एक कदम पारदर्शिता की ओर..

“A STEP TOWARDS TRANSPARENCY”

मंडल रेल प्रबंधक/फिरोजपुर #DRMFZR ने कुछ महीने पहले फिरोजपुर मंडल, उत्तर रेलवे की एक कंस्ट्रक्शन साइट पर एक डिस्प्ले बोर्ड लगवाया था। यह डिस्प्ले बोर्ड ठीक वैसा ही है, जैसा कि सीवीसी और जोनल सीवीओ (एसडीजीएम) के फोन नंबरों के साथ हर जोनल और मंडल मुख्यालयों की लिफ्टों के दरवाजों के ऊपर और ऐसे ही अन्य सार्वजनिक आवाजाही के ठिकानों पर लगे रहते हैं, जिनकी आड़ में ठीक वैसे ही रिश्वतखोरी अथवा लेन-देन का कारोबार चलता रहता है जैसे किसी कीड़े को मुंह में दबोचकर एक छिपकली महात्मा गांधी की फोटो के पीछे जाकर छिप जाती है।

डीआरएम/फिरोजपुर द्वारा लगवाया गया यह डिस्प्ले बोर्ड भी उसी तर्ज पर है। जबकि उन्होंने मंडल मुख्यालय और डीआरएम बंगले पर अपना “अग्रवाल किराना स्टोर” खोल रखा है। जहां फेवर चाहने वाले रेलकर्मी, यूनियनों के दलाल टाइप पदाधिकारी अपने-अपने हिसाब से खरीद-फरोख्त किया करते हैं।

इसके लिए इस या उस तरह अथवा येन-केन प्रकारेण ब्रांच अफसरों पर डीआरएम साहेब का दबाव लगातार बना रहता है कि उनके मन-मुताबिक यदि उन्होंने “अग्रवाल किराना स्टोर” की आय बढ़ाने में अपना योगदान नहीं दिया, तो वे यह समझ लें कि उनके अधिकार डीआरएम में समाहित हैं, और वह जब चाहेंगे, तब उनके अधिकारों का अपहरण किया जा सकता है। फिर चाहे इसके लिए उन्हें यूनियन पदाधिकारियों को अपना हस्तक बनाकर उनके (ब्रांच अफसरों) खिलाफ उनके ऑफिस के बाहर उनकी बेइज्जती का बोर्ड लगवाने सहित धरना-प्रदर्शन ही क्यों न करवाना पड़े?

बहरहाल, उक्त डिस्प्ले बोर्ड देखकर एक वरिष्ठ अधिकारी का कहना था कि “डीआरएम साहेब को यह कस्टमर सैटिस्फैक्शन का बड़ा-बड़ा बोर्ड टांगने से पहले ठीक तरह से अंग्रेजी अवश्य सीख लेनी चाहिए थी, या फिर जितनी अंग्रेजी उन्हें आती है, उसे थोड़ा और ठीक कर लेना चाहिए था। इस बोर्ड के पहले ही वाक्य में जो गलती है, वैसी गलती तो प्राइमरी अंग्रेजी स्कूल में पढ़ने वाला कोई बच्चा भी नहीं करता।”

उनका कहना था कि गलत अंग्रेजी, न सिर्फ गलत मंशा जाहिर करती है, बल्कि जगहंसाई भी कराती है।

उन्होंने कहा कि “डीआरएम साहेब अपने पीठ थपथपाने की जगह अगर सचमुच ईमानदारी और पारदर्शिता सुनिश्चित करना चाहते, तो जगह-जगह हर काम के विस्तृत विवरण के साथ, उस काम की पूरी लागत, कार्य पूरा करने की समय सीमा और कांट्रेक्टर का नाम तथा उसका मोबाइल नंबर भी उक्त बोर्ड में बड़े-बड़े अक्षरों में लिखवाते!”

उन्होंने यह भी कहा कि “इसके साथ ही विजिलेंस और सीबीआई के भी नंबर उसमें डलवाते, क्योंकि तब जब स्टाफ और ऑफिसर्स की कॉलोनियों में जो कार्य होता, वह सबकी जानकारी में होता, और तभी कर्मचारी या उनके परिवार के लोग चेक भी कर पाते और टेंडर के हिसाब से काम न होने पर शिकायत कर पाते।”

“अभी तो रेल का आलम यह है कि शायद जीएम को भी नहीं पता होता है कि उनके बंगले में जो काम करने ठेकेदार का आदमी आया है, उसको क्या-क्या काम करना है, और किस गुणवत्ता का सामान उपयोग करना और लगाना है, तो बाकी अफसरों और कर्मचारियों को कौन पूछता है? अब तो आपने और रेल व्यवस्था ने इन्हें अपने रेल परिवार की जगह कस्टमर ही बना दिया है!” (जो दीनता और महंगाई से मरे, वह कस्टमर होता है)

उन्होंने कहा कि नैतिक रूप से होना तो यह चाहिए कि जहां भी कोई निर्माण कार्य हो रहा है, उस कार्य से संबंधित सारी महत्वपूर्ण जानकारियां उसकी लागत के साथ कई जगह प्रदर्शित होनी चाहिए, जिसमें कांट्रेक्टर के नाम और कांटेक्ट नंबर के साथ संबंधित अधिकारियों, विजिलेंस तथा सीबीआई के भी कंप्लेंट वाले नंबर्स प्रदर्शित होने चाहिए, तभी सच्ची मंशा मानी जाएगी। तभी न सिर्फ पब्लिक ऑडिटिंग का उद्देश्य पूरा हो पाएगा, बल्कि इसके लिए पूरी तरह से पारदर्शिता भी सुनिश्चित की जा सकती है।

इंजीनियरिंग अधिकारियों की कार्यप्रणाली की बानगी

इंजीनियरिंग विभाग के भ्रष्टाचार की एक छोटा सी बानगी यदि किसी को भी देखनी है, तो अपने इलाके के किसी महत्वपूर्ण स्टेशन पर चले जाएं – जैसे कानपुर, लखनऊ, सहारनपुर, दिल्ली आदि किसी भी स्टेशन पर पिछले 30 सालों में किए गए सिविल, इलेक्ट्रिकल, एस एंड टी विभाग के कामों का ब्यौरा और कुल खर्च का विवरण प्राप्त कर उसे देख लेने पर किसी की भी आँखें फटी की फटी रह जाएंगी।

तब पता चलेगा कि 30 सालों में एक स्टेशन के तथाकथित सुधार, सुंदरीकरण और नवीनीकरण पर इतना पैसा कागजों पर खर्च हुआ है, जितने में कि पचासों ताजमहल बनाए जा सकते थे। लेकिन भले ही स्टेशन चमका हो या न चमका हो, मगर इस दौरान जितने आईओडब्ल्यू, एईएन, डीईएन, सीनियर डीईएन आदि अन्य अधिकारी आए, सबके अपने-अपने “ताजमहल” जरूर बन गए।

आज भी लगभग सभी स्टेशनों के प्लेटफार्म तक रो रहे हैं।चाहे लखनऊ हो या दिल्ली, हर साल सालों-साल प्लेटफार्म पर तोड़फोड़ होते सम देखते रहते हैं। जब देखो तब ये कोटा स्टोन की जगह वो बढ़िया वाला स्टोन, मार्बल लगाने की नौटंकी चलती रहती है।

नई दिल्ली जैसे स्टेशन के भी सभी प्लेटफार्मों पर 30 सालों में आज तक चमचमाता टाइल्स नहीं लग पाया है, तो और किसी रोड साइड (सड़क छाप) स्टेशन की बात ही क्या की जाए। शताब्दी का इंजन जहाँ खड़ा होता है, उसके पहले से ही प्लेटफार्म रेलवे के भ्रष्टाचार की कहानी कहना शुरू कर देता है। यदि यह कहा जाए कि 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8 आदि प्लेटफॉर्म्स की स्थिति आज की बनिस्बत 30 साल पहले ज्यादा बेहतर थी, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

राजीव चौधरी, आनंद प्रकाश, ए. साईबाबा अथवा राजेश अग्रवाल जैसे इंजीनियरिंग घड़ियाल वीआईपी प्लेटफार्म के अलावा दूसरी जगहों पर जाते कहां हैं? और जाते भी हैं, तो जिस विभाग के हैं, उसकी कमियां उन्हें नजर कहां आती है? क्योंकि उन्हें पता है कि इसका हिसाब उनके घर पहले ही पहुंच गया है। कमोबेश यह खामी लगभग सभी विभाग प्रमुखों और जोनल हेड्स में है।

“प्लान हेड 5300” को खत्म कर “कैपिटल फंड” का प्रावधान किया जाए

जानकारों के अनुसार रेलवे के खर्च पर नियंत्रण करने के लिए निर्माण कार्यक्रम प्रोग्राम के अंतर्गत “प्लान हेड 5300” (पैसेंजर एमिनिटी डेवलपमेंट फंड) को समाप्त कर कैपिटल फंड का प्रावधान होना चाहिए। इसके साथ ही अधिकारियों के कार्यों को स्वीकृत करने के अधिकार मंडल एवं जोनल स्तर पर नगण्य हों।

उनका कहना है कि कार्यों को स्वीकृत कराने हेतु केवल प्रस्ताव बनाकर रेलवे बोर्ड भेजे जाने चाहिए। वहां से सभी प्रस्तावों को स्वीकृति हेतु उसकी तार्किकता के साथ नीति आयोग को भेजा जाना चाहिए। इससे यात्री सुविधाओं के नाम पर होने वाले सार्वजनिक राजस्व के अनावश्यक अपव्यय और दुरुपयोग को रोका जा सकेगा। अनावश्यक खर्च न होने से रेल राजस्व की भी पर्याप्त बचत होगी।

इसके अतिरिक्त रेलवे में राजस्व के अंतर्गत प्रतिवर्ष क्षेत्रीय कार्यों (जोनल वर्क्स) पर प्रतिवर्ष होने वाले राजस्व के खर्च को भी नियंत्रित किया जाना चाहिए, क्योंकि इसके अंतर्गत कराए जाने वाले कार्यों की गुणवत्ता निम्नतम स्तर की होती है तथा कराए जा रहे कायों को कोई भी सुचारू रूप से करवाने तथा उसकी गुणवत्ता को उसके हिसाब से मेनटेन करने के लिए कोई ध्यान नहीं देता। इससे राजस्व का खर्च बढ़ता जाता है। परंतु उसका लाभ नीचे स्तर तक नहीं पहुंच पाता।

इसके लिए भी सुझाव यह है कि हर साल होने वाले राजस्व के खर्च को नियंत्रित करते हुए अधिकारियों और कर्मचारियों के स्तर पर सुचारु नियंत्रण हेतु गाइडलाइन बनाई जानी चाहिए तथा उसका पूरी तरीके से अनुपालन भी सुनिश्चित किया और करवाया जाना चाहिए। क्रमशः

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