ताउम्र यही भूल करता रहा गालिब! धूल चेहरे पर थी आईना साफ करता रहा!!

बयानबाजी छोड़कर बोर्ड सहित जोनल रेलों के कामकाज की गंभीरतापूर्वक समीक्षा करें रेलमंत्री

सभी बोर्ड मेंबर्स को बराबर का दर्जा देकर उनके मशवरे को तवज्जो दें, सिर्फ सीआरबी पर निर्भर न रहें

मंत्री द्वारा जीएम/डीआरएम सहित सभी विभाग प्रमुखों के आउटपुट की स्वतंत्र समीक्षा की जाए

भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) द्वारा वित्तवर्ष 2017-18 के दौरान भारत की सबसे सस्ती, सुरक्षित और सुगम यातायात की जीवन रेखा कही जाने वाली ‘भारतीय रेल’ का ऑपरेटिंग रेशियो 98.44 प्रतिशत बताया गया है।

अर्थात रेलवे ने 100 रुपये कमाने के लिए 98.44 रुपये खर्च किए, जो कि पिछले 10 वर्षों का सबसे खराब प्रदर्शन है। कैग ने सिफारिश की है कि रेलवे अपना आंतरिक राजस्व बढ़ाने का उपाय करे। साथ ही बाजार से मिले फंड का पूरी तरह से इस्तेमाल करे।

इस रिपोर्ट के प्रत्युत्तर में रेलमंत्री पीयूष गोयल, जो कि एक बैंकर भी रहे हैं, ने बड़ा ही अजीब बयान दिया है। उनका कहना है कि सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू करने के कारण, सोशल रेस्पांसिबिलिटी और अन्य प्रकार की रेल रियायतें दिए जाने के कारण ऐसी स्थिति आई है।

वाह! क्या गजब का तर्क ढूंढ़ के निकाला है रेलमंत्री महोदय ने! इन्हें सीमित संसाधन में रेल कर्मचारियों द्वारा की जा रही मेहनत नहीं दिखाई दे रही, कर्मचारी रात-दिन एक करके काम कर रहे हैं, वह मंत्री महोदय को नहीं दिख रहा है।

आज भी कर्मचारी सातवें वेतन आयोग की विसंगतियों को लेकर आक्रोशित हैं और उन्हें दोनों मान्यताप्राप्त संगठनों द्वारा भी छला गया है। लेकिन रेलमंत्री महोदय को कर्मचारियों की संख्या और वेतन खटक रहा है। जबकि बिना कोई विशेष काम किए सांसदों, विधायकों का वेतन और अन्य भत्ता कई गुना बढ़ा दिया जाता है। उसकी समीक्षा कोई नहीं करता है।

लेकिन जो वर्ग मेहनत करके आवश्यक आउटपुट दे रहा है, उसको उसकी मेहनत और काम के एवज में दी जा रही नाम मात्र की सुविधा भी मंत्री महोदय को रास नहीं आ रही है।

आखिर सच्चाई से रूबरू होने में मंत्री महोदय को क्या दिक्कत है? क्यों नहीं इसकी जड़ों को देखा जा रहा है? यूँ तो रेलवे की लुटिया डुबाने के ऐसे अनेकों कारण हैं, लेकिन इसके कुछ ऐसे प्रमुख बिंदु हैं, जो मेरी नजर में आए हैं-

  1. भारतीय रेल में अभी भी लगभग 150 प्रकार से भी ज्यादा रियायतें यात्रा के लिए दी जाती हैं। इनका जमकर दुरुपयोग हो रहा है। इन्हें तत्काल खत्म करने अथवा सीमित किए जाने की आवश्यकता है।

  2. सांसदों, विधायकों और अन्य प्रकार के पदधारियों को रेलवे आजीवन मुफ्त यात्रा पास देती है। रेल अधिकारियों और कर्मचारियों द्वारा भी सुविधा पास का जमकर दुरुपयोग हो रहा है।

  3. सबसे ज्यादा दुरुपयोग सांसदों, विधायकों, परामर्शदात्री समितियों के सदस्यों इत्यादि को मिलने वाले मुफ्त पास का किया जा रहा है।

  4. आज भी सांसद, विधायक अपने पास पर एक ही दिन में, कई-कई गाड़ियों में, उच्च श्रेणी में टिकट बुक कराते हैं। और मजे की बात ये है कि लगभग सभी गाड़ियों में उसी तारीख को यात्रा संपन्न होती है।

  5. इसका तात्पर्य साफ है कि नेता और अन्य सुविधाभोगियों के मुफ्त पास पर, उनके नाम पर अनधिकृत लोग यात्रा कर रहे हैं और जो यात्री वर्ग पैसा देकर बर्थ/सीट कंफर्म चाहता है, उसे जगह नहीं मिलती। मजबूरन वह यातायात के अन्य उपलब्ध साधनों बस, एयर या निजी साधन द्वारा अपनी यात्रा सम्पन्न कर रहा है।

  6. ऐसा नहीं है कि रेलवे के पास ट्रैफिक नहीं आ रहा है, लेकिन रेलवे के पास यथोचित मेकैनिज्म नहीं है कि उसको रेल राजस्व में कैसे बदला जाए।

  7. रेलवे के सतर्कता दल रेल कर्मचारियों के यात्रा पास के दुरुपयोग की जांच तो कर रहे हैं, लेकिन सांसदों, विधायकों, अन्य विभिन्न समूहों आदि को मुफ्त में बांटे गए पासों पर की जा रही गलत यात्राओं की जांच नहीं कर पा रहे हैं।

  8. आखिर डिजिटल युग में रहने का क्या औचित्य है जब रेलवे आजतक ऐसी तकनीक नहीं ईजाद कर पाया, जहां पर किसी भी प्रकार की रियायत के दुरुपयोग को तुरंत पकड़ा और रोका जा सके! बाद की जांच-पड़ताल का कोई औचित्य नहीं है। समस्या का समाधान ऑन द स्पॉट होना चाहिए।

  9. इसके अतिरिक्त वरिष्ठ नागरिक, कैंसर, हैंडीकैप्ड, ब्लाइंड, डीफ एंड डम्ब, मिलिट्री वारंट आदि-आदि न जाने कितने प्रकार की रेल रियायतों का धड़ल्ले से दुरुपयोग हो रहा है। इन सभी प्रकार की रियायतों को अविलंब खत्म कर दिया जाना चाहिए या फिर सीधे सब्सिडी की व्यवस्था होनी चाहिए।

  10. लगभग हर सीजन में सभी यात्री गाड़ियां भरी हुई जाती हैं, लेकिन आंकड़ों में बहुत सी जगह खाली होती है। अब प्रश्न ये है कि ये जो भीड़ दिखाई देती है, उसका यात्रा अधिकार पत्र होता है या नहीं?

  11. सामान्यतः आरक्षित कोचों में प्रतीक्षा सूची, अनारक्षित और बिना टिकट के यात्रियों की संख्या आरक्षित से ज्यादा होती है। तो सवाल ये है कि इनकी टिकट से होने वाली आय रेल राजस्व में क्यों नहीं आती है?

  12. मतलब साफ है कि यहां पर चेकिंग का सही मैकेनिज्म नहीं है। रेल प्रशासन केवल अपने इस सिस्टम को ही दुरुस्त कर ले, तो रेल राजस्व में अप्रत्यशित वृद्धि हो सकती है।

  13. रेलवे की अप्रयुक्त अरबों-खरबों की जमीन सालों से खाली पड़ी हैं, जो जरायम का अड्डा बन चुकी हैं। आखिर इनका व्यावसायिक इस्तेमाल एक निश्चित समय के लिए क्यों नहीं किया जाता?

  14. वाणिज्यिक विज्ञापन इत्यादि जैसे नॉन फेयर रेवेन्यू को बढ़ावा क्यों नहीं दिया जाता है?

  15. आज भी अवैध तरीके से व्यावसायिक पार्टियों से सांठ-गांठ करके कई मंडलों द्वारा अवैध ढंग से वाणिज्यिक विज्ञापन चलाए जा रहे हैं और इसके बदले में मोटी रकम अवैध ढंग से ली जा रही है।आखिर इसके लिए जांच-पड़ताल का कोई कारगर मैकैनिज्म क्यों नहीं बनाया जाता?

  16. एयर ट्रैफिक की तरह राजधानी, शताब्दी और दूरंतो जैसी प्रीमियम ट्रेनों में फ्लेक्सी फेयर सिस्टम ने यात्रियों को अन्य साधनों की तरफ खासकर हवाई यात्रा की तरफ जाने को विवश किया है, क्योंकि उसमें रेलवे की तुलना में न सिर्फ किराया, बल्कि समय भी कम लगता है।

  17. अन्य विभाग, वाणिज्य विभाग द्वारा अर्जित किए गए रेल राजस्व को अनाप-शनाप बजट बनाकर (खर्चीले टेंडर, कोटेशन इत्यादि) रेलवे को रसातल में ले जा रहे हैं। आखिर किस आधार पर पहले से ही तय हो जाता है कि अमुक टेंडर या कार्य एक निश्चित फर्म को देना है?

  18. रेलवे का लेखा, ऑडिट सिस्टम, सतर्कता विभाग आखिर फेल क्यों हैं? क्या उसका काम अनैतिक कार्यों को नजरअंदाज करके अवैध ढंग से मात्र पैसा कमाने तक ही सीमित है।

  19. रेल सुरक्षा के नाम पर आरपीएफ/जीआरपी के मद में किए जा रहे खर्च अब बोझ लगने लगे हैं, क्योंकि चाहे स्टेशन हो या चलती गाड़ी, सभी जगह होने वाली अवैध गतिविधियों में इन लोगों की भूमिका संदिग्ध पाई जाती है। अवैध सवारी ढ़ोने में स्टाफ के साथ-साथ इनकी भी संलिप्तता पाई जाती है। परंतु इन पर कोई विशेष जवाबदेही तय नहीं है। इन पर किए जा रहे व्यय की समीक्षा की आवश्यकता है।

  20. कार्मिक, लेखा, स्टोर विभाग इत्यादि ऐसे सेक्शन हैं, जिनके कार्यों की समीक्षा और जरूरत के अनुसार स्टाफ को अन्य शॉर्टेज की जगह पर समायोजित करने की आवश्यकता है।

  21. बदलते परिदृश्य में सूचना तकनीक का इस्तेमाल अत्यंत आवश्यक हो गया है। निस्संदेह भारतीय रेल ने उन्नत तकनीक का भरपूर प्रयोग किया है, लेकिन बदलती आवश्यकतओं और प्रतिस्पर्धी युग में इसका और विस्तृत रूप में इस्तेमाल की जरूरत है।

  22. दोनों मान्यताप्राप्त संगठनों द्वारा इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर भी कोई प्रतिक्रिया न देना हैरान करने वाला है! आखिर ये संगठन किसका प्रतिनिधित्व कर रहे हैं? अब कर्मचारी भी कहने लगे हैं कि ये नेता लोग केवल अपना ठिकाना सही करने में लगे हैं। कर्मचारियों की समस्याएं इनके कार्यक्षेत्र से बाहर हो चुकी हैं।

  23. मालभाड़ा यातायात, जो कि रेल राजस्व की रीढ़ है, में लगातार आ रही कमी के अनेकों कारण हैं। एक तो रोड इंफ्रास्ट्रक्चर काफी तेजी से बढ़ा है। दूसरा सरकार की समय के अनुसार मालभाड़े की पालिसी में बदलाव नहीं करना। कोयला, सीमेंट, खाद्यान्न, आयरन ओर, स्टील इत्यादि सेगमेंट को छोड़ दें, तो अन्य कमोडिटी की ढुलाई में रेलवे को रोड ट्रांसपोर्ट से कड़ी टक्कर मिल रही है।

  24. लॉजिस्टिक हब ने भी रेलवे को काफी प्रभावित किया है। व्यापारियों को डोर-टू-डोर की सुविधा मिलने लगी है। इसके अतिरिक्त पुरानी पालिसी, जो बदलते समय के अनुकूल नहीं है, से बंधे रहने से भी माल ढुलाई पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। इसके अलावा रेलवे के किसी भी गुड्स यार्ड तक व्यापारियों को अपना माल लेकर पहुंचना अत्यंत मुश्किल भरा है, क्योंकि किसी भी लोडिंग प्वाइंट तक सही और सपाट अप्रोच रोड नहीं है।

  25. इस पर भी अब सुना है कि रेलवे के कुछ मालगोदामों को एफसीआई सहित अन्य पार्टियों को भाड़े पर दिया जाने वाला है। अब देखना यह है कि डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर से कितना बदलाव आता है? बेहतर यह होगा कि रेलमंत्री सुर्खियां बटोरने वाली बयानबाजी छोड़कर और रेलवे के बड़े बाबुओं की दिग्भ्रमित करने वाली कोशिशों को दरकिनार करके रेलवे बोर्ड सहित सभी जोनल मुख्यालयों में जाकर प्रत्येक अधिकारी और प्रत्येक विभाग के कार्यों की गंभीरतापूर्वक समीक्षा करें तथा उन्हें वास्तविक काम पर लगाएं। तभी रेलवे की आर्थिक स्थिति को सुधारा जा सकता है।

उपरोक्त तमाम तथ्यों के अलावा भ्रष्टाचार और कमीशनखोरी भी एक हकीकत है, जो रेलवे की जड़ों में मट्ठा डाल रही है। कहने को भले ही सारा टेंडर सिस्टम ऑनलाइन हो गया है, परंतु बिना एडवांस कमीशन लिए न तो टेंडर एलाटमेंट होता है और न ही कोई बिल पास होता है। यह एक बड़ी सच्चाई है। इसके ढ़ेरों प्रमाण मौजूद हैं।

वैसे मंत्री महोदय और खुद सरकार हर मंच से भ्रष्टाचार खत्म हो जाने का बहुत जोर-शोर से ढ़िंढ़ोरा पीटते हैं, जबकि सच यह है कि पिछले कुछ वर्षों में भ्रष्टाचार और कमीशनखोरी कई गुना बढ़ गई है। हालांकि टेंडर सिस्टम में व्याप्त भ्रष्टाचार और कमीशनखोरी पर ही यदि लगाम कस दी जाए, तो न सिर्फ निर्माण और आपूर्ति की गुणवत्ता में पर्याप्त सुधार आ जाएगा, बल्कि आय बढ़ने से संसाधनों की कमी का रोना भी खत्म हो जाएगा।

उम्मीद है कि रेलमंत्री और रेलवे के नीति नियंता उपरोक्त तथ्यों की गहन समीक्षा करेंगे और इसकी जड़ में जमी धूल को साफ करने का प्रयास करेंगे।

यदि ऐसा नहीं हुआ, तो मिर्ज़ा गालिब का ये शे’र ही लोगों को याद आएगा-
ताउम्र यही भूल करता रहा, गालिब!
धूल चेहरे पर थी आईना साफ करता रहा!!