कृपया यहां थूकें !!

हिंदुस्तान में थूकने की परंपरा पर होने वाली सामाजिक-सांस्कृतिक ‘थुक्का फजीहत’ की अपार संभावनाएं तलाश रहे हैं सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार डाॅ. रवीन्द्र कुमार

दो मित्र बाहर-गांव से शहर घूमने आए। शाम तक बेहाल हो गए। किसी ने पूछा ऐसे कैसे अधमरे से हो गए। वे बोले “क्या करें जहां जाते हैं, डिब्बा-पेटी पर लिखा है ‘कृपया यहां थूकें’ – ‘कृपया यहाँ थूकें’। सवेरे से इतनी सारी जगहें थूक-थूककर हमारा तो गला ही दुखने लगा है। हम तो रात की गाड़ी से जाने की सोच रहे थे। रोज इतना कैसे थूक पाएंगे हम”।

दरअसल भारत एक थूक प्रधान देश है। कहते हैं कि विदेशियों के लिए भले हम एशियन या ब्लैक हों, लेकिन वहां भी हमने अपनी इस थूकने की परंपरा से अलग पहचान बनाई है और इसी आदत की वजह से धर लिए जाते हैं कि हो न हो ये हिंदुस्तानी है।

मैंने इस पर बहुत विचार किया कि हम भारतीयों की जिंदगी में इतनी थू-थू क्यों है? इसके क्या ऐतहासिक और सामाजिक कारण हो सकते हैं? हम ही क्यों घर-बाहर इतना थूकते-थुकवाते फिरते हैं? और हमारी ही क्यों देश-विदेश में इतनी थू-थू होती है?

एक मित्र सिंगापुर गए थे। लौटकर आकर बहुत कलप रहे थे। कसम पर कसम खाए जा रहे थे कि दुबारा सिंगापुर नहीं जाएंगे। कारण पूछने पर बोले, “क्या कंट्री है यार, मैं तो थूकने तक को तरस गया।

किसी से पूछा तो बोले, यहां थूकना मना है। लो बताओ अब ! ये भी कोई बात हुई, थूकने क्या इंडिया आएंगे। सुना है थूकने पर वहां बहुत हैवी फाइन है और जेल की हवा भी खानी पड़ सकती है। लो कर लो बात ! और पता चला कि साला जेल में भी थूकना मना है, तब फिर कहां जाएंगे ?।

अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जाएंगे!

मर के भी चैन न पाया तो किधर जाएंगे!!

इसका एक कारण तो यह है कि हमारे लोक-साहित्य में थूक को विशेष महत्व दिया गया है। ‘लार टपकाना’, ‘थूक कर चाटना’ आदि न जाने कितनी कहावतों से हिंदी साहित्य समृद्ध है। ‘आसमान पर थूकना’ अब देखिए, कितने मर्म की बात कही है। सिंगापुर वाले ऐसी बात कभी कर ही नहीं सकते। क्या खा के थूकेंगे आई मीन करेंगे।

‘थूक कर चाटना’, मुझे नहीं पता ऐसी या इससे मिलती-जुलती कोई कहावत का उदाहरण विश्व साहित्य में दूसरा है। कहीं ऐसा तो नहीं, हम ही थूक कर चाटने में महारथ रखते हों, इसलिए हमारे देश में ही ऐसा है।

आपने सुना होगा लोगों को कहते, मैं फलां चीज पर या फलां जगह पर या ऐसे पैसे पर ‘थूकता भी नहीं’। यहां थूक एक नए अभिप्राय में सामने आया है।

गर्वोक्ति के रूप में, ईमानदारी के दम्भ भरे विज्ञापन के रूप में। हम लोग परोपकारी जीव हैं। लेकिन हम लोग एक गलती करते हैं कि सामने वाले को भी परोपकारी मानकर चलते हैं, जो कि होता नहीं, ये अलग बात है। अगला आपकी तरह बौड़म तो है नहीं। तब से कहावत चल पड़ी ‘मीठा मीठा गप, कड़वा कड़वा थू’।

कहते हैं ह्युनसांग जब भारत आया तो यहां के लोगों को पान की पीक थूकते देख उसे कुछ समझ नहीं आया और उसने लिखा कि हिदुस्तानियों की हैल्थ भई वाह ! कितना खून थूकते हैं दिन भर फिर भी जिंदा हैं। सिंगापुर वालों ने भले थूकना निषेध कर रखा हो मगर फिर वो हमारी तरह ‘थूक लगाना’ भी नहीं जानते होंगे।

टूरिस्ट हो, ग्राहक हो, सह-यात्री हो, खुद के मां-बाप हों, यहां तक कि अपनी ही वधु पक्ष को थूक लगाने में हमें एक्स्पर्टीज हासिल है। आखिर दहेज क्या है?

पैसा दुगना करना, गहने पॉलिश करना, बेहोश कर देने वाली चाय पिलाना। मां-बाप को इमोशनल ड्रामा करके जायदाद और उनके फंड के पैसे का घपला, सब थूक लगाने की हमारी नेशनल हॉबी का हिस्सा हैं।

‘बाप न दादा खाये पान, थूकत-थूकत कढ़े परान’ अर्थात अपनी हैसियत अपने सामर्थ्य से बढ़-चढ़कर कार्य हाथ में लेने का परिणाम। अब भला इंडिया को क्या जरूरत है मंगल ग्रह पर या अंकार्टिका जाने की?

हिंदुस्तान में धारावी, दरियागंज की फुटपाथ पर ठंड में ठिठुरते लोग, कालाहांडी और मुजफ्फरपुर के लोग दिखाई नहीं देते! उन्हें और कुछ नहीं तो मंगल ग्रह वासी समझ कर ही उनके लिए कुछ कर दें।

बस ऐसी बातें करते ही नेताओं को फिट्स आने लगते हैं और अनाप-शनाप अपनी उपलब्धियां और विपक्ष की खामियां गिनाने लगते हैं। ज्यादा कॉर्नर करो, तो थूक निगलने लगते हैं।

तो देखा हुजूर आपने ! इस थूक में ‘थुक्का फजीहत’ की कितनी अपार संभावनाएं मौजूद हैं!