रेल व्यवस्था में दीमक लगाने वालों का समर्थन तो हम कतई नहीं कर सकते!

  • बात सन् 2011 की है, दक्षिण पूर्व मध्य रेलवे (#SECR) में नये GM आते हैं। शीध्र ही ये बात सामने आने लगती है कि साहब तो नहीं पीते, लेकिन मेमसॉब पीने के बाद होश खो देती हैं-ये भी बात सामने आई कि मेमसॉब को पीने का बहुत ही ज्यादा शौक है। हर क्लब इवनिंग में, #GM के हर इंस्पेक्शन में, महिला कल्याण समिति की गैदरिंग में, कुल जमा हर मौके पर मेमसॉब को शराब चाहिए और हर मौके पर वह पीने के बाद पूरी तरह से आउट ऑफ कंट्रोल हो जाती थीं।
  • ऐसी महिलायें कई हुई हैं रेलवे में। लेकिन यहाँ इन महा-पियक्कड़ मेमसाहेब के पतिदेव जहाँ उनके सामने भीगी बिल्ली या केचुआ बने रहते थे, वहीं बाहर यानि ऑफिस में अपने मातहतों के लिए बहुत खूँखार थे, ऊपर पहुँचने के लिए बहुत महत्वाकांक्षी अधिकारी थे। लोगों को ये भी पता चल गया कि मेमसाहेब को पिलाने से उन्हें कोई आपत्ति नहीं थी। मेमसाहेब का सरकारी कामकाज में दखल भी बहुत अधिक था, ऐसा स्पष्ट दिखने लगा। हर सोशल गैदरिंग में जो अधिकारी बेचारे पीने वाले नहीं थे वह अपनी और अपनी पत्नियों की फजीहत न हो, इसको लेकर बहुत चिंतित रहते थे। इसीलिए बिलासपुर के तत्कालीन डीआरएम की पत्नी ने मेमसाहेब की हर मूवमेंट और गैदरिंग का बहिष्कार कर दिया था। इन साहब ने भी रेलवे विजिलेंस का सहारा लेकर अपने ही #batchmate का करियर पूरा बर्बाद कर दिया, ताकि उनके बोर्ड मेंबर और चेयरमैन बनने का रास्ता साफ हो सके। और ऐसा हुआ भी।
  • शराब पीने के बाद का ड्रामा जल्द ही टार्चर बन गया, ब्रांच अफसरों के सामने “हे डीआरएम चल नाच”, पत्नियों के सामने ब्रांच अफसरों और विभाग प्रमुखों की बेइज्जती पत्नियों को बर्दाश्त तो नहीं होती थी, पर वे बेचारी अपने पतियों की एपीएआर खराब न हो जाए, कहीं दूर ट्रांसफर न हो जाए, इस डर से चुप रहती थीं। कहीं भी गाली-गलौज, किसी को भी भरी बैठक में, सार्वजनिक स्थान पर अपमानित कर देना, अधिकारियों पर उल्टी कर देना, मेमसॉब से पूरा सिस्टम भयक्रांत हो गया।
  • बर्दाश्त से बाहर हो रही मेमसॉब हरकतों की शिकायतें अफसरों से मिलने पर हमने पहले तो साहब को बताया कि वह पद की गरिमा को समझें, अपनी बिगड़ती छवि को सँभालें, पर जब इसका कोई असर देखने को नहीं मिला, तब इस पर लिखना चालू किया और शीघ्र ही सिस्टम से बहुत फीडबैक आना चालू हो गया। पियक्कड़ मेमसॉब के नाटक और भोंदू बने साहब की चुप्पी, या कहें उनके साइलेंट सपोर्ट को तब केवल “रेलवे समाचार” ने ही एक्सपोज किया था।
  • हमें धमकियाँ मिलनी चालू हो गईं, कि आप अपने लिए बहुत बड़े शत्रु बना रहे हैं।
  • कालांतर में, साहब रेलवे बोर्ड में मेंबर मैकेनिकल बनकर आ गए। उनकी सारी चालें रेलवे के केचुआ सरीखे अधिकारियों से न सँभलीं और जो उन्हें चैलेंज कर सकता था, वह निपट गया। बाद में साहब के बतौर चेयरमैन, रेलवे बोर्ड यानि सीआरबी बनने पर तो मेमसॉब के कारनामे कुछ ज्यादा ही बढ़ गए। हमारा लिखना जारी रहा और हमें धमकियाँ मिलना बढ़ता गया।
  • कुछ समय पहले हमने तत्कालीन #DGRPF रंजीत सिन्हा के भ्रष्ट कारनामों के बारे में भी लिखा था कि कैसे उन्होंने #RPF में अवैध उगाही का सिस्टम बनाया था। वह आगे चलकर #CBI के डायरेक्टर बन गए।
  • #UPA सरकार के आखिरी महीनों में, सीआरबी थे अरुणेन्द्र कुमार, हाँ, ऊपर मैं इन्हीं साहब की बात कर रहा था, जिनकी पियक्कड़ और बिगड़ैल पत्नी के शराब के शौक के चलते पूरा सिस्टम भयाक्रांत था और #CBI डायरेक्टर थे रंजीत सिन्हा। रेलवे बोर्ड विजिलेंस अरुणेन्द्र कुमार के मातहत था, और सीबीआई के डायरेक्टर रंजीत सिन्हा बन गए, इस कॉम्बिनेशन ने बहुत सारे रेल अधिकारियों को डरा दिया था, और उन्होंने इसका परिणाम भी भुगता।
  • 1 मई 2014 को, UPA सरकार के आखिरी हफ्तों में हम भी अपनी बेबाक पत्रकारिता के कारण रंजीत सिन्हा और अरुणेन्द्र कुमार के इस भ्रष्ट कॉम्बिनेशन का शिकार हुए, क्योंकि हमने इन दोनों की ही भ्रष्टता को लगातार उजागर किया था। अतः 1 मई 2014 को हमारे घर पर और ऑफिस में अचानक CBI की टीम पहुँचती है और चालू होता है हमारा उत्पीड़न एवं हमें प्रताड़ित करने का एक लंबा दौर।
  • दो साल बाद चार्जशीट दाखिल होती है और दो साल में कोर्ट उसे खारिज करके हमें ससम्मान बरी कर देता है।
  • 27 मई 2024 को सीबीआई का ये भयंकर प्रताड़ना भरा एपिसोड अंततः पूरे दस साल बाद तब समाप्त होता है जब सीज किए गए हमारे सारे सामान को सीबीआई हेड क्वार्टर, दिल्ली से रिलीज किया गया।

हम रेल रिफार्म के पक्षधर हैं, लेकिन…👇

ये सब मैं आपको क्यों बता रहा हूँ? यह इसलिए कि-

अरुणेन्द्र कुमार, सपत्नीक जब रेल पर, रेल अधिकारियों पर कहर ढ़ा रहे थे, तो पूरी व्यवस्था चुप बैठी थी। मोदी जी ने इसे बहुत सुंदरता से 2014 में चुनाव से पहले यह कहकर डिस्क्राइब किया था – “मेरा क्या, मुझे क्या!”

26 मई 2014 को एनडीए की नई सरकार तो आ जाती है, लेकिन जिस तिकड़म से अरुणेन्द्र कुमार आए, सीआरबी बने, और व्यवस्था के कुएँ में जहर घोल गए, वही सिस्टम आज भी रेल में चल रहा है, बस मंत्री बदलते गए।

पिछले दस सालों में रेल के “खान मार्केट गैंग” अर्थात् (#KMG) के सामने सभी मंत्री फेल ही रहे। वन्दे भारत की पूरी टीम को विजिलेंस केस में फँसाकर उलझा दिया गया, जो अधिकारी बाद में चेयरमैन, रेलवे बोर्ड बना, वह तो जनरल मैनेजर ही नहीं बन पाता। हमने जैसे रेल के खान मार्केट गैंग को चिन्हित किया, वैसे ही हमने विजिलेंस की धूर्त त्रिमूर्ति को भी चिन्हित किया।

वर्ष 2013 में जी-बिजनेस टीवी चैनल पर डायरेक्ट टेलीकॉस्ट हो रही बहस में हमने कहा था कि “रंजीत सिन्हा जैसे भ्रष्ट अफसर को यदि सीबीआई जैसी प्रतिष्ठित केंद्रीय जाँच एजेंसी के डायरेक्टर पद पर लाएँगे, तो क्या सिस्टम में उम्मीद बचेगी!” कालांतर में जब सुप्रीम कोर्ट ने रंजीत सिन्हा पर “पिंजरे का तोता” कहकर नकेल कसी, तो लोगों को समझ में आया कि कुछ लोगों की चुप्पी व्यवस्था को कितनी महँगी पड़ती है।

यही रेल की विजिलेंस त्रिमूर्ति का हाल रहा। #RKJha को बेइज्जत होकर बाहर जाना पड़ा, लेकिन सिस्टम के “मीर जाफरों” ने उनका प्रमोशन होने दिया, और तो और रिटायरमेंट के बाद भी रेलवे के एक #PSU में उन्हें नौकरी भी दिला दी।

यही समर्थन #RKRai को भी मिला। वह भी रिटायरमेंट के बाद दूसरे साल भी एक रेलवे #PSU में नौकरी पर हैं। #AshokKumar लगातार चौथा विजिलेंस असाइनमेंट ले चुके हैं, वह भी रेलमंत्री की ही छत्रछाया में उनके ही मातहत रहे दूसरे मंत्रालय में! इन अधिकारियों के चलते सैकड़ों ईमानदार-निष्ठावान रेल अधिकारी बरसों प्रताड़ित हुए, लेकिन इनको मिलने वाला समर्थन उच्च स्तर से जारी रहा। और कथित “फादर ऑफ वंदेभारत” भी चुप रहकर अपनी भावी इमेज गढ़ने और सरकार से पद्मभूषण जैसा कोई पदक जुगाड़ने की ताक में सेल्फ पीआरशिप में लगे रहे।

हालाँकि रेलमंत्री ने विजिलेंस को चेताया था कि गलत केस न बनाए जाएँ, लेकिन यदि गलत केस बनाने वालों को उनका ही इतना बड़ा समर्थन मिला, तो क्यों उनकी बात पर विश्वास किया जाए?

जब रेल में ट्रांसफॉर्मेशन डायरेक्टोरेट उल्टे-सीधे और मूर्खतापूर्ण सुझाव दे रहा था, रेलवे स्टाफ कॉलेज अर्थात् नेशनल अकादमी ऑफ इंडियन रेलवे पर हमला हो रहा था, गैरकानूनी ढ़ंग से रेल के वरिष्ठ अधिकारियों की साइकोलॉजिकल प्रोफाइलिंग हो रही थी, उनका सारा डेटा बाहर विदेशी सर्वरों पर रखा जा रहा था, अफसरों के कैरियर खत्म हो रहे थे, तब रेल के सारे अधिकारी/कर्मचारी, फेडरेशन और एसोसिएशन चुप थे। हम रेल रिफार्म के पक्षधर हैं, लेकिन ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ, कर्मठ और योग्य अधिकारियों और कर्मचारियों की प्रताड़ना, उत्पीड़न और रेल की व्यवस्था में दीमक लगाने वालों का समर्थन तो कतई, किसी भी स्थिति में, नहीं कर सकते!