फिर से एक अपील: भाषा के लिए सारे फरेब, आडंबर छोड़कर एकसाथ खड़े होना सीखें!

कोई भी शिक्षा तभी सफल होती है जब वह अपनी भाषा में हो

प्रेमपाल शर्मा

दिल्ली, 2 अप्रैल 2021: देश में बदलाव के पक्ष में सभी हैं, लेकिन इसका सबसे मजबूत हथियार शिक्षा है, और कोई भी शिक्षा तभी सफल होती है जब वह अपनी भाषा में हो।

मान लीजिए आप दिल्ली में हैं, तो कोई शुद्ध संस्कृत वाली हिंदी नहीं, वह हिंदी जिसमें उर्दू, मैथिली, ब्रज, भोजपुरी, अवधि, राजस्थानी और कुछ अंग्रेजी के शब्द भी हों। यानि दैनंदिन बोलचाल की बोली-भाषा हो।

लेकिन इसके बजाय देश के तथाकथित सर्वश्रेष्ठ जेएनयू, जामिया, दिल्ली से लेकर दिल्ली के चप्पे-चप्पे पर उगे हुए स्कूलों में इसे छोड़कर एक नकली रटी हुई अंग्रेजी में शिक्षक क्यों मिमयाते हैं और बच्चों से भी वैसा ही रटने को कहते हैं।

यहां रहने वाला क्रीमी वर्ग जन्म से ही बच्चों को अमेरिका, इंग्लैंड के सपने दिखाता है, वह झंडे तो किसानों के पक्ष में उठाता है, लेकिन अपने बच्चों को ऐसा कोई सपना कभी नहीं देता कि वह बिहार, उत्तर प्रदेश लौटकर गांव में जाएं।

किसानों की भाषा से भी इनको कोई सरोकार नहीं है। हिंदी का सबसे ज्यादा लेखक दिल्ली में रहता है, वह संविधान की दुहाई भी बार-बार देता है, लेकिन स्कूल, कॉलेज में अपनी भाषा में पढ़ने-पढ़ाने के लिए उसकी आवाज भी नहीं निकलती।

आपके बच्चे ने अपनी भाषा में पढ़ने की जो आवाज निकाली है, वह हर बच्चे की आवाज है, और इसको न सुनना अभिभावक, शिक्षक, सत्ता के लिए लानत है।

आइए, हम सब भाषा के लिए सारे फरेब, आडंबर छोड़कर एकसाथ खड़े होना सीखें!