मेडिकल इमरजेंसी में निजी अस्पताल में उपचार की प्रतिपूर्ति से मना नहीं किया जा सकता -सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने गत सप्ताह अपने एक निर्णय में कहा कि “सेवा काल में या सेवानिवृत्ति के बाद किसी केंद्रीय सरकारी कर्मचारी को सिर्फ इस आधार पर बिल की प्रतिपूर्ति से इंकार नहीं किया जा सकता कि मेडिकल इमरजेंसी के दौरान उसने एक निजी अस्पताल में अपना उपचार करवाया जो सरकारी सूची में शामिल नहीं था।”
न्यायमूर्ति आर. के. अग्रवाल और न्यायमूर्ति अशोक भूषण की पीठ ने अपने फैसले में कहा, “चिकित्सा के अधिकार को केवल इस आधार पर अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि अस्पताल का नाम सरकारी आदेश में शामिल नहीं है।”
न्यायमूर्ति अग्रवाल ने कहा कि “ऐसा कैसे कहा जा सकता है कि किसी स्पेशलिटी अस्पताल में उपचार कराना ही किसी सरकारी कर्मचारी को इस आधार पर प्रतिपूर्ति का दावा करने से पूरी तरह वंचित कर देगा कि उक्त अस्पताल सरकारी सूची में शामिल नहीं है।”
कोर्ट ने कहा, “वास्तविक परीक्षण ही उपचार का आधार होना चाहिए। किसी भी चिकित्सा दावे के संपादित होने से पहले, अधिकारी यह सुनिश्चित करने के लिए बाध्य हैं कि क्या दावेदार ने वास्तव में उपचार लिया है और उपचार के तथ्य को संबंधित डॉक्टरों/अस्पतालों द्वारा प्रमाणित रिकॉर्ड द्वारा समर्थित करते हुए प्रस्तुत किया गया है। यह स्थापित हो जाने पर, तकनीकी आधार पर दावे को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है।”
अदालत का कहना था कि, “यह एक कानूनी स्थिति है कि कर्मचारी अपने जीवनकाल में सेवा के दौरान अथवा निवृत्ति के बाद उचित चिकित्सा सुविधाओं का लाभ पाने का हकदार है और अपने अधिकारों पर कोई भ्रम नहीं रखा जा सकता।”
अदालत ने आगे कहा कि, “विशिष्ट अस्पतालों को निर्दिष्ट बीमारियों के उपचार के लिए स्थापित किया जाता है और एक अनुशासन में विशेषज्ञ डॉक्टरों की सेवाएं मरीजों को उचित, आवश्यक तथा सुरक्षित उपचार सुनिश्चित करने के लिए दी उपलब्ध कराई जाती हैं।”
अदालत ने पेंशनभोगी लाभार्थियों के मामले में सीजीएचएस द्वारा एमआरसी के निपटान की धीमी और मार्मिक गति पर भी ध्यान दिया और पेंशनभोगियों, जो वरिष्ठ नागरिक हैं, को मानसिक, शारीरिक और आर्थिक रूप से प्रताड़ित करते हुए अनावश्यक रूप से परेशान किया गया।
कोर्ट ने यह निर्देश देते हुए कि इस तरह के सभी दावे संबंधित मंत्रालय में एक सचिव-स्तरीय उच्चाधिकार समिति द्वारा निर्णीत किए जाएं, जो इस तरह के मामलों के त्वरित निपटान के लिए हर महीने बैठक करें। हमारा विचार है कि संबंधित कागजात जमा करने के बाद पेंशनभोगी द्वारा दावा करने के लिए, एक महीने की अवधि के लिए प्रतिपूर्ति की जाएगी।”
कोर्ट ने पेंशनर्स की शिकायतों के समयबद्ध निपटारे के लिए एक समिति गठित करने का निर्देश दिया। इसमें विशेष निदेशालय जनरल, अतिरिक्त निदेशकों और क्षेत्र के एक विशेषज्ञ रखने को कहा, जो एक सप्ताह (बात दिन) में दावों का समयबद्ध और परेशानी मुक्त निपटान सुनिश्चित करेगी।
अदालत ने अपने आदेश में यह भी कहा कि, “हम संबंधित मंत्रालय को निर्देश देते हैं कि समिति का गठन जल्द से जल्द करने के लिए कदम उठाएं।” सुप्रीम कोर्ट ने यह आदेश केंद्र सरकार के एक सेवानिवृत्त अधिकारी की याचिका पर दिया, जिसने दो निजी अस्पतालों से अपना उपचार करवाया था और सरकार से चिकित्सा राशि की प्रतिपूर्ति की मांग की थी। सरकार ने शुरुआत में यह कहते हुए बिल का भुगतान करने से इंकार कर दिया था कि सीआरटी-डी डिवाइस के प्रत्यारोपण की आवश्यकता नहीं है।
अदालत ने कहा कि मामले में सीजीएचएस का दृष्टिकोण बहुत अमानवीय था। यह शायद अधिकांश मामलों में यही असंतोषजनक स्थिति है। संबंधित अधिकारियों को अधिक संवेदनशील होना आवश्यक है और यांत्रिक तरीके से किसी कर्मचारी को उसके हक से वंचित नहीं किया जा सकता है।