डिरेल हो गई भारतीय रेल

ऐसा लगता है कि केंद्र और राज्य सरकारों ने तय कर लिया है कि सरकारी कर्मचारियों सहित देश की पूरी जनता को कोरोना संक्रमित करना है!

बिना उचित तैयारी के लॉकडाउन का खामियाजा आम जनता के अलावा यदि किसी सरकारी क्षेत्र पर पड़ा है तो वह है देश की लाइफलाइन कही जाने वाली – भारतीय रेल। अब कोढ़ में खाज वाली कहावत इसलिए चरितार्थ हो रही है, क्योंकि पिछले कई वर्षों से रेल मंत्रालय मानो शून्य की तरफ चला गया है!

रेल मंत्रालय का न तो कोई विजन रह गया है, न ही कोई सफल और दूरदृष्टि युक्त योजना। सिवाय निजीकरण की कोशिशें करने, विभागवाद और भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने, अनाप-शनाप खर्च, टेंडर्स में अपनों को घुसाने, उनके अनुरूप टर्म्स-कंडीशन बनवाने, बिना कॉस्ट कटिंग किए टेंडर अवार्ड करने और विजिलेंस सिस्टम को मुर्दा बनाने के अलावा कुछ भी तो नया नहीं हुआ है रेल मंत्रालय में!

और अब तो एनडीए-१ का वह राग भी रेलमंत्री अथवा कोई अन्य केंद्रीय मंत्री द्वारा नहीं आलापा जा रहा है कि भारतीय रेल में साढ़े आठ लाख करोड़ का निवेश किया जाएगा। सरकार और उसके मंत्रीगण तो इस जुमले को भूल ही चुके हैं, पर देश की जनता को भी शायद अब यह जुमला याद नहीं रहा!

आखिर सिस्टम सुधरे भी तो कैसे, जैसा राजा वैसी प्रजा। रेलमंत्री पीयूष गोयल “डिरेलमंत्री” साबित हो चुके हैं, पर न जाने क्यों प्रधानमंत्री उन्हें ढ़ोए जा रहे हैं। उनका एक भी निर्णय अब तक न तो निष्पक्ष रहा और न ही आज तक किसी अंतिम निष्कर्ष तक पहुंच पाया। उनकी निरंकुशता और दुर्व्यवहार का ही परिणाम है कि अब रेलवे की नौकरशाही भी बेलगाम हो चुकी है।

वैसे तो सरकार द्वारा चेयरमैन, रेलवे बोर्ड के पद पर बैठाए गए अब तक के सभी अधिकारी अक्षम और नाकामयाब रहे हैं, मगर वर्तमान सीआरबी उनमें से भी सबसे ज्यादा अक्षम (मोस्ट इन्कम्पीटेंट) और कठपुतली साबित हुए हैं। जो भारतीय रेल दशकों से लेकर अब तक प्रतिदिन 13000 यात्री ट्रेनों का सफल/सुचारु संचालन कर रही थी, वह अब रोज 200 श्रमिक स्पेशल ट्रेनें चलाने में असमर्थ साबित हो रही है। यह है डिरेलमंत्री और अक्षम सीआरबी की उपलब्धि!

जिस तरह सरकार की नीतियों-निर्देशों में एकरूपता का अभाव रहा है, ठीक उसी तरह रेल मंत्रालय के निर्णयों में भी अस्पष्टता और मनमानी लगातार देखने को मिली है। रेलवे कोचों को आइसोलेशन वार्ड में बदलने का भी इनमें से एक ऐसा ही निर्णय था, जिसमें सौ करोड़ से भी ज्यादा की कीमती रेलवे रेवेन्यू खर्च की गई, जबकि उनका कोई इस्तेमाल नहीं हुआ।

वह तो अच्छा हुआ कि समय रहते एक ट्रैफिक अधिकारी के सुझाव पर स्लीपर कोचों के बजाय जनरल कोचों का इस्तेमाल किया गया। अब इन्हें डिस्मेंटल करने के लिए भी अलग से बड़ी राशि खर्च की जाएगी। यानि सब तरफ गोलमाल ही है। अब जब केंद्र सरकार ने लॉकडाउन के अपने ही नियमों की धज्जियां उड़ाते हुए श्रमिकों को उनके घरों तक पहुंचाने के लिए रेलवे का साधन चुना, तो वहीं से तय हो गया था कि आगे प्रवासी यात्रियों की तकलीफ कितनी बढ़ने वाली है।

रेलवे बोर्ड के अक्षम चेयरमैन खुद स्वीकार कर रहे हैं कि 2600 से ज्यादा श्रमिक ट्रेनें चलाई जा चुकी हैं, जिसमें 80% ट्रेनें केवल उत्तर प्रदेश, बिहार के लिए चलाई गई हैं। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि मात्र इन दो प्रदेशों से कितनी बड़ी संख्या में लोगों को रोजी-रोजगार के लिए देश के दूसरे हिस्सों में जाना पड़ता है। उस पर बजाय उद्योग लगाने और रोजगार पैदा करने के इन दोनों प्रदेशों के नेता इस पर भी राजनीति कर रहे हैं!

अब सोचने वाली बात यह है कि एक साथ इतनी ट्रेनों को एक दिशा में ले जाने की इतनी जल्दी क्यों थी? 25 मार्च से लॉकडाउन चल रहा था। जब निकम्मी राज्य सरकारें अपने यहां से बाहरी लोगों को हटाने के लिए अनुरोध कर रही थीं, तो खतरे की घंटी का आभाष तो केंद्र सरकार को उसी समय हो जाना चाहिए था।

लेकिन बात वही बालहठ की है कि मैं जो चाहूंगा वही होगा! जो जहां है वहीं रहेगा! जब केंद्र सरकार का डिजास्टर मैनेजमेंट धड़ाम हुआ तो उसने जनता को आत्मनिर्भर बनाते हुए खुद ही लड़ने के लिए सड़कों पर छोड़ दिया और गरीब, मजदूर, उनका परिवार, आम जनता बेरोजगार होकर सड़क पर आ गई। न तो राज्य सरकारों ने, न ही किसी उद्योगपति ने, और न ही कोई दानदाता इनको बचाने के लिए सामने आया।

केंद्र सरकार ने इन बेबस श्रमिकों को उनके घर भेजने की जिम्मेदारी भी दी तो उस भारतीय रेल को जिसका पहिया खुद ही सरकार ने महीनों से अपनी हठधर्मिता के कारण ठप्प कर दिया था।

इन सबके बीच भी यदि केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के बीच संवाद और तालमेल बना रहता, तो शायद इतनी आपाधापी की स्थिति पैदा नहीं होती या कोरोना संक्रमण से सावधानी के साथ निपटते हुए सामान्य जनजीवन को लॉकडाउन-1 के बाद खोल दिया गया होता, तो भी इतनी बुरी तरह इस भीषण गर्मी में प्रवासियों के विस्थापित होने की कालिख सरकार पर नहीं लगती।

भारतीय रेल को श्रमिकों को ले जाने के लिए जो जिम्मेदारी दी गई, वह प्रारंभिक चरण में तो काफी हद तक कामयाब रही, क्योंकि कम लोड के कारण और राज्य सरकारों के सहयोग से यात्रियों की स्क्रीनिंग इत्यादि का काम बखूबी चलता रहा, लेकिन इस भीषण गर्मी के मौसम में जब एक ही दिशा में सारा लोड, वह भी तब जब भूखे-प्यासे लोगों का छोड़ दिया गया हो, तो स्थिति भयावह हो गई।

परिणाम ये हुआ कि फिजिकल डिस्टेंसिंग की धज्जियां उड़ गईं, कोचों में क्षमता से भी अधिक लोगों को जानवर से भी बदतर स्थिति में ठूंस-ठूंसकर भरकर भेजा जाने लगा। न तो कोचों की सफाई हुई, न सेनेटाइजेशन, न ही पानी, लाइट इत्यादि की व्यवस्था पर ध्यान दिया गया और न ही उनके खाने-पीने की कोई उचित व्यवस्था हुई।

कोढ़ में खाज का काम ट्रेनों की अक्षम्य लेट-लतीफी ने पूरा कर दिया। जो गाड़ियां समय से पहले चलती थीं, अब उनके आगमन-प्रस्थान समय का पता ही नहीं है। उस पर भी जब 40-40 ट्रेनों का मार्ग भटक जाए और वह डेढ़-दो दिन के बजाय हफ्ते-दस दिन बाद गंतव्य पर पहुंचें, तो उनमें सवार श्रमिकों, जिन्हें पानी तक नहीं मुहैया कराया गया, की हालत क्या होगी, इसका अंदाजा लगा पाना कतई मुश्किल नहीं है!

कोच इस वक्त आग का गोला बना हुआ है। छोटे-छोटे बच्चे, बूढ़े-बुज़ुर्ग सब लोग असहाय हो गए। उन्हें क्या पता था कि जिस दर-दर की ठोकर से बचने के लिए वे वापस अपने घर को जाने को मजबूर हुए हैं, वह रास्ता इतना दुरूह साबित होगा।

इन विशेष गाड़ियों में खानपान उपलब्ध कराने की व्यवस्था आईआरसीटीसी को सौंपी गई है, लेकिन इस आपदा में उसका विकृत चेहरा सामने आया है। किसी भी कोच में न तो पूरा खाना बांटा जा रहा और न ही पानी। अधिकारी वातानुकूलित चेंबर में बैठकर टेलीविजन देखने में व्यस्त हैं और उनका स्टाफ गरीबों का भोजन और पानी हड़पने में लगा हुआ है।

उत्तर रेलवे में बनाए गए नोडल फंड से सभी जोनल रेलों के पीसीसीएम को श्रमिक स्पेशल ट्रेनों में श्रमिकों को खान-पान उपलब्ध कराने के लिए प्रति श्रमिक स्पेशल एक लाख रुपए खर्च करने का अधिकार दिया गया है। परंतु जब जबलपुर स्टेशन पर पश्चिम मध्य रेलवे द्वारा अपने स्टाफ के माध्यम से यह कोशिश की गई, तो आईआरसीटीसी के लोगों ने उन्हें जबरन रोक दिया। यही नहीं, वह तो इसकी शिकायत लेकर सीधे पीसीसीएम के चेंबर में घुस गए। सब कमीशनखोरी का चक्कर है। यह कोरोना क्राइसिस भी कुछ लोगों के लिए वरदान साबित हो रही है।

हर दिन गाड़ियों में किसी न किसी श्रमिक यात्री की मौत की खबर आ रही है, लेकिन संवेदनहीन हो चुकी व्यवस्था को इससे कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। हर साल इस मौसम में गुजरात, महाराष्ट्र, दिल्ली, पंजाब से मुख्यतः यूपी, बिहार के लोग घर जाते हैं और तब ज्यादा ट्रेनें भी चलाई जाती हैं। फिर इस बार सिस्टम फेल क्यों हो गया?

आखिर रेल मंत्रालय केंद्र सरकार को ये कहने की हिम्मत क्यों नहीं जुटा पा रहा है कि इस तरह से ट्रेनों का संचालन नहीं किया जा सकता है? केंद्र सरकार और डिरेलमंत्री अपनी नाकामी का ठीकरा भारतीय रेल पर अब क्यों फोड़ रहे हैं? तब उन सभी जोनल रेलों के पीसीओएम की बात क्यों नहीं सुनी गई जो ऐसी विषय स्थिति में ट्रेनें नहीं चलाए जाने का सुझाव वीडियो कांफ्रेंसिंग में दे रहे थे!

क्या अब इन प्रवासी मजदूरों के माध्यम से देश के दूर-दराज गांवों तक कोरोना नहीं फैलेगा? न तो गाड़ियों में कोई एस्कोर्टिंग हो रही है और न ही किसी स्टेशन पर पर्याप्त सुरक्षा है। अभी भी डिरेलमंत्री ट्रेन चलाने के लिए महाराष्ट्र सरकार से मजदूरों की लिस्ट मांग रहे हैं लेकिन एक बार भी ये नहीं कह रहे हैं कि इन्हें रोकें और इनके रोजगार को जिंदा रखें। आखिर इनका पलायन क्यों नहीं रोका जा रहा है?

सोशल मीडिया पर कथित फिजिकल डिस्टेंसिंग की फोटो डालकर आत्ममुग्ध हो रहा रेल प्रशासन कभी कोच के अंदर जाकर देख तो ले कि जानवर भी इतनी बुरी तरह से नहीं ठूंसे जाते हैं, वह भी इस भीषण गर्मी में! यही हाल अब सभी वर्कमैन स्पेशल में भी देखने को मिल रहा है। यानि ऐसा लगता है कि जैसे सरकार और नेताओं ने मिलकर तय कर लिया है कि पूरे देश की जनता और सभी सरकारी कर्मचारियों को कोरोना संक्रमित बनाना है!