कहां जाता है रेल आवासों के मेंटेनेंस का बजट!

आखिर रेल आवासों के मेंटेनेंस का बजट जाता कहां है? क्या सचमुच डीआरएम/जीएम को इसकी कोई सुधि नहीं रहती? इस बारे में डीआरएम, जीएम, बोर्ड मेंबर्स, सीआरबी और रेलमंत्री को गंभीरता से विचार करना चाहिए!

“बजट नहीं है!” यह टका सा जवाब लगभग हरेक रेल अधिकारी और कर्मचारी को अपनी सर्विस के दौरान कभी न कभी अपने एरिया के आईओडब्ल्यू अर्थात एसएसई/वर्क्स से, या किसी न किसी सिविल इंजीनियरिंग अधिकारी से अवश्य सुनने को मिलता है। आईओडब्ल्यू और सिविल इंजीनियरिंग अफसरों का यह टका सा जवाब तब होता है जब इंजीनियरिंग से इतर अन्य किसी विभाग का अधिकारी या कर्मचारी अपने आवास में कोई मरम्मत करने को कहता है!

परंतु यही इंजीनियरिंग अफसर आवास बदलने पर, या हर 6-8 महीने में अपने रहते आवासों में कोई न कोई रिनोवेशन वर्क कैसे करवाते हैं? तब बजट कहां से आता है? इसका जवाब वह नहीं दे पाते हैं, या देना नहीं चाहते हैं, क्योंकि तब उनकी पोल खुल जाने का उन्हें भय रहता है।

‘एन’ ब्लाक, बधवार पार्क

यही हुआ है मुंबई स्थित रेल अधिकारियों की सबसे पॉश कॉलोनी “बधवार पार्क” में। यहां ‘एन’ ब्लाक की बिल्डिंग में एक बड़े इंजीनियरिंग अधिकारी के आवास में पिछले लगभग दो-तीन महीने रेनोवेशन का काम चला। सुबह से देर शाम तक होने वाली ठाक-ठूक से पूरी बिल्डिंग के अन्य रहिवासी अधिकारियों के पत्नी-बच्चे और बुजुर्ग परेशान होते रहे। उनकी नींद हराम होती रही। बच्चों की पढ़ाई डिस्टर्ब होती रही। परंतु काम चलता रहा, क्योंकि बड़े साहब हैं, तो शिकायत करने या कुछ कहने की भी किसी की मजाल नहीं हुई।

बहरहाल, उसी बिल्डिंग में अन्य विभागों के भी कई अधिकारी रहते हैं, जिनके आवासों में कई चीजें महीनों से खराब हैं। किसी की दीवारों का प्लास्टर उधड़ गया है। किसी की दीवारों में सीलन है। किसी की छत और दीवारों से सस्ता वाला कलर और डिस्टेंपर झड़ रहा है। किसी के दरवाजे/खिड़कियां खराब हो गई हैं। उनके परखच्चे उधड़ रहे हैं। किसी के दरवाजे और खिड़कियां बंद नहीं होते हैं। किसी के ताले-लैच खराब हो गए हैं, तो किसी के बाथरूम और वॉशबेसिन के नल टपक रहे हैं। किसी के आवास का रंग-रोगन हुए सालों बीत गए हैं। पर इन सबके के लिए आईओडब्ल्यू को जब वह बोलते हैं, तो उनका वही “बजट नहीं है” का टका सा रटा-रटाया जवाब होता है। मुख्यालय एवं मंडल के संबंधित इंजीनियरिंग अधिकारियों को जब कहते हैं, तब उनका भी घुमा-फिराकर लगभग यही जवाब होता है।

इसके विपरित, उसी बिल्डिंग में रहने वाले सिविल इंजीनियरिंग अफसरों के आवास एकदम चकाचक हैं। हर 8-10 महीनों में उनके आवासों में कुछ न कुछ काम होता रहता है। उनके आवासों में बढ़िया किस्म की वॉल पुट्टी के साथ दीवारों पर बढ़िया वाला वॉलपेपर भी लगा हुआ है। महंगे वाले कलर और डिस्टेंपर से आवास की सारी दीवारें चमक रही हैं। ड्राइंग रूम महंगे कुर्सी-टेबल, सोफा सेट सहित अन्य बहुत सी महंगी चीजों से सजा हुआ है। मेम साहब के पास हजारों की महंगी साड़ियां, महंगी ज्वैलरी, महंगे ड्रेस मेटीरियल्स हैं। बच्चे महंगे कपड़े पहनते हैं, महंगे स्कूलों में पढ़ने जाते हैं। महंगे-महंगे होटलों में दो-चार दिन में या हर हफ्ते पार्टियां होती हैं। जबकि वहीं पड़ोस में रहने वाले अन्य विभागों के अफसरों और उनके परिजनों को मामूली रिपेयरिंग वर्क के लिए आईओडब्ल्यू महोदय और इंजीनियरिंग अफसरों की चिरौरी-विनती करनी पड़ती है।

कहां से आता है बजट अपने आवासों के लिए!

प्रश्न यह उठता है कि अगर सिविल इंजीनियरिंग से इतर अन्य विभागों के अधिकारियों/कर्मचारियों के आवासों के मेंटेनेंस के लिए बजट नहीं होता है, तो सिविल इंजीनियरिंग विभाग के अधिकारी अपने आवासों का असमय मेंटेनेंस करने अथवा चमकाने के लिए बजट कहां से ले आते हैं? जानकारों का कहना है कि सीनियर डीईएन स्तर के अधिकारी द्वारा आवास बदलने पर सामान्य तौर पर एक बार में 6 से 8 लाख रुपये तक खर्च किया जाता है। उनका कहना है कि विभागीय बजट का अधिकांश भाग इंजीनियरिंग अफसरों द्वारा अपने विभागीय अधिकारियों के आवासों पर ही खर्च किया जाता है। यह बात सही है।

उत्तर रेलवे, दिल्ली की एक ऑफिसर्स कॉलोनी में एक एसएजी/जॉइंट सेक्रेटरी लेवल के अधिकारी के आवास की छत और दीवार का नजारा!
एसएजी स्तर के अधिकारी पति-पत्नी दोनों मिलकर इस झोपड़ी के लिए अपने वेतन से हर महीने ₹65 हजार एचआरए कटवाते हैं!

इसके अलावा, जानकारों का यह भी कहना है कि बीच में जो काम सिविल इंजीनियरिंग अफसरों द्वारा अपने आवासों में करवाया जाता है, उसका खर्च भी लगभग उतना ही होता है। उनका कहना है कि यह खर्च या तो किसी टेंडर वर्क में समायोजित किया जाता है, या फिर कांट्रेक्टर से पहले उसके खर्च पर कराया जाता है, और बाद में बिलिंग में कोई फर्जी अतिरिक्त कार्य कराने की एवज में समायोजित होता है। इस तरह सिविल इंजीनियरिंग विभाग के दोनों हाथों में लड्डू होते हैं और इसी तड़क-भड़क के कारण वह सोसायटी में भ्रष्ट होने के तौर पर पब्लिकली एक्सपोज अर्थात बदनाम होते हैं। हालांकि इसमें कुछ अपवाद भी होते हैं, मगर वह केवल उंगलियों पर गिनती के ही होते हैं।

फिजूलखर्ची से रेल का बढ़ता घाटा

सिविल इंजीनियरिंग विभाग से इतर एक विभाग के वरिष्ठ अधिकारी का कहना है कि “भारतीय रेल का घाटा इनके आवासों की मरम्मत और फिजूलखर्ची से होता है।” जबकि वहीं एक अन्य विभाग के वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं कि “एक निश्चित सालाना बजट के आधार पर रेलवे के सभी आवासों का मेंटेनेंस वर्क सीपीडब्ल्यूडी या पीडब्ल्यूडी को सौंप दिया जाना चाहिए।” इसके साथ ही उनका यह भी कहना है कि सभी आईओडब्ल्यू, एईडीईएन/वर्क्स, डीईएन/सीनियर डीईएन/इस्टेट आदि ‘क्रिएचर्स’ को ओपन लाइन वर्किंग में शिफ्ट कर दिया जाए, तभी शायद कुछ सुधार संभव हो सकता है।

“विभागवाद” की जड़

रेलमंत्री एक बार रेल के अपने सिविल इंजीनियर्स के और इनके सुपरवाइजरों के आवासों का औचक निरीक्षण कर लें और एकाउंट्स, आरपीएफ के अधिकारियों को छोड़कर रेल के किसी भी विभाग के अधिकारियों या कर्मचारियों के आवासों का तुलनात्मक निरीक्षण कर लें तो रेल में “विभागवाद” की कहानी कहां से शुरू होती है, इसकी जड़ पता अपने आप उन्हें चल जाएगा।

जीएम/डीआरएम को देखने की फुर्सत नहीं!

कायदे से किसी भी जीएम और डीआरएम ने रेल के इस सबसे बड़े इस कोढ़ को आजतक “एड्रेस” ही नहीं किया है। इसीलिए कोई भी रेल कर्मचारी और अधिकारी इनमें न तो अपना गार्जियन देख पाता है, और न रेल के लिए कुछ करने के लिए उसके अंदर कोई जज्बा, कोई उत्साह ही बचा रहता है।

ऑफिस में या फील्ड में काम करते हुए भी लीक कर रही नलों की टोंटी, बदहाल दीवारें, छतों और दरवाजे आदि जैसी चीजें अधिकारियों और कर्मचारियों को परेशान किए रहती हैं, क्योंकि घर में हर दिन सुबह-शाम पत्नी उनको ठीक कराने का उलाहना देते हुए गुहार लगाती है। जबकि बगल के एसएसई साहब या सीनियर डीईएन साहब का आवास पीएम हाउस जैसा मेनटेन होता रहता है।

चिरौरी-विनती से खिन्न और कुंठित रेलकर्मी

इस स्थिति में रेल के बाकी विभागों के लोग भले ही शरीर से कार्यालय में या फील्ड में उपस्थित रहते हों, लेकिन उनका मन इंजीनियरिंग विभाग के लोगों से छोटे-छोटे काम के लिए भी की गई चिरौरी से इतना खिन्न और कुंठित हो जाता है कि उनका दिमाग काम में नहीं लगता, और फिर वह अपना बदला लेने अथवा चिढ़ या खीझ निकालने का उपाय भी खोजने लगता है, जिससे वह जैसे को तैसा सिखा पाए, या कम से कम अपना काम ही करा ले। आवास से लेकर ऑफिसर्स रेस्ट हाउस के आवंटन तक में यही खेल है।

अघोषित परंपरा

रेलवे के सिविल इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट में यह अघोषित परंपरा रही है कि किसी भी लेवल का अधिकारी हो, उसे अपने घर के छोटे से छोटे काम के लिए भी व्यक्तिगत आग्रह करने के बाद जब क्लीयरेंस दिया जाएगा तभी आईओडब्ल्यू महोदय काम करेंगे, अन्यथा तपस्या करनी पड़ेगी 20/25 बार। कई बार अब तो लोग इस जलालत से बचने के लिए अपने पैसे से ही अपना छोटा-मोटा काम करा लेते हैं।

हालांकि उन जगहों पर जहां मेंटेनेंस के लिए ऐप बनाया गया है, वहां तो फिलहाल मेंटेनेंस के छोटे-मोटे काम जल्द हो जा रहें हैं, लेकिन रंगाई-पुताई या अन्य कुछ बड़े कामों की वहां भी वही स्थिति है।

डीआरएम/जीएम वही देखते हैं, जो दिखाया जाता है!

डीआरएम/जीएम द्वारा अपने कार्यकाल में सबसे ज्यादा रेल कालोनियों और हॉस्पिटल्स, जो सबसे महत्वपूर्ण हैं, को ही सबसे ज्यादा नजरंदाज किया जाता है, क्योंकि अपने पद के चलते उन्हें तो ये डिपार्टमेंट सबसे बढ़िया ट्रीटमेंट देते हैं। इसलिए यह जानते हुए भी वे जानबूझकर इन दो जगहों पर झांकने भी नहीं जाते हैं। अगर जाते भी हैं, तो उन्हें सिविल इंजीनियर्स और डॉक्टरों द्वारा जो दिखाया जाता है, वही देखते हैं, और निरीक्षण की कथित खानापूरी करके, बल्कि शाबाशी देकर भी, वापस आ जाते हैं।

अंत में घूम-फिरकर फिर वही प्रश्न खड़ा होता है कि आखिर रेल आवासों के मेंटेनेंस का बजट जाता कहां है? क्या सचमुच डीआरएम और जीएम को इस सब की कोई सुधि नहीं रहती? अथवा वह सब सही है जो ऊपर नाम न उजागर करने की शर्त पर कुछ अधिकारियों ने बताया/कहा है? इस बारे में डीआरएम, जीएम, बोर्ड मेंबर्स, सीआरबी और रेलमंत्री को गंभीरता से विचार करना चाहिए।

क्रमशः – मुंबई मंडल, मध्य रेल: ₹1.86 करोड़ के सीटीआर वर्क में करीब ₹45 लाख का फोकट भुगतान!

प्रस्तुति: सुरेश त्रिपाठी