“नाच न जाने आंगन टेढ़ा”
रेलवे जैसे बड़े और महत्वपूर्ण मंत्रालय में फुल टाइम एक लोकप्रिय व्यक्तित्व ही मंत्री होना चाहिए। जिस मंत्रालय के मंत्री कभी लाल बहादुर शास्त्री, ललित नारायण मिश्र और कमलापति त्रिपाठी जैसी महान शख्सियतें रही हों, उस मंत्रालय को एक ऐसे आदमी के हाथों में सौंप देना, जो कभी सरपंच का चुनाव भी न लड़ा हो, यह उसके करोड़ों उपभोगकर्ताओं/उपभोक्ताओं के साथ सरासर अन्याय है।
किसी मंत्रालय की सफलता के लिए उसके मंत्री को अपने विभाग का ज्ञान होने के साथ-साथ उस विभाग के दैनंदिन कार्यों और प्रक्रियाओं में शामिल होना भी आवश्यक होता है तथा अपने वरिष्ठ अधिकारियों को सुनना, उनसे मंत्रणा करना और उस पर अमल करना भी अनिवार्य होता है।
दुर्भाग्यवश आज हर मंत्री ऐसा नहीं सोचता। कुछ मंत्री तो साल में एक या दो बार ही अपने मंत्रालय में पधारते हैं। कुछ लोग तो मंत्री होने के इतना ज्यादा घमण्ड में रहते हैं कि 30 साल से उसी विभाग में कार्यरत अपने से काफी वरिष्ठ अधिकारियों से भी अत्यंत बदतमीजी से पेश आते हैं।
ऐसे मंत्रियों को शायद यह लगता होगा कि सभी वरिष्ठअधिकारियों को अपने पैर की जूती समझने से अपना सम्मान और कद बढ़ता है, पर उन्हें मालूम नहीं, कि ऐसे डर और अपमान के माहौल में लोग नौकरी तो करते हैं, मगर कभी अच्छा परिणाम नहीं दे सकते।
आज स्थिति यह है कि कुछ मंत्रालयों को एक विशेष प्रकार के बाहरी माफिया चला रहे हैं। जो लोग कैरियर ब्यूरोक्रेट्स हैं और अपनी पूरी जिंदगी एक विभाग में न्योछावर करके उस विभाग को अपने खून-पसीने से सींचकर उसकी बढ़ोत्तरी किए हैं, उनकी अनदेखी से विभाग का कतई भला नहीं होगा।
लेकिन आज ऐसे अनुभवी लोगों की सलाह न लेते हुए कुछ बाहरी व्यक्तियों की सलाह ली जा रही है। यह बाहरी व्यक्ति वस्तुत: दादागीरी कर पैसे ऐंठते हैं। यह कभी आरआरबी तक की परीक्षा पास नहीं किए हैं, न ही ये किसी विषय विशेष के एक्सपर्ट हैं, और न ही पॉलिटीशियन हैं। ये तो वे झोलाछाप लोग हैं, जो ‘चार दिन की चांदनी’ में अपना उल्लू सीधा कर विभाग का बेड़ा गर्क कर देते हैं।
किसी भी विभाग में आज के टेक्नोलॉजी के जमाने में तरह-तरह के विशेषज्ञ (स्पेशलिस्ट्स) काम करते हैं और उनमें आपसी ‘प्रोफेशनल डिफरेंसेस’ रहना कुछ हद तक जरूरी और स्वाभाविक भी है।
परंतु तथाकथित विभागवाद उर्फ डिपार्टमेंटलिज्म का झूठा राग आलाप कर विभाग का ही हमेशा के लिए सत्यानाश कर देना कतई उचित नहीं है। अगर सही में डिपार्टमेंटलिज्म है, तो उस विभाग के शीर्ष अधिकारी तथा मंत्री को इसके लिए जिम्मेदार और उत्तरदाई ठहराया जाना चाहिए।
अब जहां तक बात भारतीय रेल की है, तो यहां 166 साल से भी ज्यादा समय से अलग-अलग विभाग न सिर्फ मिल-जुलकर काम कर रहे हैं, बल्कि इन्होंने बेहतर परिणाम भी दिया है। रेलवे बोर्ड के अलावा जोनों तथा मंडलों में क्रमशः महाप्रबंधक और मंडल रेल प्रबंधक अपने मातहत अधिकारियों के आपसी मतभेद दूर करके अधिकारियों तथा विभागों से काम लेने में हर वक्त सफल रहे हैं।
यदि ऊपरी स्तर पर यानि रेलवे बोर्ड में डिपार्टमेंटलिज्म है, तो इसका पूरा उत्तरदायित्व इसके शीर्ष अधिकारी यानि सीआरबी तथा मंत्री का होना चाहिए और इन महानुभावों को इसके लिए स्वयं आत्मनिरीक्षण करने की जरूरत है।
अपनी सरासर अकर्मण्यता को दूसरों के ऊपर थोपना और भारतीय रेल के 14 लाख कर्मचारियों को इसके लिए दोषी ठहराना एक अच्छे और सुलझे हुए नेतृत्व का परिचायक कभी नहीं हो सकता।
इसी प्रकार के आचार-विचार और व्यवहार को कहते हैं, ‘नाच न जाने आंगन टेढ़ा’।
माननीय मंत्री महोदय सहित प्रधानमंत्री जी को भी उपरोक्त तथ्यों पर गंभीरतापूर्वक गौर करना चाहिए।