“भ्रष्टाचार उन्मूलन अभियान” में आगे बढ़ता विजिलेंस माफिया

विजिलेंस माफिया के चलते आवश्यक हो गया है रेलवे विजिलेंस ऑर्गनाइजेशन का पुनर्गठन !

कैंसर की तरह पूरी व्यवस्था में फैल गया है भ्रष्टाचार और कंप्लेंट माफिया का विषैला तंत्र !!

रेलवे विजिलेंस का आंख खोल देने वाला सच शीर्षक से प्रकाशित पिछली किस्त में उजागर हुई अपनी करतूतों से रेलवे बोर्ड विजिलेंस से बहिष्कृत किए गए तीनों आईआई (इंवेस्टीगेशन इंस्पेक्टर) इतने विचलित हुए हैं कि अब और ज्यादा उनके कुकर्म उजागर न हों, इसलिए वे विभिन्न माध्यमों से दबाव बना रहे हैं। इसके लिए वे मीडिया सहित अपने विभिन्न संपर्कों का इस्तेमाल कर रहे हैं, क्योंकि इससे रेलवे बोर्ड में बने रहने अथवा किसी रेलवे पीएसयू में एडजस्ट होने पर ही नहीं, बल्कि उनके संरक्षकों के हितों पर भी खतरा मंडराता नजर आ रहा है।

उल्लेखनीय है कि निष्कासित किए गए तीनों आईआई की कुत्सित करतूतों को तब उजागर किया जा सका है, जब डायरेक्टर विजिलेंस (पुलिस), रेलवे बोर्ड ने महीनों तक फील्ड में की जा रही इनकी कारगुजारियों पर दिल्ली पुलिस के सहयोग से लगातार नजर रखी थी। उनकी ही पुख्ता सबूतों के साथ सब्मिट की गई रिपोर्ट के आधार पर इन तीनों को अब और ज्यादा रेलवे बोर्ड विजिलेंस में बनाए रख पाना ट्रैफिक विजिलेंस के अधिकारियों के लिए आसान नहीं रह गया था। परिणामस्वरूप इन्हें तुरंत बाहर किया गया है। तथापि अब विजिलेंस अपनी नाक का सवाल न बनाकर उक्त रिपोर्ट के आधार पर इन तीनों को मेजर पेनाल्टी चार्जशीट भी पकड़ाने के साथ ही इन्हें इनके पैरेंट कैडर/रेलवे में भेजा जाना चाहिए, तभी इनके द्वारा सताए, उत्पीड़ित, शोषित किए गए रेलकर्मियों के साथ समुचित न्याय हो पाएगा।

इन्होंने फील्ड में रेलकर्मियों का इतना शोषण और उत्पीड़न किया है कि उसी स्टाफ के बीच जाने से इन्हें डर लग रहा है कि कहीं वे इनकी पोल खोलना शुरू न कर दें। इसका दूसरा सत्य यह है कि इन्होंने अपनी दहशत का आभामंडल इतना बड़ा बना लिया था कि खुद को आरबी (रेलवे बोर्ड) का पर्याय बताने लगे थे, अतः इन्हें उसी तुच्छ कैडर में जाने में हीनता महसूस हो रही है, इसीलिए येन केन प्रकारेण ये रेल भवन या किसी पीएसयू में ही एडजस्ट होने की जुगत भिड़ा रहे हैं।

जो आईआई या विजिलेंस अधिकारी, ईमानदारी से और अपने ऊपर बिना विजिलेंस का खुमार चढ़ाए काम करते हैं, उनके फील्ड में लौटने पर स्टॉफ उन्हें हाथों-हाथ लेता है और उनकी इज्जत पहले से कई गुना बढ़ जाती है। ऐसे लोग शायद ही कभी बाहर जाने की जुगत में रहते हैं। यह लोग फील्ड में अपने व्यवहार, जानकारी और हमेशा मदद को तत्पर रहने वाले व्यक्ति के तौर पर जाने जाते हैं। कर्मचारी और अधिकारी दोनों के बीच ईमानदार, कर्मठ और नकारात्मक गतिविधियों से दूर रहने वाले ऐसे पूर्व विजिलेंस इंस्पेक्टर, आआईआई और विजिलेंस ऑफिसर सबका आदर्श बन जाते हैं।

अब आगे..

यह सही है कि सारे पीडब्ल्यूआई, एसएसई, टीटीई और जनसामान्य यानि यात्रियों के सीधे संपर्क में काम करने वाला स्टॉफ चोर नहीं होता, और न ही उनके एडीईएन, सीनियर डीईएन, एडीएमई, सीनियर डीएमई, एडीईई, सीनियर डीईई, एएसटीई, सीनियर डीएसटीई, एसीएम, सीनियर डीसीएम, एओएम, सीनियर डीओएम, एडीएफएम, सीनियर डीएफएम आदि भी हमेशा गलत नहीं होते। यह सभी मंडल अधिकारी जिन परिस्थितियों में और जिन मुश्किलों का सामना करते हुए काम कर रहे होते हैं, उसी से रेलवे का अस्तित्व इतनी अंधेरगर्दी के बाद भी अब तक बचा हुआ है और उन्हीं की बदौलत भारतीय रेल अब तक पटरी पर दौड़ रही है।

यही वे लोग हैं, जो अपने जीवन का अधिकांश समय अपने परिवार को न देकर, यहां तक कि अपने स्वास्थ्य का भी ध्यान न रखकर दधीचि की तरह रेलवे को चलाते हैं। इनका प्रयास होता है कि उनका यह क्षण बिना किसी अनहोनी के गुजर जाए और रेलवे को जो आय आनी है, आ जाए। इनके लिए बीता हुआ क्षण संतोषजनक स्मृति से ज्यादा कुछ नहीं होता और उस क्षण इनके कर्तव्य की सार्थकता उसी में होती है। यही प्रमाण है इनकी मेहनत का, ईमानदारी का, निष्ठा का और अपने काम के प्रति समर्पण का भी!

लेकिन उनके काम में ऐब निकालना बहुत ही आसान काम है। वैसे भी किसी चीज का पोस्टमार्टम करना बहुत ही आसान होता है। यह ऐसा काम है, जिसमें न संवेदना होती है, न जिंदा करने की जिम्मेदारी, न काम के परिणाम का दायित्व होता है! और यह कहना कि ऐसा करता, ऐसे करता, इस समय में करता, इतने समय में करता, आदि आदि, तो सही होता या ज्यादा सही होता और यह जानबूझकर इसने गलत मोटिव से किया है। अतः इस पर तो केस बनता है और फिर केस बना दिया जाता है।

विजिलेंस में, पहला- या तो खेले-खेलाए लोग आते हैं, या फिर, दूसरा- वे लोग आते हैं, जिनको फील्ड में काम का कोई बहुआयामी और लंबा अनुभव न के बराबर होता है। लेकिन पहला आते-आते अपना बाजार शुरू कर देता है, जबकि दूसरा पहले से स्थापित माफिया इंस्पेक्टर्स और सिस्टम के हाथ में खेलने लगता है और फिर यह इतना खेलता है कि कुछ समय में ही पहले वाले को भी पीछे छोड़ देता है।

अभी करीब 20-25 साल पहले तक विजिलेंस में उन वरिष्ठ, कर्मठ, निष्ठावान और ईमानदार रेलकर्मियों एवं अधिकारियों को बिना सेलेक्शन के पिक-अप किया जाता था, जो न सिर्फ भिन्न-भिन्न पदों पर, बल्कि अलग-अलग तरह के काम कर चुके होते थे और उनकी एसीआर इस बात की गवाह होती थी। इसमें कोई संदेह नहीं कि उसमें पक्षपात की भी काफी गुंजाइश होती थी, परंतु सुधार के नाम पर अब सेलेक्शन प्रक्रिया ने तो पूरे विजिलेंस सिस्टम को ही चौपट करके रख दिया है।

टीटीई, जो ट्रेन में ड्यूटी के दौरान स्टॉफ शॉर्टेज के चलते 6/7 कोच मैन्ड करता है, उसको पता होता है कि वह कितना कठिन काम कर रहा है और एक पूरे कोच को ठीक से चेक करने में कम से कम 45 मिनट से एक घंटा लगेगा ही। फिर जब तक वह दूसरे-तीसरे कोच में जाएगा तब तक किसी स्टेशन पर कोई भी यात्री उसके किसी भी कोच में चढ़ सकता है। सब जानते हैं कि यह सामान्य घटनाक्रम है, जिसको रोक पाना किसी के वश में नहीं है। जब तक कि प्रत्येक कोच टीटीई द्वारा मैन्ड न किया जाए।

वही टीटीई जब विजिलेंस में जाता है और जब उसे विजिलेंस का पानी लग जाता है, तब वह भी अपने जैसे ही दूसरे टीटीई की इसी कथित कोताही पर धड़ाधड़ केस बनाता है, यह कहकर कि “तुम्हारे द्वारा मैन्ड किए जा रहे कोच में इतने यात्री बिना रिजर्वेशन के या बिना टिकट के कैसे मिल गए?” अब वह (टीटीई से ही वीआई या आईआई बना) कोच मैन्ड कर रहे बेचारे टीटीई को या तो केस बनाने की धमकी देकर धन दोहन करेगा या फिर केस बनाएगा। दोनों ही गलत हैं। लेकिन यही विजिलेंस है। और वह भी रेलवे की।

तथापि कहानी यहीं खत्म नहीं होती। केस बनने के बाद उस टीटीई की नारकीय जिंदगी शुरू होती है। वह अब दस जगह पर रोएगा, गिड़गिड़ाएगा, अपनी बेगुनाही की दुहाई देगा और दस जगह पर पैसा भी खर्च करेगा। लाख रहम कर, सब जानकर अनुशासनिक अधिकारी (डीए) भी विजिलेंस के डर से उसे कोई न कोई दंड दे ही देता है, वरना यही विजिलेंस माफिया खुद या किसी से कंप्लेंट करवा देता है कि पैसा लेकर डीए ने माफ कर दिया। तब डीए साहेब की परिक्रमा शुरू हो जाती है।

अब उस टीटीई के कैरियर पर धब्बा लग गया। कुछ समय बाद उसके परिवार वालों को और उसे खुद भी यह लगने लगता है कि वह बहुत बड़ा अपराधी और चोर है। इसके बाद वह सीख जाता है कि ईमानदारी से काम करोगे, तो फंसोगे और जब फंसोगे तो यह पैसा ही काम आता है। जितना पैसा होगा, उतना ही ज्यादा चांस अपने आपको ईमानदार साबित करने का होता है और जितने ठन ठन गोपाल रहोगे, उतने ही बड़े नकारे और बेईमान साबित कर दिए जाओगे। इसलिए पैसा जितना कमा सकते हो, कमा लो, क्योंकि यही पैसा बोलता है और जैसा चाहोगे वैसा ही यही बुलवाता भी है।

इस प्रकार रेलवे विजिलेंस के भ्रष्टाचार और स्वस्थ आर्गेनाइजेशन के निर्माण हेतु विजिलेंस माफिया कदम-कदम पर नया वॉलंटियर खड़ा करता चलता है और अपने महान उद्देश्य को सार्थक करते हुए अपना कारवां लगातार बढ़ाता चलता है। इन्होंने अब इतने वॉलंटियर्स खड़े कर दिए हैं कि जिसके चलते भारतीय रेल ही वेंटीलेटर पर चली गई है।

अब वही भुक्तभोगी टीटीई विजिलेंस माफिया का नया वॉलंटियर बन जाता है और अब ट्रेन पर चढ़ने से पहले उसे विजिलेंस टीम के मूवमेंट का पूरा डिटेल पता होता है। अब अगर उसको अपने किसी सहयोगी/प्रतिद्वंद्वी टीटीई को निपटाना होता है, तो वह उसकी भी सेटिंग कर लेता है कि उसको कैसे फंसाना है तथा कब और कहां उसे चेक करवाना है।

अगर “साहेब” लोगों का मूवमेंट उसकी ट्रेन में है, तो फिर या तो उनकी मांग के अनुसार बंदोबस्त रखता है, या फिर ऑन द स्पॉट उनके टेस्ट के अनुरूप चीजों की व्यवस्था करता है। अब से पहले वह अपनी जानकारी में एक भी अवैध यात्री को अपने कोच में नहीं चढ़ने देता था, या लड़कर भी पेनाल्टी के साथ उसकी टिकट बनाता ही था। अब वह हर ट्रिप में जब तक कम से कम 10 हजार नहीं कमा लेता है, अपनी ईमानदारी को कोसता रहता है। अब तो जो यात्री टिकट बनाने की जिद्द भी करता है, तो वह उसे कुछ डिस्काउंट कर सधे हुए चार्टेर्ड एकाउंटेंट की तरह समझा देता है कि टिकट बनाने में उसका कितना नुकसान होगा।

अब वह विजिलेंस टीम को ट्रेन से उतरने से पहले इतना देकर मुट्ठी गरम कर देता है कि जितनी उसके हफ्ते भर की सैलरी होती है, यह कहते हुए कि “साहब यह तो सब आप लोगों की ही कृपा है।” उसकी इस ईमानदारी, निश्छलता और सेवाभाव से भावविह्वल होते हुए विजिलेंस टीम स्टेशन पर उतरकर अपने अगले “भ्रष्टाचार उन्मूलन अभियान” की ओर बढ़ जाती है। अब वही टीटीई ट्रेन में भरपूर कमाई करने के साथ-साथ विजिलेंस केस में फंसे दूसरे स्टाफ से दलाली अथवा विजिलेंस वालों से सेटिंग करके भी कमाने लगता है।

विजिलेंस से पाला पड़ने के बाद इसी तरह की ईमानदारी की सीख फील्ड में कार्यरत लगभग सभी कर्मचारियों को मिलती है और इसी तरह से भ्रष्टाचार को खत्म करने की उनकी जिजीविषा बलवती होती जाती है। तकरीबन यही कहानी हर विभाग के कर्मचारियों और अधिकारियों के साथ कभी न कभी घटित होती है।

इंजीनियरिंग विभाग, जहां सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार होता है, में बहुत कम केस इसलिए बनते हैं, क्योंकि वहां नीचे से ऊपर तक की सेटिंग होती है। मेडिकल में सिक-फिट के धंधे सहित सब कुछ खुलेआम होता है, पर कभी सुना किसी डॉक्टर के खिलाफ विजिलेंस केस बना हो! पर्सनल, स्टोर्स, एसएंडटी और मैकेनिकल विभागों में तो कभी-कभार को केस बनता भी है, तो चर्चा नहीं होती। इलेक्ट्रिकल विभाग में तो जब तक आर. के. राय जैसे ईडी/विजिलेंस और घनश्याम सिंह एवं वी. के. यादव जैसे संरक्षक रहेंगे, तब तक कुछ नहीं हो सकता!

पहला, मेरा मानना है कि विजिलेंस की जगह रेलवे और अन्य मंत्रालयों में भी एक विभाग ऐसा बनाया जाए, जिसका काम विजिलेंस से ठीक उल्टा हो, जिसमें जैसे विजिलेंस (सतर्कता) में खोज-खोजकर केस बनाए जाते हैं, उस नए समर्थता-क्षमता की खोज, पहचान और असलियत को समझने वाले विभाग द्वारा पुरस्कार देने के लिए खोज-खोजकर ईमानदारी से सभी कर्मचारियों और अधिकारियों के काम का भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से निष्पक्ष ऑडिट किया जाए, जो या तो आउट ऑफ टर्न प्रमोशन के रूप में हो या इंक्रीमेंट के रूप में। जिस कार्यसंस्कृति को आप बढ़ावा देना चाहते हों, उसी को इसका सबसे बड़ा क्राइटेरिया रखा जाना चाहिए।

जैसे अगर विश्वस्तरीय कार्य गुणवत्ता, अथवा विश्वस्तरीय से भी बेहतर कार्य, समय से या कम समय में, कम लागत पर कार्य, बिना गुणवत्ता पर समझौता किए पूरा करना, नए ट्रैफिक लाकर या इन्नोवेटिव तरीके से आय बढ़ाने पर, सेवा क्षेत्र में मानक स्वरूप नए तरह का कार्य करने पर, तकनीकी में दूरगामी सकारात्मक नया काम करने जैसे कार्यों को क्राइटेरिया रखा जाए। और इसके लिए आउट ऑफ टर्न प्रमोशन, इंक्रीमेंट, मनचाहे शहर में पोस्टिंग, आउट ऑफ टर्न मकान अलॉटमेंट का प्रावधान या स्वेच्छा से परिवार नॉन-डिपेंडेंट (जैसे पैरेंट्स) में से किसी को भी अपने अधिकार में से एक या दो पास देने का प्रावधान, रिटायरमेंट के बाद अपनी पसंद के शहर में 2/3/4/5 साल के लिए रेलवे आवास में रहने की सुविधा आदि जैसे कुछ छोटे-बड़े ऐसे प्रावधान हों, जिन्हें कार्य के अनुसार और कार्य के रिकॅग्निशन के तौर पर दिया जाना चाहिए। इस रीति से अपने आप स्वस्थ और राष्ट्रहित वाली सकारात्मक कार्यसंस्कृति कुछ सालों में विकसित हो सकती है।

जब 10 रुपये का डिकॉय करके नियमानुसार किसी को नौकरी से निकाला जा सकता है और उसके साथ कई जिंदगियों को भी सड़क पर लाया जा सकता है, तो फिर ऐसा नियम क्यों नहीं बनाया जा सकता, जिससे अच्छा काम करने पर सब में उत्साह भरने के लिए और एक नई कार्यसंस्कृति को विकासोन्मुख तथा राष्ट्रहित में उपयोग करने के लिए उपरोक्त पुरस्कार रेलकर्मी और अधिकारी को देने का प्रावधान भी तो किया जा सकता है!

इसमें से कुछ सुविधाएं अभी भी दूसरे रूप में दी जा रही हैं, लेकिन उनका जो क्राइटेरिया है, वह जुगाड़, कार्टेल, चमचागीरी, भ्रष्टाचार, जात-पात, पैसा, लूट-खसोट और माफिया नियंत्रित है। नकारात्मक कार्यसंस्कृति के जितने भी अवयव हैं, वह सभी आभी प्रोत्साहन के, पुरस्कार के, रिकॅग्निशन के क्राइटेरिया हैं और विजिलेंस इसका प्रमुख पहरुआ है।

दूसरा, मेरा मानना है कि एक ईमानदार समाज ही ईमानदार व्यवस्था को डिजर्व करता है। अगर कोई नागरिक अपनी नीयत और ध्येय में ईमानदार है, तो वह पहचान छुपाकर कोई बात या कंप्लेंट कतई नहीं करेगा। यह मनुष्य की प्रकृति है कि जब उसे किसी पर घात करना होता है, तभी वह क्षद्म रूप अपनाता है। जो निडर होता है, वह छुपकर वार नहीं करता, बल्कि पहचान गलत बताकर या छिपाकर बात वही करता है, जिसमें खुद कोई कमी होती है, खोट होती है, जो अवसरवादी और घातकी होता है, क्योंकि जो वास्तव में डरा होता है, वह कुछ करता ही नहीं है, चूंकि उसे बखूबी पता होता है कि अंततः छुपता कुछ भी नहीं है।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि आज सरकारी तंत्र में जो लोग विजिलेंस या इस तरह की अन्य एजेंसियों से संरक्षित (पैट्रोनाइज) नहीं हैं, वे काम न करना, निर्णय न लेना, अधिकार संपन्न न्याय न करना, सबसे सुरक्षित मानते हैं, क्योंकि कंप्लेंट माफिया का बड़ा तंत्र कैंसर की तरह इस देश की पूरी व्यवस्था में फैला हुआ है।

ब्लैकमेलिंग, धन उगाही का इससे ज्यादा सम्मानित और आसान रास्ता अन्य कोई नहीं है। इसमें कानून के बड़े-बड़े जानकारों से लेकर छोटे स्तर के शातिर और अपराधिक दिमाग के लोग भी शामिल हैं। वे खुद परिवाद और आरटीआई की कमाई खाते हैं और इसके लिए एक बड़ा विजिलेंस जैसा डिपार्टमेंट भी उनके ही काम को आगे बढ़ाने में सहायक है। सरकार ही जाने कि इससे आज तक उसकी भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था के कितने उद्देश्य सार्थक हो पाए ह?

सुनने, पढ़ने, देखने और अनुभव में देश के हर नागरिक को तो यही लगता है कि 1947 के बाद और विभागीय विजिलेंस, सीबीआई, सीवीसी जैसी संस्थाओं की स्थापना के बाद से इस देश में कोई एक चीज “दिन दूनी रात चौगुनी” बढ़ी है, तो वह है सिर्फ और सिर्फ भ्रष्टाचार, कदाचार और इसके उप-उत्पाद (बाई प्रोडक्ट्स)।

फिर भी अगर सरकार इतना प्रावधान कर दे कि यदि परिवाद गलत साबित हुआ, तो परिवादकर्ता को उतनी ही कड़ी सजा दी जाएगी, जितनी परिवाद सत्य सिद्ध होने पर कर्मचारी/अधिकारी को दी जाती, तो बहुत हद तक विजिलेंस जैसी संस्थाओं के समय, संसाधन और शक्ति का दुरुपयोग होने से बच जाता तथा देश के लाखों ईमानदार, कर्मठ सरकारी कर्मचारी और अधिकारी निर्भीक होकर काम कर पाते। उपरोक्त तमाम तथ्यों के मद्देनजर अब यह आवश्यक हो गया है कि रेलवे विजिलेंस ऑर्गनाइजेशन की आंतरिक व्यवस्था में व्यापक सुधार किया जाए। क्रमशः