नासूर बन चुकी यूनियनों की बीमारी का सामना नहीं करना चाहता कोई अधिकारी

#Railwhispers में रेलवे से वेतन रेल का काम करने लिए दिया जाता है, या यूनियन का चंदा इकट्ठा करने के लिए? शीर्षक से 6 सितंबर 2021 को प्रकाशित खबर पर रेलवे से हाल ही में सेवानिवृत्त हुए एक प्रमुख मुख्य कार्मिक अधिकारी (पीसीपीओ) ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए लिखा –

“रेलवे में यूनियन पदाधिकारियों की कामचोरी की यह बीमारी नासूर बन चुकी है। इसका सामना रेल प्रबंधन करना ही नहीं चाहता है, क्योंकि जिन अफसरों के कैरियर अच्छे हैं, वह कोई डिफिकल्ट, अप्रिय निर्णय न लेना चाहते हैं, न लेने वाले को सपोर्ट करते हैं।”

“सामान्यतया डीआरएम, जीएम ऐसी कोई भी स्थिति का सामना करने से अवॉइड करते हैं। कईयों की उनकी अपनी भी कमजोरियां हैं। इसलिए सिस्टम का सुधार करने में कोई दिलचस्पी नहीं लेता है। केवल अपना कार्यकाल शांति से बिताना चाहते हैं। कोई पंगा नहीं लेते। तो स्थिति कहां तक सुधरे? और कैसे सुधरे?”

“यूनियनों की कमाई, स्टेटस इसी में है, वे इसे छोड़ना नहीं चाहती हैं। ज्यादातर वेल प्लेस्ड ऑफिसर अनिर्णयात्मक स्थिति बनाए रखते हैं, ताकि उनके कैरियर में कोई आंच न आए, क्योंकि कई ईमानदार निर्णय लेने वाले अधिकारी बुरी तरह फंसा भी दिए जाते हैं।”

रिटायर्ड पीसीपीओ का उपरोक्त कथन या निष्कर्ष बहुत सटीक है। उनका यह बयान रेल प्रशासन को अंतर्मुखी होकर इस पर विचार करने का संकेत देता है। तथापि रेलकर्मियों के बीच सर्वसामान्य मान्यता यही है कि यूनियन पदाधिकारियों की इस मनमानी, धौंसबाजी और निरंकुशता के लिए मुख्य रूप से कार्मिक विभाग अर्थात कार्मिक अधिकारी ही ज्यादा जिम्मेदार हैं। उन्होंने ही इसके लिए इन्हें बढ़ावा दिया है। फिर भी सुधार की गुंजाइश कभी खत्म नहीं होती, अभी भी समय है कि रेल प्रशासन इस पर गंभीरता से विचार करे और इन्हें सही रास्ते पर लाने के यथोचित उपाय करे!

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