पीसीई/द.म.रे का ‘फाइव स्टार चैंबर’ बना भारतीय रेल में चर्चा का विषय
इस प्रकार के अपव्यय और मनमानी रोकने के लिए रेलमंत्री/रेल प्रशासन उठाएं कड़े कदम
हाल ही में दक्षिण मध्य रेलवे के प्रिंसिपल चीफ इंजीनियर (पीसीई) के नए रेनोवेटेड फाइव स्टार चैंबर का एक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ है। इसे देखने के बाद यह किसी जिम्मेदार रेल अधिकारी का चैंबर कम किसी फाइव स्टार होटल का शानदार एंटी चैंबर वाला सूट ज्यादा नजर आता है। वीडियो को देखने भर से इस बात का अंदाजा हो जाता है कि इस चैंबर को बनाने में अवश्य करोड़ों रुपये खर्च हुए होंगे।
इससे कुछ दिन पहले मुंबई के बधवार पार्क में एक इंजीनियरिंग अधिकारी द्वारा ही अपने आवास को रेनोवेट करने में लगभग एक करोड़ रुपये खर्च किए जाने की “मुफ्त का चंदन घिस मेरे नंदन” शीर्षक खबर आई थी। हालांकि खबर के बाद भी उक्त आवास की फ्लोरिंग टाइल्स पुनः बदली गईं, जिनकी कीमत लगभग 28 लाख बताई गई थी। जहां 90% रेलकर्मियों और अधिकारियों के आवास जर्जर तथा अन्अटेंडेड हों, वहां कुछ अधिकारियों द्वारा रेल राजस्व का ऐसा अपव्यय बहुत से लोगों में चिढ़ पैदा करने वाला है।
वस्तुतः जोनल टेंडर से होने वाले इस तरह के सभी कार्यों का फायदा सिविल इंजीनियरिंग विभाग के अधिकारियों और कर्मचारियों द्वारा, यूनियन के आफिस बेयरर और कुछ अतिमहत्वपूर्ण पदों पर बैठे (सिविल इंजीनियर की नजर से) लोगों को ही मिलता है। वरना सिविल इंजीनियर को छोड़कर 99% रेलकर्मियों और अधिकारियों को अपने घर की टोटी ठीक करवाने में ही नाको चने चबाना पड़ता है।
आईओडब्ल्यू उर्फ (एसएसई/वर्क्स) को ट्रेनिंग ही ऐसी दी जाती है कि जब तक रेल का बड़ा से बड़ा अफसर भी सीनियर डीईएन से दसियों बार आग्रह न करे, गिड़गिड़ा न ले, तब तक उसका कोई काम नहीं हो सकता। रेलवे का पैसा, रेलवे का संसाधन, रेलवे का मकान, जिसको दुरुस्त रखने की जिस विभाग पर जिम्मेदारी है, और मजे की बात है कि उसके ऐवज में कमीशन यानि पर्सेंटेज अलग से मिलता हो, तो भी सिविल इंजीनियरिंग विभाग काम ऐसे करता है, जैसे एहसान कर रहा हो।
अधिकारी बताते हैं कि जो आईओडब्ल्यू अपने काम के प्रति ईमानदार और तत्परता से कंप्लेंट्स का निस्तारण करता है, वह एक दिन भी टिक नहीं पाता है, क्योंकि वह सिविल इंजीनियर्स की डिजाइन में फिट नहीं बैठता है।
बताते हैं कि एक बार इरिसेन (#IRICEN) पुणे में आईआरएसई प्रोबेशनर्स और उनके सीनियर्स के बीच यह घोर चिंता और चिंतन का विषय बना था कि “आजकल आईओडब्ल्यू काफी ‘आज्ञाकारी’ हो गए हैं, यानि कि वे दूसरे अधिकारियों की बात तुरंत सुन लेते हैं और उनकी कंप्लेंट्स भी तुरंत निस्तारित कर दे रहें हैं। इसे ठीक करना होगा।” बताते हैं कि रेलवे में विभागवाद (डिपार्टमेंटलिजम) की शुरुआत करने का श्रेय सिविल इंजीनियरिंग विभाग की इसी मानसिकता को जाता है।
वस्तुतः अगर जोनल टेंडर की प्रथा को खत्म कर सभी कर्मचारियों और अधिकारियों को हर तीन साल या पांच साल पर एक निश्चित राशि अपने रेल आवास की रंगाई-पुताई और रखरखाव आदि के लिए दे दी जाए, तो वे सब अपनी जरूरत के हिसाब से संतोषजनक काम भी करा लेंगे और सरकार का बहुत सा पैसा भी बच जाएगा।
दिल्ली में ही सीपीडब्ल्यूडी की कार्यशैली और रेलवे के इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट की कार्यशैली में जमीन-आसमान का अंतर है। मोतीबाग एरिया, जहां भारत सरकार के सचिव स्तर के बड़े-बड़े अधिकारी और न्यायपालिका के जजों के सरकारी आवास हैं, में यदि मानक में नहीं बैठता है, तो उनकी बात को भी अनसुना कर दिया जाता है। जबकि आवास में किसी प्रकार के बदलाव का तो सवाल ही पैदा नहीं होता।
प्रस्तुत है दिल्ली की तिलक ब्रिज रेलवे कालोनी का एक उदाहरण-
यहां दो साहब रहते हैं। एक हैं पीसीई/उ.रे. के सेक्रेटरी आशीष श्रीवास्तव, और दूसरे हैं महाकदाचारी पूर्व मेंबर ट्रैक्शन घनश्याम सिंह के ओएसडी रहे एस. पी. सिंह। इन दोनों साहबों ने अपने आवासों के बीच की वह खुली जगह जबरन हड़पकर और बाउंड्री डालकर अपना अलग गार्डेन बना लिया, जिसमें अब दूसरे बच्चों और अन्य किसी अधिकारी को जाने की इजाजत नहीं है।
इस खुली जगह में पहले कालोनी के सभी रहिवासी अधिकारियों के बच्चे खेलते थे और बाकी लोग भी उसका समान उपयोग करते थे। बताते हैं कि इस जगह पर कब्जा करवाने के लिए लालाजी और बाबू साहब के दोनों बड़े साहबों ने आईओडब्ल्यू को भरपूर संरक्षण और सहयोग दिया। यह बताते हैं कि इनके आवासों में अतिरिक्त कमरे, इटालियन टाइल्स, बॉथटब, बॉथ क्यूबिकल्स इत्यादि न जाने कितने ही महंगे सामान लगाए गए हैं। असल में यह पूरा प्रकरण ही वास्तव में जांच का विषय है।
हालत यह है कि रेलवे के हर बड़ा अधिकारी हर बार अपने आवास को रेनोवेट करवाता है, हर बार लाखों-करोड़ों खर्च करता है। यहां तक कि उनमें अपने मन-मुताबिक बदलाव भी करवाता है, और कोई रोकने-टोकने वाला नहीं है। ऐसे में यदि देखा जाए तो ऐसे एक-एक रेल अधिकारी आवास में अब तक सैकड़ों करोड़ रुपये खप गए होंगे। यदि ऐसे सभी अधिकारी आवासों का स्वतंत्र ऑडिट करवाया जाए, तो निश्चित रूप से इन आवासों की वास्तविक कीमत से कई गुना अधिक राशि अब तक इनके रेनोवेशन में खर्च हो चुकी होगी। रेलमंत्री और रेल प्रशासन को अपव्यय और मनमानी रोकने के लिए ऐसे मामलों का भी गंभीर संज्ञान लेना चाहिए!