झुग्गी या खोली में कई लोग साझा रहते और सोते हैं। पानी के लिए हैंड पम्प पर लाइन लगाते हैं और शौच जाने के लिए भी अपनी बारी का इंतजार करना पड़ता है।
ये लोग जो आठ दस या पंद्रह बीस हजार कमाते हैं, उसका एक हिस्सा गांव में अपने मां-बाप या पत्नी-बच्चों को गुजर-बसर के लिए भेज देते हैं। कोरोना लॉकडाउन में जल्दी ही पैसा खतम हो गया। भूखे मरने के अलावा इस बात का भी डर कि वे वहां के माहौल में शारीरिक दूरी नहीं बना सकते और इसलिए वहां बीमारी का शिकार होने का खतरा अपने गांव-घर से कहीं ज्यादा है। ऐसे में जान है तो जहान का मतलब उनके लिए हर हाल में अपने घर पहुंचना है।
उन्होंने हफ्तों भरोसा किया कि सरकार रेल-बस चलाएगी और वे घर जा सकेंगे। मेरे फोन पर हर रोज देश भर से लोगों के फोन आते हैं। वे कहते हैं कि खाने को कुछ नहीं है। वे सिर्फ यह जानना चाहते हैं कि रेल-बस कब खुलेंगी। इन लोगों के लिए ऑनलाइन पंजीकरण की जो व्यवस्था की गई उसमें स्मार्ट फोन, डेटा और अंग्रेजी का ज्ञान आवश्यक है। ऐसी अपेक्षा करना भी गलत है। यही सिस्टम की नासमझी भी दर्शाता है।
पार्टी मेंबर बनाने के लिए एक मिस कॉल पर्याप्त होती है और संकट में फंसे लोगों के लिए स्मार्ट फोन पर अंग्रेजी का फार्म! मकसद समझ नहीं आता, सिवा इसके कि सबका लेखा-जोखा रखकर बाद में चुनाव के समय एहसान भुनाया जाए।
प्रवासी मजदूरों के अलावा लाखों ऐसे लोग हैं जो इलाज के लिए दिल्ली, मुंबई गए थे, या बारात लेकर गए थे और वे सब फंसे हैं। उन्हें अपनी गाड़ियों से वापस आने देने में क्या परेशानी थी? वे दूसरे शहर में कहां रहें, क्या खाएं? इनको अपनी गाड़ी से वापस क्यों नहीं आने दिया जा सकता था?
महीने भर में लोगों का धैर्य जवाब दे जाना समझा जा सकता है। अब वे सड़क मार्ग से जाने लगे तो बजाय रास्ते में उनके लिए दाना-पानी का इंतजाम करने के पुलिस डंडे मारने लगी। तब वे पथरीली रेल पटरियों पर चलने लगे और औरंगाबाद में पलक झपकने पर कुचल गए। गरीबी की निशानी के तौर पर सूखी रोटियां पटरियों पर बिखरी मिलीं। शायद ही कोई होगा जिसकी आत्मा को इस हादसे से तकलीफ न पहुंची हो।
अब तो हमें यह स्वीकार कर लेना चाहिए की देश में कम से कम पचास फीसदी गरीब हैं। लेकिन योजनाएं बनाने वालों की प्राथमिकताएं कुछ और हैं। योजनाएं बनाने वालों के लिए बड़ी–बड़ी मूर्तियां और दिल्ली में नए संसद भवन पर बीस-पचीस हजार करोड़ का बजट आवंटित करने पर ग्लानि नहीं होती।
सिस्टम को यह तो पता होना चाहिए था कि महामारी अथवा पब्लिक हेल्थ की समस्या में सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली ही काम आएगी। मगर निहित स्वार्थ के लिए वहां केवल बिल्डिंग बनाने और गैर जरूरी मशीनें खरीदने पर बजट खर्च किया गया। उदाहरण के लिए हर जिला अस्पताल में दो डायलिसिस मशीनें भेजी जा रही हैं, पर डाक्टर, नर्स और टेक्नीशियन नदारत हैं।
खरीद की केंद्रीकृत व्यवस्था का ही परिणाम था कि लखनऊ किंग जार्ज मेडिकल कालेज और पीजीआई अस्पताल में पीपीई तो दूर, मास्क तक नहीं थे, और यह बात एक नर्स को चिल्लाकर कहनी पड़ी। इसी व्यवस्था में महंगे दाम पर खराब या अनुपयोगी टेस्ट किट खरीदी गयीं।
यहां मैं उन तमाम बातों की चर्चा नहीं करूँगा कि जब वियतनाम, ताइवान और सिंगापुर जैसे देश कोरोना को कंट्रोल करने में सारा जोर लगाए थे, हमारे यहां अमेरिकी राष्ट्रपति को अहमदाबाद और आगरा घुमाने की क्या जरूरत थी? उनके साथ जो तमाम लोग आए थे, उनमें भी बहुतेरे संक्रमण का शिकार रहे होंगे। अगर जनवरी अंत में चीन से सूचना आने के बाद विदेशों से आए हवाई यात्रियों को एयरपोर्ट पर ही रोककर पंद्रह दिन का एकांतवास करा दिया जाता, तो क्या वायरस फैलने से रोकने में मदद नहीं मिलती!
कोरोना के चलते बाकी रोगी इलाज के लिए मारे-मारे घूम रहे हैं। सरकारी अस्पताल वाले भी उन्हें नहीं देखते। प्राइवेट अस्पताल तो बंद ही हैं।
जो नहीं हुआ उसे छोड़िए, जो हो रहा है उस पर गौर कीजिए। जब थूकने से कोरोना वायरस फैलता है, तो पान मसाला की बिक्री खोलने का निर्णय क्या जनता के हित में है? जब सड़क पर अकेले चलने वाले को डंडे पड़ते हैं, तो शराब की दुकानों पर लंबी लाइनें क्यों लगवायी जा रही हैं? क्या यह सब केवल सरकार का राजस्व बढ़ाने के लिए हुआ या किसी का दबाव भी है?
श्रम कानून लागू करने की मशीनरी पहले से लुंज-पुंज थी, तो फिर श्रम कानूनों को निलंबित करने की क्या आवश्यकता थी? किन डॉक्टरों की सलाह पर काम के घंटे आठ से बढ़ाकर बारह किए गए? यह दर्शाता है कि निर्णय लेने के पीछे किस वर्ग विशेष का हित साधा जा रहा है। शायद अभी यह समझ नहीं है कि उद्योग-व्यापार चलाने और बढ़ाने के लिए पूंजी से कम महत्व श्रम और तकनीकी विकसित करने वाले का नहीं है।
न्यायपालिका, जिस पर लोगों के जीवन रक्षण और मौलिक अधिकारों के संरक्षण की जिम्मेदारी है, वह भी सक्रिय भूमिका नहीं निभा रही या मुंह फेर ले रही है। इससे आने वाले कुछ महीनों में चुनौतियां और भी ज्यादा गंभीर होने वाली हैं।
सर्वोच्च प्राथमिकताएं
- कोरोना महामारी के देशव्यापी फैलाव की रोकथाम और इलाज। विशेषकर तहसील और जिला स्तर पर। बड़े पैमाने पर डाक्टरों, नर्सों, तकनीशियनों की भर्ती।
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बड़े पैमाने पर बेरोजगारी रोकने के लिए खेती, बागवानी, पशुपालन और कुटीर एवं लघु उद्योगों का जाल बिछाना।
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शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन। लोगों को उत्पादन और तरह–तरह के हुनर सिखाना।
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आधुनिक चिकित्सा, आयुर्वेद, विज्ञान, सस्ते और प्राकृतिक सामग्री से भवन निर्माण, परिवहन, सिंचाई, पेयजल और तकनीकी के हर क्षेत्र में शोध को बढ़ावा।
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राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र और सेवा भाव वालों को महत्व।
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प्रशासनिक विकेंद्रीकरण।
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पर्यावरण सुधार और जल संरक्षण के लिए बड़े पैमाने पर वनीकरण, तालाबों-झीलों का निर्माण, पुनर्निर्माण।
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कोयले और पेट्रोल का कम खर्च। सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा को बढ़ावा।
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सुरक्षा, अपराध नियंत्रण, दंड और न्याय व्यवस्था को मजबूत करना तथा इनका भी विकेंद्रीकरण।
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राजस्व संग्रह के नए उपाय, जिसमें धनिक वर्ग से प्राथमिकता से।
देश में जो हालात बन रहे हैं और मुंबई, सूरत, दिल्ली, लुधियाना जैसे बड़े शहरों से कामगार डर के मारे भाग कर गांव आ रहे हैं, आश्चर्य नहीं होगा अगर अगले एक महीने में कोरोना बीमारी का प्रसार ग्रामीण क्षेत्रों में हो जाए। इसलिए अभी सारा जोर निचले स्तर तक सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएं मजबूत करने पर होना चाहिए।
शहर और देहात में जो करोड़ों लोग बेरोजगार हो रहे हैं, जिनके काम-धंधे बंद हो गए हैं, उनके लिए रोजगार पैदा करना सबसे बड़ी चुनौती है।
उद्योग कारखाने, बड़े व्यापार छोड़िए, केवल शादियों से लगभग पचास हजार करोड़ का कारोबार होता है जिसमें कैटरिंग, तम्बू, कनात, कपड़े, जेवर और बैंडबाजा आदि में लाखों लोग जीविका पाते हैं। यह सब ठप्प है। बाजार बंद होने से तमाम वस्तुओं की खपत नहीं हो रही है, जैसे लखनऊ में चिकन के कपड़े, साड़ियां, जूते, प्रसाधन सामग्री आदि आदि बहुत कुछ। चलने वाले संगठित उद्योग और सरकार में भी वेतन भत्तों में कटौती तय है। इस तरह बेरोजगारी और आर्थिक मंदी अब एक बड़ी चुनौती बनकर आने वाली है, जिसका सिलसिला नोट बंदी से शुरू हुआ था।
वकील, डाक्टर, आर्किटेक्ट और न जाने कितने प्रोफेशनल हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। रेस्टोरेंट, होटल, पर्यटन, सिनेमा, मनोरंजन, जिम, ब्यूटी पार्लर, हेयर कटिंग सैलून जाने कितने क्षेत्र अभी लंबी अवधि के लिए प्रभावित रहेंगे।
आर्थिक मंदी से मध्य वर्ग को भी बड़ा झटका लगा है। शहरों में जिन लोगों ने अपनी जमा पूंजी से किराए पर चलाने के लिए घर बनवाए, उनकी आमदनी के जरिए होंगे। जो लोग पीएफ ग्रेचुटी की एफडी से ब्याज पर खर्च चलाते हैं, उनका क्या होगा? या जिनकी पूंजी शेयर बाजार में लगी है, वे कब तक इंतजार करेंगे?
सदी की इस महामारी ने सदी की सबसे बड़ी आर्थिक मंदी की दस्तक दे दी है जिससे कोई अछूता नहीं रहेगा। न छोटा, न बड़ा, न गरीब, न अमीर।
जब आर्थिक हालात खराब होंगे, अपराध बढ़ सकते हैं। इस परिस्थिति में सामाजिक असंतोष बढ़ना भी तय है। इसलिए अपराध नियंत्रण, कानून-व्यवस्था और लोक व्यवस्था के लिए भी आने वाले दिन कठिन होंगे।
विकेंद्रीकरण समय की जरूरत
मेरा मानना है कि विकास और उत्पादन का पूंजी और मशीन प्रधान केंद्रीकृत मॉडल फ्लॉप हो चुका है। शहरीकरण से अन्य अनेक समस्याएं पैदा हुई हैं और मनुष्य की मनुष्य या पड़ोसी के प्रति हमदर्दी की भावना क्षीण हो गई है। कोरोना ने तो और भी दूरी बढ़ा दी है।
इस बात को स्वीकार करना चाहिए कि अब हमें उत्पादन, वितरण और प्रशासन तीनों का विकेंद्रीकरण करना होगा तथा रोजमर्रा की जरूरतों के लिए शहर और गांव को स्थानीय स्तर पर आत्म निर्भर बनाना होगा।
बड़े शहरों के बजाय छोटे कस्बों को रोजगार, उद्योग, व्यापार का केंद्र बनाना होगा, जिससे अगल-बगल के गांवों को जोड़ा जा सके। छोटी-छोटी ग्राम सभाओं का पुनर्गठन कर (न्यूनतम पांच हजार की आबादी ) व्यावहारिक ढ़ांचा बनाना होगा। इन ग्राम सभाओं के पास अपना सचिवालय हो, जिसमें प्रशासनिक, वित्तीय और तकनीकी कर्मचारी हों। प्राथमिक शिक्षा, प्राथमिक स्वास्थ्य और स्थानीय रोजगार प्रबंध इनके अधीन हो।
भारत को शिक्षित, अशिक्षित और प्रोफेशनल एजुकेशन वाले यानि सभी लोगों को उनके निवास के आस-पास रोजगार पर ध्यान देना होगा।
गांवों में खेती, बागवानी, पशुपालन, कपड़ा एवं अन्य कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देना होगा। अब कामगार जल्दी शहर जाने की मन-स्थिति में नहीं होगा।
शहरी शिक्षित बेरोजगारों के लिए भी रोजगार का प्रबंध करना होगा। वहां भी विकेंद्रित कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देना होगा। बड़े शहरों में नगर निकायों का भी मोहल्ला स्तर पर विकेंद्रीकरण करना होगा।
नए नजरिए और नए सिरे से राष्ट्र निर्माण का व्यापक कार्यक्रम बनाकर अभियान चलाना होगा।
आज हम दवा, मास्क और छोटी-मोटी हर जरूरत के लिए चीन पर निर्भर हैं। लालफीताशाही और करप्शन के कारण भारत के अधिकांश उद्योगपतियों ने अपने कारखाने या तो चीन, वियतनाम और दूसरी जगहों पर लगा लिए हैं, या चीन से सस्ता माल मंगाकर बेंचते हैं। विदेशी पूंजी के नाम पर फर्जीवाड़े के बजाय सबसे पहले ऐसा माहौल दिया जाए कि वे अपने कारखाने भारत में लगाएं और जो सामान भारत में बन सकता है, उसका आयात विदेश से न कराएं।
राष्ट्रीय सहमति और साझा मंच की जरूरत
लेकिन यह कार्यक्रम कौन बनाएगा? बनाने वालों को क्या जमीनी हकीकत पता है? पता कैसे होगी? सारे राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दल या हाईकमान व्यक्ति केंद्रित हो गए हैं। सबका रहन-सहन जीवन-शैली पांचसितारा हो गई है और जमीन से कटे हैं। बाकी पार्टी पदाधिकारी केवल खानापूरी के लिए हैं। उनसे भी जमीनी हालात कोई नहीं पूछता। विधायकों को तो छोड़िए, महत्वपूर्ण नीतियों, कार्यक्रमों और निर्णयों में मंत्रियों की भी राय नहीं ली जाती। आज हाईकमान की परिक्रमा करने वाले और पैसे वाले हाई टिकट पाते हैं, जिनके लिए समाज सेवा के बजाय अपने निहितस्वार्थ हैं।
बहुत सारी समस्याओं की जड़ हमारी सड़ी हुई राजनीतिक दल प्रणाली और चुनाव में बड़े पैमाने पर खर्च है। नेता मोटा चंदा देने वालों के चंगुल में फंसे हैं।
नौकरशाही प्रायः ठकुरसुहाती या जी-हुजूरी में लगी रहती है। जो असहमति दर्ज करेंगे या अपना दिमाग लगाएंगे, उनके लिए दाएं-बाएं बहुत से पद पहले से सृजित किए गए हैं। इस समय डर कुछ ज्यादा है। खुलकर राय देने में जोखिम है।
वैसे जानकार लोगों का कहना है कि राय ली भी नहीं जाती। बस निर्णय सुनाया जाता है, वह भी कई बार टेलीविज़न पर!
विप्लव का इंतजार न करें !
हमारे देश में केरल से लेकर पंजाब और तमिलनाडु से लेकर राजस्थान तक आज एक-दो नहीं, कई सत्ताधारी दल हैं। सब अपने-अपने को छोटे-मोटे महाराजा या महारानी समझते हैं और वैसा ही व्यवहार करते हैं।
जरूरत है कि आने वाले दिनों के लिए राष्ट्रीय आम सहमति से कार्यक्रम बनें। जब आजादी आई और पंडित नेहरू तथा सरदार पटेल ने अपनी कैबिनेट के लिए कांग्रेस के ग्यारह नेताओं की सूची बनाई, तब महात्मा गांधी ने उसे अस्वीकार कर दिया। कहा, आजादी कांग्रेस को नहीं भारत को मिली है, इसलिए आधे मंत्री गैर कांग्रेसी हैं। तब गांधी-नेहरू के धुर विरोधी डॉ अंबेडकर, श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे लोग रखे गए, जो न केवल विशेषज्ञ बल्कि तपे तपाए लोग थे, जो खुलकर बहस करने के बाद निर्णय लेते थे। राजनीतिक दलों में भी राजनीतिक आर्थिक प्रस्तावों पर खुलकर बहस होती थी। नीचे से ऊपर तक पदाधिकारियों का चुनाव होता था। उनका अपना व्यक्तित्व होता था और वे खुलकर बोल सकते थे। मनोनीत पदाधिकारी और मंत्री तो येस सर ही कहेंगे।
संविधान रक्षा की शपथ लेने वाली नौकरशाही को भी फाइल पर अपनी राय प्रकट करने की आजादी थी। अभी पचीस-तीस साल पहले तक भी यह चल रहा था, क्षत्रपों के उभरने से पहले जो खुद को सर्वज्ञ मानते हैं। अब पहले से बता दिया जाता है कि अमुक प्रस्ताव लाओ या यह टिप्पणी लिखो। यहां तक कि शासन के न्याय और विधि विभाग भी यही करने लगे हैं।
आज देश में कांग्रेस सिस्टम खत्म हो चुका है। अनेक सत्ताधारी दल हैं। अनेक विपक्षी दल हैं। एक पार्टी और एक विचारधारा से संकट की इस घड़ी में देश का नव निर्माण नहीं हो सकता। महत्वपूर्ण निर्णयों में सभी पार्टियों, मुख्यमंत्रियों और विपक्षी दलों के नेताओं की भागीदारी होनी ही चाहिए।
*लेखक लखनऊ में वरिष्ठ पत्रकार हैं।
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