#DIG, #IGCSC और #DGRPF से वसूला जाए सुप्रीम कोर्ट द्वारा यथावत रखा गया हर्जाना

सब-इंस्पेक्टर के विरुद्ध झूठी शिकायत पर फर्जी जांच और नौकरी से निकाले जाने के मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला

सुप्रीम कोर्ट ने 31 अगस्त 2020 को दिए एक अत्यंत महत्वपूर्ण निर्णय में डीजी/आरपीएफ और रेलमंत्रालय के विरुद्ध कड़ी टिप्पणी करते हुए पद एवं अधिकार का दुरुपयोग करने के मामले में गुजरात हाईकोर्ट द्वारा लगाए गए पांच लाख के जुर्माने को यथावत रखा है। सुप्रीम कोर्ट ने जब हाईकोर्ट के फैसले को सही ठहराया, तब वादी (आरपीएफ प्रशासन) के वकील द्वारा किए गए ऐतराज पर सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि क्यों न प्रतिवादी पर किए गए अन्याय और उत्पीड़न को देखते हुए जुर्माने की राशि बढ़ाकर दस लाख कर दी जाए। इस पर आरपीएफ प्रशासन द्वारा कोर्ट से माफी मांगते हुए अपनी याचिका तुरंत वापस ले ली गई।

पद और अधिकार के दुरुपयोग का यह मामला नवंबर 2015 का है। पश्चिम रेलवे रेलवे के “परम अहंमन्य” तत्कालीन डीआईजी परमशिव ने तब रतलाम मंडल में कार्यरत रहे आरपीएफ के सब-इंस्पेक्टर सतीश अग्निहोत्री को उस कार्य के दंड स्वरूप सेवा से निकाल दिया था, जो उन्होंने किया ही नहीं था। इसके बाद एसआई अग्निहोत्री ने आईजी/सीएससी/प.रे. और डीजी/आरपीएफ, रेलवे बोर्ड को आवेदन किया, परंतु उन्हें इन दोनों उच्च अधिकारियों से भी न्याय नहीं मिला।

दोनों उच्च अधिकारियों द्वारा किए गए इस अन्याय और नियम विरुद्ध नौकरी से निकाल दिए जाने तथा डीआईजी द्वारा प्रताड़ित एवं अपमानित किए जाने के खिलाफ सब-इंस्पेक्टर सतीश अग्निहोत्री ने गुजरात हाई कोर्ट, अहमदाबाद में एक रिट याचिका (सी/एससीए नं. 7466/2019) दायर की। हाईकोर्ट ने न सिर्फ मामले को गंभीरता से लिया, बल्कि पद एवं अधिकार का दुरुपयोग कर की गई विभागीय प्रक्रिया और जांच करवाई को भी गलत ठहराया।

इस मामले में हाईकोर्ट ने न सिर्फ सब-इंस्पेक्टर सतीश अग्निहोत्री को सभी वेतन-भत्तों सहित सेवा में तत्काल बहाल करने का आदेश दिया था, बल्कि आरपीएफ अधिकारियों के विरुद्ध कड़ा रुख अपनाते हुए पांच लाख रुपए का जुर्माना भी ठोका था।

हाईकोर्ट ने इस मामले को कितनी गंभीरता से लिया था, यह उसके द्वारा दिए गए 56 पेज के फैसले के शुरुआती पांच-छह और अंतिम तीन पैराग्राफ में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है –

The case at hand, before the Court is such, that has pricked the conscience of the court and has left the Court terribly perturbed and the factual matrix is such that warrants interference of the Court in order to prevent a gross miscarriage of justice. The present petition deserves to be allowed on any of the four major grounds raised, viz,

(i) initiation of the disciplinary proceedings by an officer not competent under the RPF Rules, 1987,

(ii) the proceedings being malafide,

(iii) the proceedings being vitiated on account of non-appointment of a Presenting Officer and

(iv) the orders of all the Authorities suffer from the vice of being not in consonance with the requirements laid down in the 1987 Rules.

However, a deeper understanding of the facts and evidence, has led the Court to draw a conclusion regarding the abominable conduct of the proceedings and the shocking and perverse orders passed by the Disciplinary Authority, the Appellate Authority and the Revisional Authority.

The crux of the entire matter rests upon the shaky foundations laid by a feeble and lame complaint, whereby it was alleged that after snatching Rs. 2,200/- from the Complainant, Rs. 2,000/- were returned to him and for the remaining Rs. 200/, a receipt for fine under the Tobacco Act was issued. From the sequence of events, as they transpired, it is quite evident that there was neither any loss to complainant nor any loss to the RPF. As a matter of fact, two officers, i.e. one Inspector and one Assistant Security Commissioner conducted preliminary inquiries against the petitioner and have given their reports to drop the proceedings against the petitioner and rather to take appropriate action against Respondent No. 5, i.e. Constable Satyavir Krishniya, who had identified himself as a previous acquaintee of the Complainant.

A bare appreciation of the facts of the present case would reveal that the officers of the RPF were sent on a wild-goose chase across the country for the tracing the complainant (from different districts in UP to Gujarat) by Respondent No. 5, i.e. Satyavir Krishniya and further getting disciplinary proceedings initiated against the petitioner, for settling his own scores of personal vendetta against the Petitioner. It is quite interesting to see that the officers of the RPF, quite readily and credulously played in the hands of the scheme hatched by Respondent No. 5, i.e. Satyavir Krishniya.

The Respondent No. 5 appears to be the architect behind the entire charade and it is further the Court’s conclusion, that the said Respondent was not even interested in the inquiries nor was he pursuing them. It is appalling to see the amount of time and money spent in conducting repeated inquiries, departmental and preliminary, where the complainant had been taking contradictory stands time and again and that too, for an incident, the facts of which were suitably refashioned by the Respondent No. 5 to suit his own vested interests.

We have dealt with in detail, in the subsequent paragraphs, from the stage of the incident till the completion of the inquiry, passing of the punishment order, the subsequent dismissal of the statutory appeal and the revision. The present facts reflect such disconcerting circumstances, that the Court would be abdicating and relegating its judicial duty if it did not observe that the petitioner is the real victim and the complaint was nothing but a design based on personal vengeance concocted by the Respondent no. 5.

Thus, the question as to whether Inquiry Officer who is supposed to act independently in an inquiry has acted as prosecutor or not is a question of fact which has to be decided on the facts and proceedings of particular case. In the present case we have noticed that the High Court had summoned the entire inquiry proceedings and after perusing the proceedings the High Court came to the conclusion that Inquiry Officer himself led the examination in chief of the prosecution witness by putting questions. The High Court further held that the Inquiry Officer acted himself as prosecutor and Judge in the said disciplinary enquiry. The above conclusion of the High Court has already been noticed from paragraphs 9 and 10 of the judgment of the High court giving rise to Civil Appeal no. 2608 of 2012.

For all the reasons recorded above, the petition deserves to succeed. The entire proceedings including the impugned orders passed by the respective authorities are accordingly quashed. The petitioner shall be reinstated in service with all consequential benefits.

In view of the findings recorded above, this is a fit case where costs should be imposed which we quantify at Rs.5,00,000/- (Rupees Five Lacs only) to be paid by the respondent – Railway Protection Force – to the petitioner.

गुजरात हाईकोर्ट के उपरोक्त निर्णय के बाद भी संबंधित आरपीएफ अधिकारियों को अक्ल नहीं आई। उनकी मति मारी गई थी जो वह इस निर्णय के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए। सुप्रीम कोर्ट ने 31 अगस्त 2020 को गुजरात हाईकोर्ट के निर्णय को यथावत रखते हुए जब यह कहा कि 5 लाख का जुर्माना कम है, इसे बढ़ाकर क्यों न हो 10 लाख कर दिया जाए। यह सुनते ही पश्चिम रेल के डीआईजी सहित आरपीएफ प्रशासन (वादी) की सांसें थम गईं और उन्होंने कोर्ट से माफी मांगते हुए अपनी याचिका वापिस ले ली।

ज्ञातव्य है कि 2 नवंबर 2015 को रतलाम सटेशन पर अवध एक्सप्रेस में दो यात्री वीरेंद्र यादव और रजक साहू सिगरेट पीते पकड़े गए थे। तब एसआईपीएफ सतीश अग्निहोत्री ने उनके खिलाफ टोबैको एक्ट के तहत दो-दो सौ रुपए जुर्माने की कार्रवाई की थी। जुर्माना भरकर जाने के बाद यात्री वीरेंद्र यादव ने उससे 2200 रुपए छीन लेने का झूठा आरोप लगाते हुए सतीश अग्निहोत्री के खिलाफ लिखित झूठी शिकायत की थी। मामले की दो बार जांच की गई थी, जिसमें एसआई अग्निहोत्री को निर्दोष पाया गया था। फिर भी उसे चार्जशीट देकर खुद को “परम-ईमानदार” समझने वाले तत्कालीन डीआईजी – वर्तमान में प्रतिनियुक्ति पर आईजी/आईआरसीटीसी – “परम-अहंमन्य” परमशिव (डीए) ने उन्हें न सिर्फ सेवा से निकाला था, बल्कि प्रताड़ित और अपमानित भी किया था।

परम-अहमन्य द्वारा किए गए इस परम-अन्याय के विरुद्ध एसआई अग्निहोत्री ने प्रथम अपीलीय अधिकारी आईजी/सीएससी ए. के. सिंह – जो बिना कुछ लिए स्टाफ का कोई फेवर न करने के लिए कुख्यात रहे – को अपील की, उन्होंने बिना कुछ सोचे-समझे अथवा बिना अपेक्षा पूरी हुए इस परम-अन्याय को यथावत रखा। तत्पश्चात अग्निहोत्री ने अंतिम अपील डीजी/आरपीएफ, रेलवे बोर्ड – जो कि आरपीएफ स्टाफ के उत्पीड़न के लिए शुरू से जाने जाते हैं – ने भी अपने दोनों परम-अहमकों के इस परम-अन्याय को बरकरार रखा था।

गुजरात हाईकोर्ट द्वारा आरपीएफ पर लगाए गए पांच लाख के हर्जाने के जिस आदेश को सुप्रीम कोर्ट ने भी यथावत रखा है, और इसके पीछे हाईकोर्ट तथा सुप्रीम कोर्ट का जो मंतव्य है, उसके मद्देनजर यह हर्जाना अब तत्कालीन डीआईजी – वर्तमान में प्रतिनियुक्ति पर आईजी/आईआरसीटीसी – परमशिव और तत्कालीन आईजी/सीएससी ए. के. सिंह (रिटायर्ड) तथा डीजी/ आरपीएफ से वसूल किया जाना चाहिए, क्योंकि हर बात अदालत ही स्पष्ट रूप से तय करे, यह जरूरी नहीं है। हालांकि यदि अदालतें ऐसा कड़ा और स्पष्ट रुख अपना लें, तो शासन-प्रशासन और बिगड़ी हुई व्यवस्था में बड़ा सुधार आ सकता है।

प्रस्तुति: सुरेश त्रिपाठी