“जो जनता के लिए नहीं, वो नेता के लिए भी नहीं!”

सरकारों और विभिन्न राजनीतिक दलों को अब यह मुगालता नहीं पालना चाहिए कि आम आदमी कुछ समझता नहीं है, उसे उनकी कुटिल राजनीति की समझ नहीं है। आम आदमी अब सब समझता है और उस पर विचार-विमर्श भी करता है। वह बिका हुआ मीडिया या अंधभक्त कार्यकर्ता नहीं है, जो छोटे-छोटे स्वार्थों पर अपनी निष्ठा से समझौता कर लेगा, उसे सिर्फ सही समय की प्रतीक्षा रहती है!

अर्थी में 20, शादी में 50, सार्वजनिक समारोहों, सार्वजनिक घूमाव-फिराव पर पाबंदी, मास्क नहीं लगाने पर पुलिस के डंडे और मनमानी दंड, मगर नेताओं पर कोई नियम-कानून लागू नहीं, चुनावी रैलियों में हजारों-लाखों नहीं, बल्कि कोई सीमा ही निर्धारित नहीं। लोकतंत्र को भीड़तंत्र-भेड़तंत्र में बदलकर रख दिया है नेताओं और सरकारों ने!

सरकार, नौकरशाही और व्यवस्था को लेकर पूरे देश में सामान्य जनमानस की यही अवधारणा बन रही है। लोग सवाल उठा रहे हैं और आपस में ही एक-दूसरे से पूछ रहे हैं –

कि केंद्र और राज्य सरकारों को कोरोना काल में इतनी बड़ी संख्या में चुनावी रैली करने की अनुमति किसने दी?

कि कोरोना को लेकर कोई नियम-कायदा भारत देश में है, या नहीं? अगर है, तो यह नेताओं और चुनावी रैलियों पर लागू क्यों नहीं है?

वह कहते हैं, सभी राजनीतिक पार्टियां, केंद्र सरकार, पश्चिम बंगाल, केरल, असम सरकार, सर्वोच्च न्यायालय, चुनाव आयोग इत्यादि कृपा करके इस बारे में तुरंत संज्ञान लें।

भारत की ईमानदार एवं कर्मठ पुलिस को तुरंत चालान काटने चाहिए, ऐसी राजनीतिक पार्टियों और नेताओं के विरूद्ध जो ये रैलियां आयोजित कर रहे हैं। पुलिस अपने को सिर्फ सामान्य आदमी का ही चालान काटने तक सीमित क्यों रखती है?

जनता के साथ यह भेदभावपूर्ण रवैया क्यों? जब चाहे कोरोना का डर दिखा दिया जाता है और आम जनता पर पाबंदी थोप दी जाती है।

यह आम आदमी यह भी मानता है कि जनता को भी जिम्मेदार होना चाहिए, सरकार द्वारा तय दिशा-निर्देश उसे भी मानने चाहिए, क्योंकि यह उसी की भलाई के लिए हैं।

तथापि उसे कुढ़न तब होती है जब बहुसंख्यकों के त्यौहारों पर रोक लगा दी जाती है, जबकि कोई भी सरकार कथित अल्पसंख्यकों का कुछ नहीं कर पाती है। वह हर सरकार में निरंकुश क्यों होते हैं?

पंद्रह प्रतिशत का तुष्टिकरण, पचासी प्रतिशत वालों पर भय, डर, आशंका बनाकर, उनका दोहन-शोषण आखिर हर सरकार द्वारा क्यों किया जाता है?

आम आदमी का कहना है कि देश का और देशवासियों का मजाक बना कर रख दिया है इन कथित राजनेताओं और सरकारों ने!

नियम-कानून के दायरे में रहकर ही इनको भी कार्य करना होगा और जनता के लिए बनाए गए नियमों का पूरी कड़ाई से इन्हें भी पालन करना होगा।

वह कहते हैं कि हम सब भारत के नागरिक हैं फिर किसी को विशेष छूट क्यों मिलनी चाहिए? आप ही बताईए, जिम्मेदार नागरिक बनें और देश के प्रति अपनी देशभक्ति दिखाएं, यह किसी एक पार्टी की भक्ति या अंधभक्ति से बहुत ऊपर है।

स्मरण रहे – “जो जनता के लिए नहीं है, वो नेता के लिए भी नहीं होना चाहिए!”

आम आदमी के मन में अब यह सवाल भी उठ रहा है कि जब चुनाव पार्टी लड़ती है, तब उसमें प्रचार करने और रैलियों के संबोधन के लिए प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और अन्य मंत्रियों को नहीं जाना चाहिए, क्योंकि वे किसी पार्टी विशेष के नहीं, बल्कि पूरे देश-प्रदेश के मंत्री होते हैं।

तथापि यदि वह अपनी पार्टी के चुनावी प्रचार के लिए जाते हैं, तो सर्वप्रथम वह प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और मंत्रियों का चोला उतार कर रख दें। इन संवैधानिक पदों पर विराजमान व्यक्ति की हैसियत के तौर पर पार्टी के चुनाव प्रचार में नहीं जाएं। फिर भी यदि जाते हैं, तो उसका खर्च जनता की गाढ़ी कमाई से इकट्ठा हुए राजस्व से नहीं, बल्कि उनकी पार्टी द्वारा उठाया जाए!

यहां एक आम आदमी, वस्तुत: मजदूर द्वारा कही गई बात गौर करने लायक है। यह आम आदमी कह रहा है कि “पूरे देश में एक साथ चुनाव करा देना कोरोना को भगाने का सबसे सरल उपाय है, क्योंकि जहां चुनाव होता है, वहां कोरोना नहीं जाता, वहां फटकता भी नहीं है।

सुनें – कोरोना पर आम आदमी का विचार!

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आम आदमी कहता है, “ऐसा कैसे हो सकता है कि कोरोना रात में एक निश्चित समय सीमा में विचरण करता है? सप्ताह के पहले पांच दिन वह दफ्तरों, फैक्ट्रियों, कारखानों में नहीं जाता, मगर अंतिम दो दिन शनिवार-रविवार को वह सब जगह निर्द्वंद्व घूमता है?”

यही बात औरंगाबाद, महाराष्ट्र के सेशंस जज महोदय ने भी कहा है। यह विचारणीय है कि ये उल्टे-सीधे फैसले कौन लेता है और किसके कहने या किसकी सलाह पर लेता है!

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