Delivery must take Precedence over procedure! अथ नवीन रेलमपेल कथा!!

कमीशनखोरी और विभागवाद के चक्कर में डूब रही है भारतीय रेल!!

कहां तो तीन साल में 40 रेक बनाने का सपना था, वहां आजतक तीसरा रेक भी न बन सका!

ट्रेन-18 उर्फ वंदेभारत एक्सप्रेस के मामले में दोहराया जा रहा है ताजमहल का इतिहास!

बाजार में एक चीज ₹350 की बिक रही है। आपने वही चीज अपने घर में बना ली, वह भी शुद्ध देशी, स्वदेशी और 10 लोगों को प्रत्यक्ष – अप्रत्यक्ष रोजगार भी दिया। आर एंड डी भी खुद ही किया, विदेशी मुद्रा भी बचाई, मेक इन इंडिया भी हो गया और पैसे लगे सिर्फ ₹97।

मने आपने ₹350 की चीज ₹97 में बना ली, अब आपके साथ क्या होना चाहिए? शाबाशी, वाहवाही, इनाम-इकराम मिलना चाहिए। एकाक ठो पुरस्कार-उरस्कार, कोई पदमसिरी-वदमसिरी टाइप मिलना चैये था, कि नई मिलना चैये था!

आईसीएफ ने सिर्फ 18 महीने के रिकॉर्ड समय में ट्रेन-18 बना डाली, सिर्फ बना ही नहीं डाली, बल्कि शून्य से शुरू करके बनाई, कोई पहले से चला आ रहा पुराना स्थापित प्रोडक्ट नहीं बनाया, बल्कि नई परिकल्पना, नई डिजाइन बनाई, रिसर्च की और फिर पहला पीस बनाया।

जब किसी प्रोडक्ट का पहला पीस बनाया जाता है, तो उसे ‘प्रोटोटाइप’ कहा जाता है। आमतौर पर यह पहला प्रोटोटाइप पीस बहुत महंगा होता है। वह दो गुना, चार गुना, सौ गुना या हजार गुना ज्यादा महंगा भी हो सकता है। फिर भी उसकी सफलता संदिग्ध होती है। फिर जब वह समय की मार खाकर सफल होता है, दुनिया में उसकी स्वीकार्यता और मांग बढ़ती है, तब उसका इंडस्ट्रियल उत्पादन शुरू किया जाता है। जब बड़ी मात्रा में उत्पादन होता है, तब वह काफी सस्ता हो जाता है।

दुनिया के हर उत्पाद के साथ यही होता है।
परंतु आईसीएफ ने इन सभी स्थापित मान्यताओं के विपरीत अपना प्रोटोटाइप ट्रेन-18 सिर्फ 97 करोड़ रुपये में बना डाला, जो पिछले 10 महीनों से सफलतापूर्वक दौड़ रहा है और इसमें अब तक कहीं कोई समस्या नहीं आई।

परंतु रेलवे बोर्ड ने ऐसी महान उपलब्धि पर भी शाबाशी देने की बजाय इसे बनाने वालों पर विजिलेंस की जांच बैठा दी है।

जांच के बिंदु क्या हैं, यह भी देख लें-

  1. ट्रेन में लगे बिजली के कलपुर्जे सप्लाई करने वाली भारतीय कंपनी को लाभ पहुंचाने के लिए बम्बार्डियर या सीमेंस जैसी विदेशी कंपनियों को नजरअंदाज किया गया।

  2. आरडीएसओ के मानकों की अवहेलना की गई और आरडीएसओ की क्लीयरेंस नहीं ली गयी।

इसके जवाब में रेलवे के एक वरिष्ठ अधिकारी और ट्रेन-18 से जुड़े रहे आईसीएफ के पीसीएमई, बोले तो इंटीग्रल कोच फैक्ट्री के तत्कालीन प्रिंसिपल चीफ मैकेनिकल इंजीनियर शुभ्रांशु ने चेयरमैन, रेलवे बोर्ड (सीआरबी) को एक पत्र लिखकर स्पष्ट किया है कि बिजली के कलपुर्जे खरीदने के लिए ओपन टेंडर किया गया था और उसमें एल-1 अर्थात लोयेस्ट-1 यानि सबसे कम पैसे की बोली लगाने वाली भारतीय कंपनी को ठेका दिया गया।

इसके अलावा ठेका देने से पहले बम्बार्डियर और सीमेंस जैसी तमाम कंपनियों को खुद फोन करके आमंत्रित किया कि अगर इससे भी सस्ता देकर ठेका ले सकते हो, तो ले लो! ये मैं आपको सामान्य भाषा में समझा रहा हूँ। वैसे तो इसे तकनीकी भाषा में ‘काउंटर ऑफर’ कहते हैं।

अंततः एल-1 यानी लोयेस्ट-1 यानी सबसे कम पैसे की बोली लगाने वाली भारतीय कंपनी को ठेका मिला, क्योंकि उपरोक्त दोनों बहुराष्ट्रीय कंपनियों को काउंटर ऑफर स्वीकार्य नहीं था।

अब जहां तक बात आरडीएसओ के एक विभाग विशेष द्वारा क्लीयरेंस न लिए जाने की बात है, तो उस पर शुभ्रांशु जी अपने पत्र में सीआरबी से कहते हैं कि ‘अपने सफेद हाथी से कहो कि सुधर जाए, क्योंकि इस सफेद हाथी का सिर्फ एक ही काम रह गया है कि ये सिर्फ ढ़ेर सारी लीद कर सकता है।

शुभ्रांशु जी के शब्दों में आरडीएसओ की स्पेसिफिकेशंस उसकी न बनाई जा सकने वाली सूची (Unmanufacturable Wish Lists) है। अर्थात जमीनी वास्तविकता से परे वह सिर्फ हवाई उड़ान भरने वाली शर्तें हैं।

आरडीएसओ आमतौर पर ऐसी स्पेसिफिकेशंस सिर्फ संबंधित पार्टियों/कंपनियों से पैसा वसूलने के लिए लगाता है और रिश्वतखोरी को बढ़ावा देता है। इसका प्रमाण यह है कि अभी हाल ही में आरडीएसओ के एक वरिष्ठ अधिकारी को घूस लेते हुए सीबीआई ने रंगेहाथों पकड़ा है।

शुभ्रांशु अपने पत्र में लिखते हैं कि आरडीएसओ की एक-एक अप्रूवल लेने में दो-दो, तीन-तीन साल लग जाते हैं। जबकि हमने ट्रेन-18 सिर्फ 18 महीने में रिसर्च करके और डिजाइन बनाकर, डेवलप कर डिलीवर भी कर दी- Delivery must take Precedence over procedure! अतः आरडीएसओ को अपनी कार्य-संस्कृति और अपना रवैया बदलना होगा।

उन्होंने रेलवे बोर्ड से पूछा है कि अल्सटॉम, मधेपुरा, 9000 हॉर्स पावर लोको और 200 किमी प्रतिघंटा की गति वाले इंजनों का क्या हुआ? डीजल से इलेक्ट्रिक में कन्वर्ट होने वाले डीएलडब्ल्यू इंजनों का क्या हुआ? रेलवे बोर्ड अथवा सीआरबी की तरफ से इन प्रश्नों का अब तक कोई समाधान नहीं हुआ है, बल्कि ट्रेन-18 से संबंधित सभी अधिकारियों को विजिलेंस की प्रश्नावली अवश्य थमा दी गई।

शुभ्रांशु ने पत्र में सीआरबी को संबोधित करते हुए कहा है कि ये सभी प्रोजेक्ट अपने समय से बहुत पीछे चल रहे हैं, जबकि ट्रेन-18 अपने समय से बहुत आगे चली गई थी, जिसे आपने विजिलेंस इंक्वायरी बैठाकर उसके पाँवों में बेड़ियां डाल दी हैं। कहां तो तीन साल में 40 रेक बनाने का सपना था, कहां आपकी इस विजिलेंस इंक्वायरी के कारण आज तक तीसरा रेक भी नहीं बन सका!

यह सारी कवायद सिर्फ इसलिए की जा रही है, जिससे कि ट्रेन-18 का इन-हाउस प्रोडक्शन रोक कर इसके रेक बाहर से आयात किए जा सकें। और यह सब विदेशी रेल कंपनियों और भारतीय रेल के कुछ महाभ्रष्ट पूर्व अधिकारियों की लाबिंग के चलते हो रहा है, क्योंकि उन्हें डर इस बात का सता रहा है कि भारत ने यदि इतने सस्ते ट्रेनसेट का बड़े पैमाने पर उत्पादन शुरू कर दिया, तो दुनिया भर में उनका हजारों करोड़ का धंधा चौपट हो जाएगा।

इसमें कमीशनखोरी भी एक बड़ा मुद्दा है, क्योंकि जहां ट्रेन-18 मात्र 100 करोड़ से भी कम लागत में पटरी पर सफलतापूर्वक दौड़ रही है, वहीं आयातित ट्रेनसेट्स की कीमत लगभग 300 करोड़ प्रति ट्रेनसेट आंकी गई है। यह पक्की खबर है कि 38 हजार करोड में 60 ट्रेनसेट रेक आयात करने का प्रस्ताव रेलवे बोर्ड ने तैयार किया है। इस बात के पर्याप्त कागजी सबूत ‘कानाफूसी.कॉम’ के पास सुरक्षित हैं। ऐसे में अंदाज लगाया जा सकता है कि कमीशन का चक्कर कितना बड़ा है?

इसके अलावा इस तथाकथित विजिलेंस इंक्वायरी का मुख्य उद्देश्य दो प्रमुख वरिष्ठ अधिकारियों का अगला प्रमोशन रोकना भी है, जो कि चालू महीने के अंत में और अगले महीने होने वाला था। इसीलिए आनन-फानन में उन दोनों के साथ ही बाकी सात अधिकारियों को भी प्रश्नावली थमाई गई है।

अंग्रेजों ने भारतीय रेल व्यवस्था को कुछ इस तरह चुस्त-दुरुस्त और सटीक बनाया था कि उसमें ज्यादा परिवर्तन संभव नहीं था। ढ़ांचागत परिवर्तन तो बिल्कुल ही आत्मघाती कदम होगा। चूंकि परिस्थितियां बहुत बदल चुकी हैं, अतः देश-काल के अनुसार थोड़ा बहुत व्यवस्थागत बदलाव तो किया जा सकता है है, किंतु भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, कमीशनखोरी, लालच और व्यक्तिगत स्वार्थों के चलते वर्तमान रेल व्यवस्था में सब कुछ उलट-पलट दिया गया है, निश्चित रूप से इसके दूरगामी कुपरिणाम तो होंगे ही!