जहां ज्वाइन करते हैं, वहीं से होते हैं रिटायर

वर्तमान रेलमंत्री और सीआरबी वर्षों से बिगड़ी रेल व्यवस्था को सुधारने के लिए अथक परिश्रम कर रहे हैं, यह मान्य है, परंतु उनका यह अथक परिश्रम तब परिणामदाई साबित होगा जब वह अधिकारियों एवं कर्मचारियों दोनों पर निर्धारित पीरियोडिक ट्रांसफर पॉलिसी का कड़ाई से अमल सुनिश्चित करेंगे!

उत्तर रेलवे, भारतीय रेल में सबसे बड़ी जोनल रेलवे है। इसका मुख्यालय बड़ौदा हाउस, नई दिल्ली में है, जबकि इसका कार्यक्षेत्र उत्तर प्रदेश, हरियाणा, केंद्र शासित चंडीगढ़, पंजाब, हिमाचल, जम्मू और कश्मीर तक फैला हुआ है।

परंतु उत्तर रेलवे की एक खास बात यह है कि यहां स्टाफ अर्थात रेलकर्मियों की पीरियोडिकल ट्रांसफर पॉलिसी पर कभी अमल नहीं किया जाता है।

अब उदाहरण के लिए टिकट चेकिंग स्टाफ को ही ले लें। यह टिकट चेकिंग स्टाफ शुरू में उत्तर रेलवे के जिस स्टेशन पर ज्वाइन करता है, वह पूरे सेवाकाल में वहीं पदस्थ रहता है और अंत में निश्चित रूप से उसी स्टेशन से रिटायर होता है।

जबकि रेलवे बोर्ड की पीरियोडिक ट्रांसफर पॉलिसी के नियमानुसार, और केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) तथा रेलवे के सतर्कता संगठन (विजिलेंस ऑर्गनाइजेशन) के निर्देशानुसार प्रत्येक चार साल में उसका मुख्यालय बदला जाना आवश्यक है, क्योंकि टिकट चेकिंग के सभी पद अति संवेदनशील श्रेणी में रखे गए हैं। यही स्थिति कमर्शियल विभाग के सभी पदों पर लागू होती है।

मंडल स्तर पर होती है कर्मियों की वरिष्ठता

उल्लेखनीय है कि सभी जोनल रेलों के सभी मंडलों में टिकट चेकिंग स्टाफ के सामान्यतः चार-पांच मुख्यालय होते हैं। चूंकि तृतीय श्रेणी के कर्मचारियों की वरिष्ठता (सीनियरिटी) मंडल स्तर पर ही होने का नियम है, इसलिए जब तक कोई बहुत खास या गंभीर किस्म का अपराध न हुआ हो, अथवा जब तक विजिलेंस द्वारा सिफारिश न की गई हो, तब तक किसी तृतीय श्रेणी के कर्मचारी का ट्रांसफर किसी दूसरे मंडल में (इंटर डिवीजन) नहीं किया जाता है।

परंतु मंडल स्तर पर जो चार-पांच मुख्यालय होते हैं, उनमें एक से दूसरे मुख्यालय में पीरियोडिकल ट्रांसफर पॉलिसी के अनुसार उनका ट्रांसफर किया जाना अनिवार्य है। तथापि कहीं भी किसी भी डिवीजन में ऐसा नहीं किया जा रहा है। कर्मचारियों और अधिकारियों में भ्रष्टाचार एवं कदाचार का यही सबसे बड़ा कारण है।

अब जहां तक उत्तर रेलवे की बात है, तो इसमें – दिल्ली, मुरादाबाद, अंबाला, लखनऊ और फिरोजपुर – कुल पांच डिवीजन हैं। इन डिवीजनों में टिकट चेकिंग स्टाफ के चार से लेकर आठ मुख्यालय हैं, जो कि इस प्रकार है –

1. दिल्ली मंडल: नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली, मथुरा जंक्शन और हजरत निजामुद्दीन स्टेशन, कुल चार मुख्यालय।

2. मुरादाबाद मंडल: मुरादाबाद, शाहजहांपुर, बरेली, चंदौसी, नजीबाबाद, हरिद्वार, देहरादून और हापुड़, कुल आठ मुख्यालय।

3. अंबाला मंडल: अंबाला, सहारनपुर, चंडीगढ़ एवं भटिंडा जंक्शन, कुल चार मुख्यालय।

4. लखनऊ मंडल: चारबाग लखनऊ, वाराणसी, अयोध्या, रायबरेली, शाहगंज जंक्शन, सुल्तानपुर, और प्रयाग, कुल सात मुख्यालय।

5. फिरोजपुर मंडल: लुधियाना, जम्मू तवी, अमृतसर, फिरोजपुर, जालंधर सिटी और पठानकोट, कुल छह मुख्यालय।

उत्तर रेलवे के पांचों मंडलों में टिकट चेकिंग स्टाफ के उपरोक्त मुख्यालयों (हेडक्वार्टर्स) को स्थापित किए जाने का अर्थ यही है कि प्रत्येक चार साल की निर्धारित अवधि में चेकिंग कर्मियों सहित वाणिज्य विभाग के सभी कर्मचारियों के पीरियोडिक ट्रांसफर (आवधिक स्थानांतरण) होते रहेंगे, तो उनमें भ्रष्टाचार या अन्य किसी प्रकार के कदाचार का घुन नहीं लगने पाएगा। सभी मंडलों में कर्मचारियों के ऐसे चार-पांच मुख्यालय या डिपो बनाए जाने के पीछे यही उद्देश्य निहित है।

पॉलिसी पर अमल नहीं, बन गए गहरे संपर्क

परंतु लगभग 20-25-30 सालों से आवधिक स्थानांतरण नीति (पीरियोडिकल ट्रांसफर पॉलिसी) पर कड़ाई से अमल नहीं किए जाने से न केवल टिकट चेकिंग स्टाफ में, बल्कि पूरे रेल सिस्टम में बुरी तरह दीमक लग चुका है। पूरे सिस्टम में गंभीर सड़न पैदा हो गई है। और यह केवल टिकट चेकिंग स्टाफ में ही नहीं, बल्कि तृतीय श्रेणी के सभी कैडर्स का भी यही हाल है, क्योंकि लंबे समय से एक ही जगह टिके रहने से इनके स्थानीय रेल माफियाओं के साथ गहरा नेटवर्क जुड़ गया है। लंबे समय से एक ही जगह टिके सुविधाभोगी अधिकारियों पर तो यह तथ्य और ज्यादा गहराई से लागू होता है।

इसके साथ ही यह सड़न और सड़ांध केवल उत्तर रेलवे में ही नहीं है, बल्कि सभी रेलों के जोनल एवं डिवीजनल मुख्यालयों में भी उठ रही है। परंतु रेल व्यवस्था का दुर्भाग्य यह है कि यहां हर डिवीजन के ब्रांच अफसर (बीओ), मुख्यालय के विभाग प्रमुखों (एचओडी/पीएचओडी) के अपने-अपने मंतव्य हैं, अपने-अपने निहित उद्देश्य हैं, और अपने-अपने निजी स्वार्थ भी हैं, जिसके कारण लगभग हर अधिकारी दो-चार चापलूस कर्मचारियों को अपना बगलबच्चा, अपना बिचौलिया, अथवा अपना खास बनाकर रखता है।

क्या होता है “एडमिनिस्ट्रेटिव इंटरेस्ट”

इसके अलावा इनके पास “एडमिनिस्ट्रेटिव इंटरेस्ट” का जो खास हथियार (अधिकार) होता है, उसके चलते ये मंडल या मुख्यालय में अपने खास चहेतों को इसका भरपूर लाभ पहुंचाते हैं। हालांकि इसका अर्थ पूछे जाने पर बगलें झांकने लगते हैं, या फिर अपनी असलियत पर उतर आते हैं। हालांकि यह सही है कि अधिकांश अधिकारी, कुछेक अपवादों को छोड़कर, रेल की भलाई के बारे में भी सोचते हैं। परंतु लंबे समय से एक जगह टिके रहने वाली यह कुव्यवस्था चल रही है, जिसका परिणाम पूरे रेल सिस्टम की वर्तमान दुर्वस्था और सड़न के रूप में सामने है।

अधिकारियों पर लागू हों ‘इक्वल कंडीशंस’!

और ऐसा भी नहीं है कि रेल की यह दुर्वस्था केवल तृतीय श्रेणी कर्मचारियों के कारण ही हुई है। इसका मूल कारण अधिकारी ही हैं, जो इसके लिए वास्तव में उत्तरदाई तो हैं ही, मगर ग्रुप ‘ए’ और ग्रुप ‘बी’ अर्थात डायरेक्ट एवं प्रमोटी, यानि सीधी भर्ती और विभागीय पदोन्नति से बने अधिकारियों का भी यही हाल है। वह भी बीसों-पचीसों साल से एक ही जगह, एक ही शहर, एक ही रेलवे में जमे हुए हैं। जब प्रमोटी “इक्वल वर्क – इक्वल पे” की बात या मांग करते हैं, तब ये जिस दिन से अधिकारी बनते हैं, उसी दिन से इन पर भी “इक्वल कंडीशंस” लागू होनी चाहिए।

ग्रुप ‘ए’ मिलने पर भी नियम लागू नहीं!

सीधी भर्ती ग्रुप ‘ए’ अधिकारियों – कुछेक बेशर्मों को छोड़कर – को तो कमोबेश फिर भी इधर-उधर दरबदर किया जाता रहता है, मगर ज्यादातर पैसा खर्च करके विभागीय पदोन्नति से ग्रुप ‘बी’ बनने वाले अधिकारी, यहां तक कि ग्रुप ‘ए’ मिलने के बाद भी, जिस मंडल में तृतीय श्रेणी में रेल सेवा ज्वाइन करते हैं, उसी मंडल/मुख्यालय से रिटायर होते हैं।

ग्रुप ‘बी’ का “लेकुना” यह है कि इनकी वरिष्ठता सूची (सीनियरिटी लिस्ट) जोनल स्तर पर रखी गई है। यहां तक तो ठीक है, परंतु ग्रुप’ए’ मिलने के बाद मंडल या जोन स्तरीय वरिष्ठता का क्या औचित्य रह जाता है? यह जिस डिवीजन में रहते हुए ग्रुप ‘बी’ में पदोन्नत होकर कथित रूप से अधिकारी बनते हैं, वहीं उसी डिवीजन में न केवल प्रारंभिक रूप से बतौर अधिकारी पदस्थ होते हैं, बल्कि अगली श्रेणी (सीनियर स्केल, जेएजी) में पदोन्नति भी उसी डिवीजन में इन्हें मिल जाती है, जबकि नियमानुसार पदोन्नति पर एक सामान्य कर्मचारी को भी अन्यत्र भेजा जाता है।

नियम और परंपरा के अनुसार अभी दस साल पहले तक जिस डिवीजन में ग्रुप ‘बी’ में पदोन्नति मिलती थी, उस डिवीजन के बजाय किसी दूसरे डिवीजन में पदोन्नत अधिकारी को भेजा जाता रहा है। अब उस नियम और परंपरा को भी ताक पर रख दिया गया है। जबकि ग्रुप ‘ए’ मिलने के बाद ऐसे सभी अधिकारी अखिल भारतीय स्तर पर ट्रांसफरेबल हो जाते हैं, मगर ग्रुप ‘बी’ से ग्रुप ‘ए’ में आने वाले अधिकारियों पर यह नियम आज तक लागू करने में रेल प्रशासन पूरी तरह विफल रहा है। इसका दुष्परिणाम सबके सामने है।

वर्तमान रेलमंत्री अश्वनी वैष्णव और चेयरमैन सीईओ रेलवे बोर्ड विनय कुमार त्रिपाठी वर्षों से बिगड़ी हुई इस रेल व्यवस्था को सुधारने के लिए अथक परिश्रम कर रहे हैं, यह सही है, परंतु उनका यह अथक परिश्रम तब परिणामदाई साबित होगा जब वह सबसे पहले अधिकारियों एवं कर्मचारियों दोनों पर रेलवे बोर्ड द्वारा निर्धारित पीरियोडिकल ट्रांसफर पॉलिसी का कड़ाई से अमल सुनिश्चित करवाएंगे!

प्रस्तुति: सुरेश त्रिपाठी