विवेकशील बनो, वरना आगे बढ़ो !

रेल बिजनेस किसी भी अर्थव्यवस्था में कभी भी घाटे का सौदा हो ही नहीं सकता! यदि है, तो कमी प्रबंधन में है!

रेलवे में जिस स्तर का निवेश (इंवेस्टमेंट) होता है, उसकी कल्पना सामान्य आदमी नहीं कर सकता है। रेलवे का देशव्यापी नेटवर्क खड़ा करना सिर्फ पब्लिक इंवेस्टमेंट से ही संभव था।

ऐसे समय में जब बड़ी-बड़ी मल्टीनेशनल कंपनियां, उनके प्रोडक्ट्स की डिमांड है, या नहीं, यह जानने के लिए अरबों रुपये मार्केट सर्वे में लगा देती हैं, रिसर्च एंड डेवलपमेंट में जो लगता है, वह तो लगता ही है।

तब पब्लिक के निवेश से खड़ा किया गया यह लंबा-चौड़ा देशव्यापी बिजनेस औने-पौने दाम पर कुछ उद्योगपतियों को बेच देना बुद्धिमानी नहीं है।

ध्यान देने वाली बात यह भी है कि रेलवे इकलौता ऐसा बिजनेस है, जहां डिमांड हमेशा सप्लाई से ज्यादा रहती है। इसके ग्राहक इतने ज्यादा हैं कि उन्हें हमेशा वेटिंग में रहना पड़ता है।

इस तरह का बिजनेस किसी भी अर्थव्यवस्था में कभी भी घाटे का सौदा हो ही नहीं सकता, यदि है, तो कमी आपकी प्रबंधन व्यवस्था में है।

इसका मतलब यह है कि आपको अपनी व्यवस्था का सुचारु प्रबंधन और संचालन करना नहीं आता। और यदि यह सही बात है तो हट जाओ या रेलवे बोर्ड को सक्षम और प्रोफेशनल बनाओ। हर महीने बोर्ड, हर जोन और डिवीजन का हिसाब-किताब करो, जीएम और डीआरएम को हर वक्त टारगेट अथवा सीधे शब्दों में “जूते की नोक” पर रखो।

“हायर एंड फायर” जब सबसे ऊपर के स्तर पर लागू होगा, तब ही व्यवस्था का सुचारु प्रबंधन, संचालन और कल्याण होगा। यह पालिसी “लेबर क्लास” के लिए नहीं है। बड़े अधिकारियों को जब उनके पिछवाड़े पर लात पड़ने का भय होगा, तो चीजें अपने आप ठीक हो जाएंगी, वह अधिकारी सब कुछ ठीक करके रखेगा।

मजदूरों, बाबुओं और इंस्पेक्टरों पर डंडा चलाना सबसे बड़ी बेवकूफी है। डिपार्टमेंटल, डिवीजनल, जोनल हेड्स के सिर पर तलवार लटकाओ, रेलवे तो क्या सारे पब्लिक सेक्टर सोने का अंडा देने लगेंगे।

जब ओएनजीसी अथवा अन्य ऐसे ही कमाऊ पब्लिक सेक्टर यूनिट्स (पीएसयू) में संबित पात्रा जैसे नॉन-प्रोफेशनल पार्टी कार्यकर्ताओं को डायरेक्टर बनाओगे, तो स्पष्ट है कि उनको बरबाद करने की सुपारी दी जा चुकी है!

100-150 करोड़ में रेलवे स्टेशन बिक रहे हैं, जितना एरिया रेलवे स्टेशन का होता है, उतना तो प्रति वर्ग फुट सीपीडब्ल्यूडी के किराए के एसेसमेंट से भी कम होगा। बाकी निर्मित इंफ्रास्ट्रक्चर, रेलवे स्टेशन होने के नाते ऑटोमेटिक जो लाखों फुट फाल मिलेंगे, उनका दाम कितना मिलना चाहिए, जरा एक बार सोच-विचार कर तो देखा जाए।

75-100-150-200 करोड़ में रेलवे स्टेशन बेचना मतलब “पश्मीना शाल” को “कथरी-गुदड़ी” के भाव में निकालना है। कौन बनिया या व्यापारी ऐसा सस्ता सौदा करेगा?

यह काम तो वही करेगा जिसे अब दुनिया जहान से कोई मतलब न रह गया हो। जिसका घर-परिवार, बाल-बच्चों से कोई मतलब न हो, जिसे सिर्फ दंड-कमंडल या झोला लेकर निकल जाना ही याद रह गया हो।

देश की जनता को “फकीर” आदमी नहीं चाहिए। फकीर दुनिया का कारोबार नहीं चलाते, न ही वह चला सकते हैं। फकीर न देह गलाते हैं, न पसीना बहाते हैं, वह सिर्फ झाल और चिमटा बजाकर, भीख मांगकर अपना पेट पालते हैं। सब फकीर हो जाएंगे, तो भीख कौन देगा?

पुराने दिन याद करो, जब दरवाजे पर किसी हट्टे-कट्टे फकीरनुमा पाखंडी को देखकर भीतर से कह देते थे, “चलो-चलो आगे बढ़ो.. कोई और घर देखो जाकर, हट्टे-कट्टे मुश्टंडे हो, कमाकर, कुछ पुरुषार्थ करके खाओ, भीख मांगते शरम नहीं आती” यह शब्दावली हमारे नकल और असल में फर्क करने के विवेक से पैदा हुई थी।

अतः विवेकशील बनो, वरना चलो, आगे बढ़ो ! इससे ज्यादा कुछ कहना व्यर्थ है।

साभार: #सोशल_मीडिया