चाटुकारिता और काबिलियत

#चाटुकारिता और #काबिलियत दो विलोम शब्द हैं। जो चाटुकारिता करता है, वह काबिल (स्वाभिमानी) नहीं हो सकता, और जो काबिल होता है, वह कभी चाटुकारिता नहीं कर सकता।

चाटुकारिता कम समय में बिना मेहनत के पद, पैसा और प्रसिद्धि पाने का शॉर्टकट जरिया है, जिसमें प्रतिभावान को अपने रास्ते से हटाकर उसकी जगह ऐसे व्यक्ति को रखा जाता है, जो वेतन तो सरकार से ले, मगर काम उसकी चमचागीरी का करे।

ऐसे लोगों का एक बड़ा और संगठित गिरोह होता है, जिसमें चपरासी से लेकर उच्च अधिकारी तक सब शामिल रहते हैं। पोस्टिंग, ट्रांसफर के समय कर्मचारी की काबिलियत नहीं, उस पद पर बैठने के बाद वह अपने उच्च अधिकारियों को कितना खुश कर सकता है, यह देखा जाता है।

चाटुकारिता करने वाले कर्मचारियों पर विजिलेंस के अनेक केस, जिनमें “नो कैस डीलिंग” का रिमार्क भी रहता है, होने के बावजूद अपनी मनपसंद कुर्सियों पर वर्षों से जमे रहते हैं।

कागज पर ट्रांसफर आर्डर इधर से उधर होते रहते हैं, लेकिन कुर्सी नहीं छोड़ते। उस काली कमाई का कुछ हिस्सा अपने इंचार्ज को पहुंचाते हैं और इंचार्ज अपने क्षेत्र का कलेक्शन करके उच्च अधिकारियों तक पहुंचाता है।

लाख शिकायतें हों, होती रहें, पब्लिक कंप्लेंट हो, होती रहे, विजिलेंस केस की तो अब कोई औकात ही नहीं रही, सब फाइलें पैसे के दम पर दबी रहती हैं।

कम से कम रेल महकमे में यह सब प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। कहीं किसी भी स्तर पर कोई सुनवाई नहीं है।

सेक्सन में इस प्रकार के कामों में लिप्त लोगों को सब जानते-पहचानते हैं। मनपसंद पोस्ट पर पोस्टिंग और ट्रांसफर कराना इनके बाएं हाथ का खेल होता है।

ये तो ऐसी पोस्ट ही विसर्जित करा देते हैं जिसका रेलवे में फिर वजूद ही नहीं मिलेगा। बस आप उसकी कीमत अदा कर सकें।

इस पूरे खेल में पिसता है सिर्फ आम आदमी, सामान्य सरकारी कर्मचारी, जो सिस्टम की ओर ईमानदारी से देखता है, और उम्मीद करता है कि उसे उसकी ईमानदारी का फल एक न एक दिन जरूर मिलेगा। परंतु समय के साथ वह कुंठित होता जाता है।

आखिर वह शिकायत करे भी तो किससे करे, क्योंकि जब वह अपने हक के लिए जिस अधिकारी के पास जाता है, तब वह देखता है कि उस अधिकारी के आस – पास प्रोटोकॉल के नाम पर उन्हीं लोगों की पूरी गैंग उपस्थित है, जिनसे वह प्रताड़ित हो रहा होता है।

इंस्पेक्शन के नाम पर अधिकारियों के कैरेज जब स्टेशन पर आते हैं तो सबसे पहले वही चाटुकार लोग उनके साथ आगे-पीछे होते हैं।

महंगी गाड़ियां, लग्जरी होटल, भोग-विलास की हर चीज अधिकारी को उपलब्ध कराई जाती है। यह सब देखकर वह सोचता रहता है कि क्या अधिकारी उसकी बात सुनेगा-मानेगा और ऐसे लोगों पर कार्यवाही करेगा, और फिर निराश लौट जाता है।

देश के प्रधानमंत्री भले ही फालतू खर्च को रोकने के लिए बुके न लें, लेकिन अधिकारियों के आगमन पर 10-20 हजार रुपए सिर्फ बुके पर उड़ा देना तो रेलवे में एक अत्यंत मामूली बात है।

भ्रष्टाचार लोगों के खून में समा चुका है और हर क्षेत्र में चाटुकारिता, काबिलियत पर भारी पड़ रही है। भ्रष्टाचार की प्रथम सीढ़ी बन गई है चाटुकारिता। ऊपर बैठे लोगों के मुंह में जुबान नहीं रह गई, सब अपने-अपने हिस्से को येन-केन-प्रकारेण जल्दी से जल्दी झपट लेने की होड़ में शामिल हैं।

एक #रेलकर्मी की कलम से !