सरकार, आखिर रेलवे को किस दिशा में ले जाना चाहती है?
रेल प्रशासन की समस्या : एक तरफ निजी ट्रेनों के लिए स्टाफ की चुनौती, दूसरी तरफ रेल संगठनों का विरोध
‘रेल बचाओ, देश बचाओ’ संगोष्ठियों से भाजपा और सरकार समर्थित संगठनों ने बनाई दूरी
सरकार और उसके मंत्री खुद को तथा नीति आयोग में बैठे कुछ चुके हुए लोग अपने-आपको ही सर्वज्ञ मानकर देश के बने-बनाए उद्योग-ढ़ांचे सहित बनी-बनाई और सुचारु रूप से काम कर रही पूरी व्यवस्था को ही उलट-पुलट कर डालना चाहते हैं!
रेल प्रशासन आजकल दोहरी समस्या से गुजर रहा है। एक तरफ वह निजी ट्रेन ऑपरेटरों के निजी स्टाफ से निजी ट्रेनें चलवाना चाहता है, जिसकी बड़ी चुनौती उसके और निजी ऑपरेटरों दोनों के सामने है, तो दूसरी तरफ उसे इसके लिए मान्यताप्राप्त संगठनों सहित रेलकर्मियों के भारी विरोध का सामना करना पड़ रहा है। रेलवे स्टाफ (ड्राइवर/गार्ड/टीटीई) निजी ऑपरेटरों को दिए जाने का रेल संगठन और रेलकर्मी कड़ा विरोध कर रहे हैं।
उल्लेखनीय है कि आजकल रेलवे से संबंधित महत्वपूर्ण निर्णय रेल मंत्रालय के बजाय नीति आयोग के दफ्तर में लिए जाते हैं। पचास रेलवे स्टेशनों के निजीकरण और 100 मार्गों पर 150 निजी ट्रेनें चलाने संबंधी निर्णय भी नीति आयोग के दफ्तर में लिया गया तथा उसके लिखित निर्देश पर सीआरबी ने तत्काल इसका नोटिफिकेशन भी जारी कर दिया। रेलवे बोर्ड द्वारा जिस दिन 100 प्रमुख रेल मार्गों पर 150 निजी ट्रेनें चलाने की अनुमति दी गई,उसी दिन से रेल संगठन और सभी रेलकर्मी इसका भारी विरोध कर रहे हैं।
एक तरफ रेल प्रशासन यह कहता है कि रेलवे की भलाई के लिए जो भी निर्णय लिया जाएगा, उस पर रेल संगठनों सहित सभी स्टेक होल्डर्स से पहले बातचीत की जाएगी और उन्हें विश्वास में लेकर ही कोई निर्णय लिया जाएगा। परंतु प्रत्यक्ष देखने में ऐसा कुछ होता नजर नहीं आता। लखनऊ-दिल्ली के बीच दूसरी निजी ट्रेन तेजस एक्सप्रेस को चलाने से पहले ऐसा कुछ नहीं किया गया था। यदि किया गया था, तो फिर मान्यताप्राप्त रेल संगठनों ने विरोध प्रदर्शन क्यों किया, और यदि नहीं किया गया था, तो रेल संगठनों ने एकजुट होकर इसे रोका क्यों नहीं?
ज्ञातव्य है कि लखनऊ-दिल्ली से पहले मुंबई से मडगांव के बीच पहली तेजस एक्सप्रेस चलाई जा चुकी थी, तब रेल संगठनों द्वारा इसका कोई विरोध होते नहीं देखा गया था। जबकि शुक्रवार, 17 जनवरी से मुंबई-अहमदाबाद के बीच तीसरी निजी तेजस एक्सप्रेस चलने जा रही है। इसके अलावा इंदौर-वाराणसी के बीच चौथी निजी ट्रेन चलाने की भी घोषणा की जा चुकी है। यह घोषणा रेलमंत्री द्वारा सपत्नी उज्जैन में महाकाल के दर्शन करने के बाद दो दिन पहले ही की गई है।
दोनों मान्यताप्राप्त रेल संगठनों द्वारा रेल प्रशासन के श्रमिक विरोधी, रेलवे के निजीकरण पर मनमानी और एकतरफा निर्णयों सहित रेलकर्मियों की घटती संख्या, यात्रियों की घटती संरक्षा/सुरक्षा और सरकार द्वारा जांची-परखी रेल व्यवस्था को बरबाद करने के खिलाफ पूरी भारतीय रेल पर 2 जनवरी से 7 जनवरी तक ‘विरोध सप्ताह’ का आयोजन किया था। इसके साथ ही 8 जनवरी को केंद्रीय श्रम संगठनों की एक दिवसीय देशव्यापी हड़ताल को भी मान्यताप्राप्त रेल संगठनों ने अपना समर्थन घोषित किया था।
अब रेलवे के मान्यताप्राप्त संगठनों ने रेलमंत्री पीयूष गोयल की ‘परिवर्तन संगोष्ठी’ की तर्ज पर सभी जोनल एवं मंडल मुख्यालयों में ‘रेल बचाओ, देश बचाओ’ संगोष्ठियों का आयोजन शुरू किया हुआ है। सेंट्रल रेलवे मजदूर संघ (सीआरएमएस) और वेस्टर्न रेलवे इंप्लाइज यूनियन (डब्ल्यूआरईयू) द्वारा गत सप्ताह आयोजित ऐसी दो संगोष्ठियों में रेल संगठनों के नेताओं को सुनने का अवसर मिला। इनमें यह आभास हुआ कि खुद यूनियन नेताओं के अंदर आत्मविश्वास की कमी है।
इन ‘रेल बचाओ, देश बचाओ’ संगोष्ठियों में मान्यताप्राप्त रेल संगठनों के पदाधिकारी हालांकि रेलकर्मियों को एकजुट होकर रेलवे को बचाने का आह्वान कर रहे हैं। इनमें जनता (यात्रियों) को भी रेलवे के निजीकरण पर उनको होने वाले नुकसानों के बारे में जागरूक करने का निर्णय भी लिया गया है। नेताओं के जोरदार और जोशीले भाषणों में हालांकि रेलवे का चक्का जाम और अनिश्चितकालीन हड़ताल का भी नारा लगाया जा रहा है, तथापि यह खोखला जान पड़ता है।
एक निजी बातचीत में मान्यताप्राप्त संगठन के एक बड़े यूनियन लीडर ने माना कि आम हड़ताल पर जाने से उन्हें कोई समस्या नहीं है, वे इसका आह्वान अभी ही करने को तैयार हैं, परंतु सरकार के रवैए को देखते हुए रेलकर्मियों के इसमें बड़ी संख्या में शामिल होने को लेकर वह आश्वस्त नहीं हैं। तथापि उनका कहना था कि हम रेलवे का निजीकरण किसी भी हालत में नहीं होने देंगे। अब वह ऐसा कैसे करेंगे, इसका खुलासा उन्होंने नहीं किया।
निजीकरण के मुद्दे पर यूनियन नेता के उपरोक्त कथन पर रेलकर्मी भरोसा करने को तैयार नहीं हैं। जहां एक तरफ दोनों मान्यताप्राप्त संगठन एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम के तहत एक मंच से सरकार की नीतियों का विरोध करने के बजाय एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने और खुद को ही सबसे बड़ा साबित करने की होड़ में लगे हुए हैं, वहीं रेलकर्मियों का कहना है कि वे इनकी खोखली बातों और आश्वासनों पर कैसे भरोसा करें, जब इनके मौजूद रहते हुए भी दो निजी ट्रेनों का संचालन शुरू कर दिया गया और यह सिर्फ विरोध का दिखावा करते रहे!
‘रेल बचाओ, देश बचाओ’ संगोष्ठियों में भी मुख्य मुद्दा तब पीछे छूट जाता है, जब बाहर से बुलाए गए वक्ता सीएए और एनआरसी को लेकर देश के वर्तमान हालात पर सरकार के खिलाफ अपनी अनर्गल बकवास श्रोताओं पर लादते दिखाई देते हैं। हालांकि रेलकर्मी और यूनियनों के पदाधिकारी रेलवे की समस्याओं पर ही अपना पूरा वक्तव्य केंद्रित रखने का पूरा प्रयास करते हैं, तथापि अपनी मुख्य समस्या से उनका ध्यान भटकाने में बाहरी वक्ता कमोबेश ज्यादा कामयाब हो जाते हैं।
एक बात और खासतौर पर उल्लेखनीय है कि इन रेल बचाओ संगोष्ठियों से भाजपा और सरकार से संबंधित संगठनों ने एक निश्चित दूरी बना रखी है, जबकि उन्हें इसके लिए यह मानकर खासतौर पर आमंत्रित किया जा रहा है कि वे सरकार और पार्टी तक सही वस्तुस्थिति को पहुंचाएं, जिससे देश में श्रमिक अशांति को पैदा होने से रोका जा सके। तथापि उन्होंने अब तक इन संगोष्ठियों में शिरकत करना जरूरी नहीं समझा है।
रेल अधिकारियों की आठ संगठित सेवाओं को मर्ज करके रेलवे में सिर्फ एक सेवा ‘भारतीय रेल प्रबंधन सेवा’ के गठध को लेकर रेलवे के लगभग 9000 ग्रुप ‘ए’ अधिकारियों में भारी असंतोष व्याप्त है। यह सरकार अथवा रेलमंत्री की किसी से भी सलाह-मशवरा न करने और रेलवे के जमीनी कामकाज से अनभिज्ञ सीआरबी जैसी कठपुतली से ही सिर्फ बात करने की अहंमन्य नीति का दुष्परिणाम है। इस पर भी अधिकारियों के एक संगठन के एक तथाकथित सलाहकार द्वारा कैडर मर्जर पर रेलमंत्री को दिया गया समर्थन पत्र सवालों और निहित स्वार्थों के घेरे में है।
यहां यह बात अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि जिस तरह वी. पी. सिंह ने अपनी राजनीति के चलते मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करके देश को आरक्षण के गर्त में ढ़केल दिया था, जिससे देश आजतक नहीं उबर पाया है, उसी तरह आजतक की बाकी सभी कमेटियों की रिपोर्टें दरकिनार करके करीब 26 साल बाद वर्ष 1994 की प्रकाश टंडन कमेटी की रिपोर्ट को कथित रिफॉर्म के नाम पर लागू करके 166 साल से सुचारु रूप से चल रही भारतीय रेल को भी बरबाद करने की कोशिश की जा रही है। इसी तरह नौ जोन को 17 जोनों में बांटकर ऐसा ही प्रयास वर्ष 2003-04 में भी किया गया था। परिणाम सामने है और अब यदि इसे अभी नहीं रोका गया तो आने वाले दिनों में भारतीय रेल का सिर्फ नाम ही शेष रहेगा!
बहरहाल, रेलवे में आजकल जो कुछ भी चल रहा है, वह किसी की भी समझ से परे है। यही स्थिति शायद सरकार की भी है, क्योंकि उसे भी समझ में नहीं आ रहा है कि वह आखिर रेलवे को किस दिशा में ले जाना चाहती है। यही वजह है कि विषय विशेष के विशेषज्ञों से पहले राय शुमारी अथवा सलाह-मशवरा करने के बजाय सरकार और उसके मंत्री खुद को तथा नीति आयोग में बैठे कुछ चुके हुए लोग अपने-आपको ही सर्वज्ञ मानकर देश के बने-बनाए उद्योग-ढ़ांचे सहित बनी-बनाई और सुचारु रूप से काम कर रही पूरी व्यवस्था को ही उलट-पुलट कर डालना चाहते हैं! दूसरी तरफ यूनियनों के चुके हुए लोग भी सरकारी डंडे के डर से आम हड़ताल या चक्का जाम जैसा कोई कारगर कड़ा कदम उठाने से बच रहे हैं।