आरपीएफ कर्मियों का हाल बेहाल, निष्पक्ष होना चाहिए शीर्ष पद पर बैठा अधिकारी
छू रहा था शीर्ष पद नित नई ऊंचाईयां, जाते-जाते आरोपों ने कर दिया छवि का बंटाधार
सुरेश त्रिपाठी
आरपीएफ के शीर्ष पद पर आरोप लगाना कुछ सालों से एक आम बात हो गई है। ये आरोप कोई बाहरी नहीं, इसके अधिकारी ही लगाते रहे हैं। यह आरोप कुछ भी हो सकते हैं, जैसे चाल, चरित्र, भ्रष्टाचार, लॉबिंग, प्रांतवाद, जातिवाद, बिरादरीवाद इत्यादि।
पूर्व में एक महिला अधिकारी द्वारा भी बहुत ही गंभीर आरोप लगाए गए थे। ये भी सच है कि आरपीएफ में केवल एक पद पुलिस का बचा है। अतः यह कोशिश होती रहती है कि इस पद पर भी कब्जा किया जाए। इसलिए इस पद को बदनाम भी किया जाता रहा है। लेकिन आईपीएस अधिकारी जानते हैं कि इन सबको कैसे डील किया जाता है। वह भी “फूट डालो, राज करो” वाली अंग्रेजों की नीति अपनाते हैं।
शीर्ष पद पर बैठे अधिकारी के लिए यह कतई उचित नहीं है कि कुछ को अपना “खास” बनाकर दूसरों को डराते रहो! आरपीएफ में न तो सभी अधिकारी चोर हैं, न ही बेईमान। ये भी एक सत्य है कि कुछ आरपीएफ अधिकारियों की छवि आज भी इमानदारों की है, जबकि कुछ भोग-विलास और बेईमानी में डूबे रहते हैं।
हालांकि वर्तमान डीजी/आरपीएफ द्वारा आरपीएफ की छवि सुधारने के लिए भी कुछ कार्य किए गए हैं। वह भी कमोबेश अपनी साफ-सुथरी छवि के कारण काफी हद तक प्रकाश में रहे, लेकिन ये भी सच है कि कुछ लोग उन पर तानाशाह और प्रांतवादी तथा केवल बिहार, खासकर पटना, दरभंगा इत्यादि के लोगों को उपकृत करने के आरोप लगाते रहे हैं।
इसमें कोई शक नहीं है कि वर्तमान डीजी/आरपीएफ ने आरपीएफ में अपने कार्यकाल के दौरान अपनी खूब मनमानी की। यह भी सही है कि कुछ भ्रष्ट आरपीएफ अधिकारियों को उनका भरपूर प्रश्रय मिला, जबकि सर्वसामान्य आरपीएफ कर्मी उनकी इस उदारता से महरूम रहे।
अब जब अगले महीने 30 जून को वह रिटायर होने जा रहे हैं, तब आरपीएफ जोनल ट्रेनिंग सेंटर (जेडटीसी), खड़गपुर जैसे अत्यंत विवादित मामले में पूरा घालमेल करने का भी आरोप उन पर लगाया जा रहा है। उनके द्वारा गठित जांच कमेटी की रिपोर्ट क्या रही? पीसीएससी/द.पू.रे. उक्त जांच से अछूते कैसे रह गए? उनकी 10 लाख की कार खरीद और उसमें प्रिंसिपल जेडटीसी का कथित कंट्रीब्यूशन, जिसकी चर्चा हर आरपीएफ कर्मी की जबान पर है, जांच के दायरे में क्यों नहीं आया? पीसीएससी/जेडटीसी की पोस्टिंग से पहले दिसंबर 2020 तक जब जेडटीसी पीसीएससी/द.पू.रे. के अधिकार क्षेत्र में था, तब उन्हें भी जांच के घेरे में क्यों नहीं लिया गया?
#RPF_ZTI_KGP के प्रिंसिपल और उसके एजेंट एसआई को #SER/RPF/HQ में अटैच कर दिया गया
— KANAFOOSI.COM (@kanafoosi) April 3, 2021
इन भ्रष्ट गतिविधियों की जांच #PKGupta, Dir/#RPF प्रशिक्षण अकादमी,लखनऊ को सौंपी गई है
देखें इस बार क्या होता है या फिर लीपापोती होती है!
वर्तमान #DGRPF के समय में #रेसुब भ्रष्टाचार के गर्त में डूब गया pic.twitter.com/G924mE1bIl
केवल हफ्ते भर के लिए ही प्रिंसिपल (कमांडेंट) और उसके कथित वसूली इंस्पेक्टर को दक्षिण पूर्व रेलवे मुख्यालय में अटैच करने का औचित्य क्या था? जब कैडेट्स को यह पता हो कि कमांडेंट और उसका कथित दलाल जेडटीसी में फिर वापस आने वाले हैं, तब वह जांच कमेटी के सामने सच कैसे बोलेंगे? फिर से उन दोनों को जेडटीसी में ही क्यों बहाल किया गया? इसका औचित्य क्या है? केवल जेडटीसी के लिए पीसीएससी जैसा नया उच्च पद सृजित करने का औचित्य क्या है? ऐसे कई महत्वपूर्ण प्रश्न अनुत्तरित तो हैं ही, बल्कि शीर्ष पद पर बैठे अधिकारी की गरिमा, ईमानदारी और नीयत पर भी सवाल खड़े करते हैं।
हालांकि शीर्ष पद पर इस तरह के आरोप लगना सामान्य बात समझी जाती है, लेकिन कोशिश यह होनी चाहिए कि शीर्ष पद पर कोई आरोप न लगने पाए। पद की गरिमा को बनाए रखना ज्यादा महत्वपूर्ण है। वह जिन लोगों से घिरे हैं, उनकी ही बातें सत्य हैं, ये सोच सही नहीं है। यदि ऐसा नहीं होता, तो फिरोजपुर कांड, एन एफ रेलवे भ्रष्टाचार कांड, ट्रांसफर-पोस्टिंग में कथित पक्षपात इत्यादि कांडों में यदि निष्पक्ष जांच और कार्रवाई होती, तो शीर्ष पद पर जवानों का भरोसा कायम होता और उसकी निष्पक्षता पर उन्हें गर्व की अनुभूति भी होती।
ट्रांसफर में केवल अपने खास लोगों पर दया-माया दिखाना, अन्य को पूरी बेरहमी से घर से बेघर करना, प्रमोशन देते समय न्याय का ध्यान न रखना, छोटी-छोटी बातों से चिढ़ जाना, जिद करना, भय दिखाना, इत्यादि बड़े या शीर्ष पद पर बैठे अधिकारी को शोभा नहीं देता।
डीजी/आरपीएफ के पद पर आईपीएस अधिकारी का ही रहना भी क्यों जरूरी है? इसके लिए तर्क दिया जाता है कि इससे सभी राज्यों के डीजीपी से तालमेल करने और कानून-व्यवस्था को संभालने में आसानी होती है। हालांकि यह अर्धसत्य है, क्योंकि जो भी उस अथॉरिटी पर रहता है, वह राज्यों के डीजीपी के साथ समन्वय स्थापित करने के लिए सक्षम और अधिकृत होता है। तथापि जो भी आईपीएस – आरपीएफ के इस शीर्ष पद पर आता है, उसे अपना “ग्रन्थ” अलग से लिखना जरूरी क्यों लगता है? जबकि यह कतई आवश्यक नहीं है।
राज्यों के डीजीपी भी ऐसा वहां कुछ नहीं करते, वह अपने निवर्तमान डीजीपी की बनाई व्यवस्था को ही अपने मुताबिक छोटे-मोटे सुधार करके आगे बढ़ाते हैं। लेकिन आरपीएफ जैसी दूसरों की मोहताज और लावारिस फोर्स में उनके द्वारा अपनी सारी काबिलियत दर्शाने-लागू करने का जिदपूर्ण प्रयास अनुचित ही नहीं, बल्कि अनावश्यक होता है।
यहां तो उनके सामने रेलमंत्री भी चुप रहते हैं। यहां फेमिली वेलफेयर को तो भूल ही जाएं, यहां तो पति-पत्नी नौकरी कर रहे अलग अलग जोन में, बच्चे बीमारी से पीड़ित हैं, तथापि 10-15 का जो ब्रम्हास्त्र है, इसके चलते कितनों ने तो नौकरी तक ही छोड़ दी। कितने ही लोग बीमारी से पीड़ित हैं या उनके बच्चे बिलख रहे हैं, लेकिन 10-15 की कुटिल नीति से उन्हें मुक्ति नहीं मिल सकी।
अवसरवादियों, चाटुकारों से हमेशा घिरे रहने के कारण शीर्ष पद पर बैठे अधिकारी को कुछ दिखता ही नहीं है। उनके घेरे के चलते उन्हें कुछ दिखना संभव भी नहीं है। ये भी सर्वविदित है कि दिल्ली में रहने के लिए लगभग सभी आईपीएस इस पद पर जोड़-तोड़ करके और राजनीतिक सिफारिशों के चलते ही आते हैं। फिर दूसरों द्वारा इस तरह की सिफारिश लाने पर उन पर कार्रवाई का अस्त्र क्यों चलाया जाता है?
शीर्ष पद पर आसीन अधिकारी को पद की गरिमा और गंभीरता बनाए रखना अत्यंत आवश्यक होता है। मातहत स्टाफ का मॉरल ऊंचा रखना और व्यवस्था पर उनका भरोसा कायम रखना ज्यादा जरूरी होता है। यह केवल कल्याणकारी कार्यों से ही संभव हो सकता है, जो कि शीर्ष पद पर बैठे अधिकारी को करना चाहिए।
#DGRPF @arunkumar783 के 2 साल के कार्यकाल में #RPFstaff का बड़े पैमाने पर उत्पीड़न (D-32), Zonal IG के पावर सीज करने, कुछ का सीमा से बाहर फेवर, ट्रांसफर/पोस्टिंग में अफरा-तफरी,अवैध वेंडर के विरुद्ध कार्रवाई का झूठा क्रेडिट इत्यादि की गहराई से जांच @HMOIndia द्वारा की जाए!@IR_CRB pic.twitter.com/ebxlknVt9i
— KANAFOOSI.COM (@kanafoosi) March 15, 2021
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