जिम्मेदार सत्ता बचाने में लगे हैं, कपड़े का मास्क लगाकर सुपरमैन बनी हुई है जनता!

काश, कि जनता अंधभक्ति और चमचागिरी से ऊपर उठकर वास्तविक पड़ोसी, निर्दोष और आश्रित व्यक्ति के स्वास्थ्य और सामर्थ्य की चिंता करती!

सच में भारत विविधताओं का देश है। कहीं चुनाव, कहीं लॉकडाउन, कहीं कुम्भ, जिम्मेदार सत्ता बचाने में लगे हैं, जनता दाल-रोटी की जद्दोजहद में कपड़े का मास्क लगाकर सुपरमैन बनी घूम रही है।

ऑक्सीजन खत्म हो चुकी है, सरकारी अस्पताल फुल हो चुके हैं, प्राइवेट अस्पताल हर आदमी के बस का नहीं है। दवाईयों से लेकर सेनिटाइजर तक महंगे हो चुके हैं।

“रेमडेसिवर” किसी दुकान, मेडिकल स्टोर में उपलब्ध न होकर राजनीतिक पार्टियों के दफ्तर में मिल रहा है। डॉक्टर मरीज के साथ-साथ खुद की जान बचाने की चिंता में लगे हैं। अस्पताल प्रबंधन स्टाफ को छुट्टी पर चले जाने या नौकरी छोड़ देने के डर में अगली सुबह का इंतजार कर रहा होता है।

प्राइवेट अस्पताल वाले इन सबके साथ मरीज की मौत पर होने वाले हंगामे और डॉक्टर्स की पिटाई के डर से बाउंसर्स को टीका लगवाने की जुगत में हैं।

अस्पताल के मालिक (जो कि अमूमन डॉक्टर ही होते हैं) नेताओं और अफसरों के परिचितों को सही बेड दिलवाने और अस्पताल के बिल कम करवाने के तनाव से गुजर रहे हैं। साथ-साथ इस डर में भी हैं कि संक्रमण से संबंधित किसी नियम का उल्लंघन न हो जाए।

पत्रकार को चिंता है कि लॉकडाउन लगा तो मालिक को विज्ञापन कैसे मिलेंगे, फिर से कहीं छंटनी न हो जाए? घर चलाऊं, खबर लिखूं, नई नौकरी ढूँढूं या टीका लगवाकर अस्पताल में खबर ढ़ूंढ़ने जाऊं?

तृतीय-चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी को चिंता है कि कहीं फिर से उसे कंट्रोल रूम में न बिठा दें, सर्वे में ड्यूटी न लगा दें, बिटिया की शादी है, कलेक्टर से छुट्टी कैसे सेंक्शन कराऊँ?

सत्ताधारी नेताजी सोच रहे हैं.. लॉक डाउन लगाते हैं, तो व्यापारी के बुरे बनते हैं और चुनाव नहीं करा पाएंगे, न लगाएं महामारी फैली, फिर भी गैर जिम्मेदार कहलाएंगे। ऐसा करो डॉक्टर को डांट लेते हैं.. अफसरों को बदल देते हैं। इसकी आड़ में आंदोलन भी निपट जाएंगे और जनता मुद्दों से भटक कर जान और व्यापार बचाने के बारे में सोचने लगेगी।

विपक्ष वाले नेताजी सोच रहे हैं, कैसे सरकार को कटघरे में खड़ा करें? चलो बेड के नाम पर और अव्यवस्थाओं के नाम पर डॉक्टर्स को डांट आते हैं।

किसान सोच रहा है कि फसल तो गई, आंदोलन भी चला जा रहा है और हुआ कुछ नहीं..

इसी बीच बच्चे खुश हैं कि चलो फिर इस साल बिना पढ़े पास हो गए और फिर स्कूल नहीं जाना पड़ेगा।

और अंत में..

मैं सोच रहा हूँ कि भारत में कोरोना दुबारा इतने तेजी से कैसे फैला? क्या लॉकडाउन वाकई समस्या का हल है? हम एक साल की गलतियों से अभी तक कुछ क्यों नहीं सीख पाए?

हमने पिछले एक साल में कोविड से लड़ने के लिए क्या-क्या नई तैयारियां कीं? कितने नए आईसीयू तैयार कराए? कितने डॉक्टर्स/नर्सेस/ सपोर्टिव स्टाफ को इमरजेंसी की वेंटीलेटर चलाने की ट्रेनिंग दी?

कितने सरकारी अस्पताओं में नए एनेस्थेसिया, पल्मोनरी मेडिसिन और जनरल मेडिसिन के डॉक्टर्स को भर्ती किया? कितनी सरकारी लैब्स का उन्नयन महामारी की गंभीरता के साथ किया?

कितने ऑक्सीजन बनाने के संयंत्र लगाए? इमरजेंसी दवाएं, पीपीई किट और सैनिटाइजर बनाने वाली कंपनियों को सब्सिडी क्यों नहीं दी?

कितने प्राइवेट अस्पताओं का उन्नयन पीपीपी मोड पर किया? या प्राइवेट अस्पतालों के संचालन के बाबा आदम के जमाने के रिश्वतखोरी के नियमों को शिथिल किया?

काश, कि जनता अंधभक्ति और चमचागिरी से ऊपर उठकर वास्तविक पड़ोसी, निर्दोष और आश्रित व्यक्ति के स्वास्थ्य और सामर्थ्य की चिंता करती!

ध्यान दीजिए – जनता कपड़े का मास्क, चुन्नी और साफी लपेटकर सोच रही है कि कर्ण के कवच कुंडल मिल गए! भैया, वायरस का आकार 9-15 नैनो मीटर है, जो कपड़े के दो धागों के बीच की जगह से कई गुना छोटा है।

इसलिए केवल सर्जिकल थ्री लेयर या एन95 मास्क ही इसके लिए कुछ हद तक प्रतिरोधी हैं।

अतः चुन्नी, साफी या कपड़े के मास्क को केवल कफन समझ लें। भारतीय वैक्सीन्स अभी भी ट्रायल फेज में हैं। अतः उसे केवल मोरल बूस्टर समझ लें।

केवल सही मास्क और डिस्टेंसिंग का ध्यान रखें। बाकी वही ब्रह्मवाक्य हमें तसल्ली देता हैं कि जो भगवान करेगा, वो होगा, और देश तो भगवान भरोसे चल ही रहा है।

डॉ. गिरीश चतुर्वेदी, पूर्व जूडा अध्यक्ष, म. प्र. की फेसबुक वॉल से साभार!

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