मध्य रेलवे: मैनपावर के दुरुपयोग का यूनिक उदाहरण

रेल का रत्ती भर भी काम किए बिना जब 15-20 सालों से औसतन ₹60-70 हजार प्रतिमाह लिया जाएगा वेतन, तब क्यों नहीं बैठेगी रेल की बधिया!

रेल प्रशासन की हवालदिल स्थिति रेलवे को गर्त में ले जा चुकी है। तमाम कोशिशों के बाद भी रेलवे में मानव संसाधन का दुरुपयोग नहीं रुक पाया है। अधिकारीगण, रेलवे का उपभोग अपनी व्यक्तिगत जागीर की तरह करने से बाज नहीं आ रहे हैं। इस कृत्य में केवल अधिकारी ही नहीं, रेल के सभी स्टेकहोल्डर भी समान रूप से भागीदार हैं। इसीलिए सरकार और रेल प्रशासन को रेल के मानव संसाधन का भारी भरकम बोझ कम करने के लिए तमाम सेवाओं को आउटसोर्स करना पड़ रहा है।

अब मानव संसाधन के दुरुपयोग का जो मामला सामने आया है, वह न केवल यूनिक है, बल्कि वास्तव में आश्चर्यजनक है। परेल वर्कशॉप, मध्य रेल के दो रेलकर्मी ऐसे हैं, जो वेतन-भत्ते और सारी सुविधाएं रेलवे से ले रहे हैं, मगर अपनी निर्धारित ड्यूटी छोड़कर यह दोनों पूरे दिन भायखला रेलवे हॉस्पिटल में रहकर कथित मानव सेवा की लाइजनिंग कर रहे हैं। इन्हें वहां इसके लिए किसने तैनात किया है, यह किसी को पता नहीं है।

परेल वर्कशॉप में काम करने वाले प्रेमराज कृष्णा अप्पू (पीएफ नंबर 00900981837) टेक्निशियन बताया गया है, और टी. वी. शशिंद्रन (पीएफ नंबर 00900986045) कार्यालय अधीक्षक-1 अर्थात ओएस-1 है। प्राप्त जानकारी के अनुसार यह दोनों प्रतिदिन सुबह 9:30 बजे से लेकर दोपहर बाद लगभग 3:30 बजे तक भायखला रेलवे अस्पताल में इस-उस डॉक्टर के पास घूमते देखे जाते हैं।

बिना नागा अस्पताल में उपस्थिति

बताते हैं कि इनको न तो रेलवे ने वहां नियुक्त किया है, और न ही ये दोनों किसी मान्यताप्राप्त संगठन द्वारा हॉस्पिटल केयर कमेटी के मेंबर के रूप में वहां नियुक्त किए गए हैं। इसके बावजूद भायखला अस्पताल में इनकी बिना नागा प्रतिदिन उपस्थिति दर्ज होती है।

जानकारों का कहना है कि हॉस्पिटल केयर कमेटी में नामित होने का अर्थ यह नहीं है कि संबंधित कर्मचारी की ड्यूटी अस्पताल में लगा दी गई है। वह केवल मीटिंग में शामिल हो सकता है और किसी कर्मचारी को इमरजेंसी में मेडिकल सहायता की आवश्यकता होने पर डॉक्टर से संपर्क करके उसकी हेल्प कर सकता है। जबकि उसे उसकी निर्धारित ड्यूटी करनी ही होती है। यही नियम सर्वसामान्य यूनियन पदाधिकारियों पर भी लागू होता है, मगर वास्तविक धरातल पर ऐसा होता नहीं है, और यह देखने वाला कोई इसलिए नहीं है, क्योंकि हमाम में सब नंगे हैं!

क्या है अतिरिक्त काम की वैकल्पिक व्यवस्था?

आश्चर्य की बात यह है कि परेल वर्कशॉप में फेस रिकॉग्निशन के साथ इलेक्ट्रॉनिक अटेंडेंस सिस्टम लगा होने के बावजूद यह दोनों कर्मचारी दिन भर भायखला अस्पताल में रहते हैं। इनके किसी इंचार्ज अथवा नियंत्रक अधिकारी को इनके बारे में कुछ पता नहीं है। ज्ञातव्य है कि वर्कशॉप में प्रत्येक कर्मचारी को प्रतिदिन का कार्य आवंटित किया जाता है। इनके नाम पर कौन सा कार्य आवंटित होता है? इसकी भी किसी को जानकारी नहीं है।

परेल वर्कशॉप साढ़े चार बजे बंद हो जाता है, प्रश्न यह है कि अगर दिन भर यह दोनों कर्मचारी वर्कशॉप से बाहर रहते हैं, तो इनका काम कौन करता है? इनके निर्धारित काम का बोझ किस पर डाला गया है? और क्यों डाला गया है? और अगर यह वर्कशॉप (रेलवे) का रत्ती भर भी काम नहीं करते रहे हैं, तो इन्हें वेतन किस काम के लिए दिया जाता रहा है? इन सब प्रश्नों का कोई उत्तर किसी अधिकारी के पास नहीं है।

बताते हैं कि पिछले 15-20 वर्षों से इन दोनों रेलकर्मियों को भायखला रेलवे अस्पताल में अनवरत रूप से देखा जाता रहा है। अस्पताल के सीसीटीवी फुटेज इस बात के साक्षी हैं। और इनको बिना काम किए इनका पूरा वेतन मिलते रहना निश्चित रूप से किसी और तरफ संकेत करता है।

ऐसा होता क्यों है?

ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि ये वर्कशॉप सहित मंडल और मुख्यालय के चुनिंदा अधिकारियों के व्यक्तिगत नौकर के रूप में ऐसे रेलकर्मियों को अस्पताल में नियुक्त किया जाता है। फिर किसी अधिकारी या उनके पारिवारिक सदस्यों को किसी डॉक्टर को दिखाना है, या उनको घर बैठे ही अपने लिए, अपने मातहतों या अपने रिश्तेदारों के लिए रेलवे से फोकट में दवाएं चाहिए, अथवा बाहर के किसी प्राइवेट अस्पताल या डॉक्टर द्वारा लिखी गई ऐसी दवाएं, जो कि अक्सर रेलवे में उपलब्ध नहीं रहती हैं, को लोकल परचेज (एलपी) करके यानि बाजार से खरीद कर लाना हो, झूठी/बोगस सिक लगाना हो, इस तरह की सारी ‘सेवाएं’ ऐसे चापलूस और कामचोर रेलकर्मियों के माध्यम से उन्हें उपलब्ध कराई जाती हैं।

यहां यह भी ध्यान देने वाली बात है कि जब यही अधिकारी रिटायर हो जाते हैं, तो यही कर्मचारी उनका फोन तक अटेंड नहीं करते, और अगर अस्पताल में वह अधिकारी सामने पड़ जाते हैं, तो उनकी सहायता करना तो दूर, उनकी तरफ देखते तक नहीं हैं। हालांकि रेलकर्मी इसे उनके साथ एक अच्छा सलूक कहते हैं, जिससे रिटायरमेंट के बाद उनको अपनी असलियत का पता चलता है। वह यह भी बताते हैं कि ये दोनों अन्य रेलकर्मियों की सहायता भी करते हैं, मगर इसके लिए ये उनसे अपना पारिश्रमिक भी वसूल करते हैं!

अस्पताल प्रशासन का खुला सहयोग

जानकारों का कहना है कि उपरोक्त सभी कार्यों में इन दोनों रेलकर्मियों को भायखला अस्पताल की एमडी डॉ मीरा अरोरा तथा प्रशासनिक अधिकारी डॉ मंगला का खुला सहयोग रहता है। इनका अधिकांश समय डॉ मंगला के चेंबर में ही बीतता है। यह तथ्य अगर रेल प्रशासन को गलत लगते हैं, तो अस्पताल में लगे सीसीटीवी से इन दोनों कर्मियों की भायखला अस्पताल में दैनिक उपस्थिति तथा डॉ मंगला के केबिन में कितनी देर तक ये दोनों बैठकर अपना टाइम पास करते हैं, यह स्पष्ट हो जाएगा।

इस तरह के कृत्यों द्वारा रेल अधिकारी और डॉक्टर ऐसे बिचौलियों के माध्यम से एक तरफ रेलवे अस्पताल को खोखला कर रहे हैं, रेलवे की मेडिकल सेवा को बदनाम करके रखा है, तो दूसरी तरफ ऐसे रेलकर्मी रेल का बिना ढ़ेले भर का कोई काम किए मुफ्त का वेतन लेकर रेलवे को भारी चूना लगा रहे हैं। जबकि इनके हिस्से के काम का बोझ अन्य कर्मचारियों पर डालकर उन्हें अकारण प्रताड़ित किया जा रहा है।

क्यों होती है ऐसे लोगों की अनदेखी?

उपरोक्त प्रकार के कार्यों को ऐसे ही चापलूस और कामचोर रेलकर्मियों द्वारा अंजाम दिया जाता है। पूर्व में कई लोग इस संबंध में लिखित या मौखिक रूप से इन दोनों रेलकर्मियों की शिकायत भी कर चुके हैं। परंतु अधिकारियों के व्यक्तिगत स्वार्थ के चलते उसको अनदेखा कर दिया जाता है। यहां उल्लेखनीय बात यह है कि ईमानदारी के रखवाले पूर्व एसडीजीएम खुद इन दोनों कामचोर रेलकर्मियों के सुरक्षा रक्षक बनकर कार्य कर रहे थे। बताते हैं कि विजिलेंस में शिकायत होने के बावजूद पूर्व एसडीजीएम द्वारा उस शिकायत को कचरे के डिब्बे में डाल दिया गया।

जब स्वयं विजिलेंस का मुखिया ही चोरों अथवा कामचोरों का रक्षक बना हो, तब किसी विजिलेंस अधिकारी या इंस्पेक्टर की क्या मजाल हो सकती है कि वह ऐसी चोरियों का पर्दाफाश कर सके! शायद यही कारण है कि भायखला अस्पताल में तमाम अनियमितताओं और फंड की अफरातफरी के बाद भी यहां की एमडी गर्व से मध्य रेलवे की पीसीएमडी बनने का दावेदार हैं, क्योंकि खबर यह भी है कि हर प्रकार की ‘घर-पहुंच सेवा’ उपलब्ध कराई जा रही थी, इसलिए पूर्व एसडीजीएम/सीवीओ/म.रे. ने एमडी/भायखला के विरुद्ध किसी भी प्रकार की विजिलेंस जांच पर रोक लगाई हुई थी?

एलपी से ब्रांडेड दवाईयों की आपूर्ति

जहां आम मरीज तेज बुखार या अपनी बहुत विषम परिस्थिति के बावजूद घंटों लाइन में लगकर डॉक्टर के पास पहुंचता है फिर भी उसको अपनी बीमारी से संबंधित उचित और पर्याप्त दवाएं नहीं मिल पाती हैं। अधिकांशतः रेल अस्पतालों में सप्लायरों द्वारा वही दवाएं सप्लाई की जाती हैं जिनकी एक्सपायरी डेट निकट होती है। मार्केट के तमाम मेडिकल स्टोर्स से वापस होने वाली दवाओं के सबसे बड़े खरीदार रेलवे अस्पताल हैं, अब यह सर्वज्ञात है।

रेल अधिकारी और उनके परिजन या उनके सगे संबंधियों को बाजार से महंगी से महंगी ब्रांडेड दवाएं, जो बड़े-बड़े प्राइवेट अस्पतालों के डॉक्टरों द्वारा लिखी जाती हैं, वह भायखला अस्पताल द्वारा धड़ल्ले से खरीदकर दी जाती हैं। हमारे संज्ञान में यह भी लाया गया है कि ऑफिसर वार्ड में भर्ती अफसरों को अस्पताल में उपलब्ध अधिकांश दवाएं न देकर अधिक से अधिक एलपी करके नामचीन कंपनियों की ब्रांडेड दवाएं ही दी जाती हैं। हालांकि इसकी अधिकृत पुष्टि करने को कोई तैयार नहीं है।

रेल की कीमत पर कथित मानव सेवा!

परेल वर्कशॉप के वरिष्ठ कर्मचारियों, अधिकारियों के साथ ही यूनियन पदाधिकारियों से भी उपरोक्त विषय के पूरे परिप्रेक्ष्य में चर्चा की गई। इन सब ने निष्पक्ष भाव से यह तो माना कि यह गलत है, तथापि उनका कहना था कि यह व्यवस्था लोगों की सहायता के लिए है। इस पर जब उनसे यह कहा गया कि इससे रेलवे को क्या लाभ है, रेल से वेतन और सुविधाएं पूरी ली जा रही हैं, जबकि इस कथित सहायता का रेल कार्य से कोई संबंध नहीं है, यह कार्य और इसका श्रेय व्यक्तिगत प्रकृति का है, अगर ऐसा ही करना है, तो या तो रेलवे द्वारा उचित प्रक्रिया के तहत नियुक्ति की जाए, या फिर संबंधित कर्मचारी को यूनियन के खाते में प्रतिनियुक्ति पर दिया जाए अथवा, मानव सेवा का यह बड़ा शौक वीआरएस लेकर पूरा किया जाना चाहिए, रेल के खाते में बिना किसी काम का वेतन लेना कैसे मान्य हो सकता है? इस पर किसी की कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली।

मैनपावर दुरुपयोग और बादशाहत का गुमान

मैनपावर के दुरुपयोग और प्रताड़ना का यह अकेला मामला नहीं है। ऐसे सैकड़ों उदाहरण रेल में भरे पड़े हैं। इंस्पेक्टर या सुपरवाइजर के बिना एक तरफ तो कोई अधिकारी अपने चेंबर से बाहर कदम नहीं रखता। दूसरी तरफ सुपरवाइजर को आगे-पीछे लेकर चलने में इन्हें अपनी बादशाहत का गुमान होता है। यही नहीं, सीएलआई, एसएसई जैसे अति आवश्यक ड्यूटी वाले सीनियर सुपरवाइजरों को भी यह अपनी गुलामी में लगाए रखते हैं। आश्चर्य तब होता है जब जूनियर स्केल में दो-चार महीने पहले ज्वाइन करने वाला छुटभैया अधिकारी भी उक्त सीनियर सुपरवाइजरों के बिना एक कदम नहीं चल पाता।

रेलवे में मैनपावर का दुरुपयोग रेल प्रशासन की तमाम कोशिशों के बाद भी रुक नहीं रहा है। इसके लिए अब एक ही उपाय बचता है कि कार्यालयीन और फील्ड के तमाम कार्यों को आउटसोर्स करके अधिकारियों की संख्या भी आधी या आधे से कम कर दी जाए। इससे रोजगार कम नहीं होगा, बल्कि अधिक हो जाएगा।

बहरहाल, ऐसे कामचोर और निकम्मे रेलकर्मी, जो रेलवे से प्रतिमाह बिना कोई काम किए एक मोटा वेतन ले रहे हैं, ऐसे अधिकारी जो मैनपावर का दुरुपयोग कर रहे हैं, की तत्काल प्रभाव से रेलवे बोर्ड विजिलेंस अथवा सीबीआई से जांच कराई जाए। इसके साथ, रेलवे के साथ धोखाधड़ी करने के आरोप में इनको अब तक रेलवे द्वारा भुगतान किया गया संपूर्ण वेतन इन्हें शह देने वाले संबंधित अधिकारियों के पेमेंट से वसूल किया जाए, तथा तत्काल प्रभाव से निलंबित करके इन सबके विरुद्ध कठोर अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाए।

प्रस्तुति: सुरेश त्रिपाठी

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