सारी खुदाई एक तरफ, जीएम की लुगाई एक तरफ!

हाथ बांधे खड़ा लाचार रेल प्रशासन, उद्घाटन, निरीक्षण की बागडोर मैडमों के हाथ में!

“इसे 21वीं सदी का लोकतंत्र कैसे कहा जाए, जिसमें सरकारी कार्य में घरवालों का ऐसा कोई दख़ल हो! अच्छा हो कि कोई पुख्ता नियम बने, जिसमें इनकी भागीदारी समाप्त की जाए। काश कि 2021 में रेल के बदलाव में यह बदलाव भी तुरंत शामिल हो!” -प्रेमपाल शर्मा

वैसे तो घर-परिवार के प्रबंधन की जिम्मेदारी सदियों से महिलाएं बखूबी संभालती और निभाती आ रही हैं। इसके अलावा, पिछले कुछ दशकों से वह घर की दहलीज लांघकर विभिन्न क्षेत्रों में प्रशासन और प्रबंधन की जिम्मेदारी भी बहुत अच्छी तरह निभा रही हैं।

यह भी सही है कि घर हो या बाहर, हर जगह पुरुषों की नकेल भी पूरी तरह महिलाओं के ही हाथों में होती है। इसका सर्वोत्तम और तात्कालिक उदाहरण रेलवे के कुछ महाप्रबंधक हैं, जिनकी नकेल, सिर्फ घर में ही नहीं, बाहर भी पूरी तरह उनकी निरंकुश लुगाई के हाथों में ही होती है।

किसी भी व्यक्ति की गरिमा उसके आचरण पर निर्भर करती है। परंतु जहां बात पद की गरिमा की आती है, वह सामाजिक हो या प्रशासनिक, वहां थोड़ी-बहुत नैतिकता और शुचिता का भान रखना अनिवार्य हो जाता है। यह भान स्त्री-पुरुष दोनों को ही अपने-अपने तौर पर रखना पड़ता है, क्योंकि प्रकृति ने दोनों एक-दूसरे के पूरक के रूप में बनाया है। यदि एक की मर्यादा जाती है, तो दूसरे की अपने आप चली जाती है।

अब बात यह है कि कुछ महाप्रबंधकों की पत्नियां उर्फ मैडमों द्वारा रेलवे की कुछ उत्पादन इकाईयों, रेलवे स्टेशनों, रेलवे कालोनियों, कारखानों का निरीक्षण बकायदे प्रोग्राम बनाकर किया जा रहा है।

इससे वहां के कर्मचारी और छोटे स्तर के अधिकारी असहज महसूस कर रहे हैं। कार्यालयीन अथवा प्रशासनिक या नौकरी की मजबूरी अथवा शिष्टाचार (प्रोटोकॉल), संकोच एवं असमंजस के कारण वह कुछ बोल तो नहीं पाते, मगर कसमसा जरूर जाते हैं।

जोनल रेलों या उत्पादन इकाईयों के महाप्रबंधक अगर रेलवे स्टेशनों, रेलवे कॉलोनियों या कारखानों का निरीक्षण करें, तो वह ऑफीसियल प्रोटोकॉल होता है, लेकिन श्रीमान विनोद कुमार यादव के रेलवे का हीरो (सीईओ) बनने के बाद से जहां एक तरफ जोनल रेलों/उत्पादन इकाईयों के सारे महाप्रबंधक “जीरो” हो गए, वहीं उनकी पत्नियां बकायदे ऑफीसियल टूर प्रोग्राम बनाकर रेलवे के कारखानों और रेलवे कॉलोनियों का निरीक्षण करने निकल पड़ती हैं, और किसी को कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि उनके लिए भी बकायदे प्रोटोकॉल जारी होता है।

पुरस्कार देना हो, या अवार्ड वितरण का कार्यक्रम हो, तो वह मैडम के हाथों से कराया जा रहा है। स्पोर्ट्स मीट हो, तो उसका उदघाटन मैडम के कर-कमलों द्वारा किया जा रहा है। जन-जागरूकता रैली निकल रही है, तो उसे हरी झंडी मैडम दिखा रही हैं।

जीएम इंस्पेक्शन है, तो मैडम अनिवार्य रूप से साथ जाएंगी ही, और जीएम को खुश करने अथवा उनकी नजर में आने के लिए ही सही, मंडल अधिकारी वहां मैडम जी के हाथों फीते कटवाकर, रिमोट से अनावरण करवाकर ऊल-जलूल उदघाटन कार्यक्रमों को अंजाम दे रहे होते हैं।

इससे रेलवे में ऐसा परिदृश्य उपस्थित होने लगा है कि अब रेलवे की कमान पुरुषों (महाप्रबंधकों) के नहीं, बल्कि स्त्रियों (उनकी मैडमों) के हाथों में है। महाप्रबंधक तो वह सिर्फ नाम के रह गए हैं, उनकी डोर तो कहीं और है। वह तो सीईओ अथवा मंत्री ने थामी हुई होती है।

इसीलिए सामान्य रेलकर्मी और अधिकारी मुंह बिचकाकर व्यंग्य से रेलवे के कथित सीईओ और मंत्री की जयकार कर रहे हैं और कह रहे हैं कि शायद यही सब ड्रामेबाजी करके वह रेलवे को आधुनिक प्रगति के रास्ते पर ले जाना चाहते हैं, क्योंकि रेलवे की दुर्गति तो वह पहले ही कर चुके हैं।

यह भी सर्वज्ञात है कि डिवीजनल, जोनल और बोर्ड तक बने महिला संगठनों के नाम पर कांट्रैक्टरों, सप्लायरों आदि से जो “कलेक्शन” होता है, उसका अधिकांश हिस्सा मैडमों की रंगबाजी अथवा शो-ऑफ की ही बलि चढ़ता है।

यह कलेक्शन संबंधित डिवीजन और जोन प्रमुख के पद के रसूख की बदौलत या दबाव में ही मातहतों के माध्यम से “कलेक्ट” करवाया जाता है। इस “कलेक्शन” का कोई हिसाब किसी “कलेक्टर” को कभी पता नहीं चलता। हालांकि अंदरखाने सबको इसका अंदाजा होता है कि इसका क्या हुआ और इसे कौन, किस रूप में ले गया!

पूर्व एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर, रेलवे बोर्ड, रेल मंत्रालय, श्री प्रेमपाल शर्मा का लेखन और वक्तव्य बहुत सौम्य होता है, परंतु इस संदर्भ में वह भी आत्मिक पीड़ा से कुछ तल्ख लहजे में कहते हैं, “रेलवे की इस सामंती चापलूसी और निहित स्वार्थी प्रवृति पर ‘कानाफूसी.कॉम’ ने बार-बार प्रहार किया है।”

वह कहते हैं, “इसे 21वीं सदी का लोकतंत्र कैसे कहा जाए, जिसमें सरकारी कार्य में घरवालों का ऐसा कोई दख़ल हो! अच्छा हो कि कोई पुख्ता नियम बने, जिसमें इनकी भागीदारी ही समाप्त कर दी जाए। इन्हें, लोगों का कल्याण करने और कल्याणकारी योजनाओं तथा उनके बहाने पैसा इकट्ठा करने, सरकारी खर्च पर दावतें उड़ाने, किटी पार्टियां करने आदि की याद तभी आती है, जब इनको ‘कुर्सी’ मिल जाती है। यह शर्मनाक है उन नौकरशाहों के लिए, जिनमें यदि तनिक भी शर्मोहया बची है। यदि नहीं, तो उन्हें चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए, जो ऐसी उंगलियों पर नाचते हैं।” वह आगे कहते हैं, “काश कि 2021 में रेल के बदलाव में यह बदलाव भी तुरंत शामिल हो!”

निश्चित रूप से इस सब में मैडमों की महत्वाकांक्षा, दिखावा, शो-बाजी और संबंधित महाप्रबंधकों द्वारा उन्हें अपने मातहतों के सामने “ओब्लाइज” करने आदि प्रवृतियों का समावेश होता है।

तथापि वह दोनों यह भूल जाते हैं कि जल्दी ही यह पद और रुतबा उनसे छिन जाने वाला है! यह स्थाई नहीं है! किसी के लिए भी यह आजतक स्थाई नहीं रहा! फिर क्या होगा! क्या रिटायरमेंट के बाद खुद के खर्च पर यह सारा शो-ऑफ वह कर पाएंगे, या कर सकते हैं!

क्या कोई बता सकता है कि “कांताबाई” आज की हाल में हैं, जिनके आगे-पीछे हर समय दासियों सरकारी नौकरों (रेलकर्मियों) की फौज लगी रहती थी? जिनके सामने डीआरएम स्तर तक के अधिकारी हाथ बांधे खड़े रहते थे और उनकी जद्द-बद्द सुनते थे, जिनके ऊपर मुफ्त की शराब पीकर वह उल्टियां करती थीं? और कल ‘तनुजा’ अथवा ‘कश्यप’ मैडम का क्या होगा?

इसीलिए रिटायरमेंट के बाद उनके यही मातहत न सिर्फ उन्हें हेय दृष्टि से देखने लगते हैं, बल्कि देखकर भी मुंह फेर लेते हैं। तब इन्हीं मातहतों की नजर में उनकी कौड़ी भर भी इज्जत नहीं रह जाती।

क्या यही सोचकर पद पर रहते वे खुद और उनके पद-रसूख की आड़ में उनकी मैडमें अपनी हर दबी हुई इच्छा-आकांक्षा पूरी कर लेना चाहती हैं? यदि ऐसा भी है, तो भी किस काम का, क्योंकि इसके लिए उन्हें अपनी गरिमा, अपनी मर्यादा, मान-सम्मान गवाना पड़ रहा है। बेशर्मी अपनाकर अपनी आत्मा गिरवी रखनी पड़ रही है।

इस कीमत पर यह सब करके अथवा पाकर जीवन के अंत तक भी क्या आत्मग्लानि से मुक्त होकर मुक्ति पा सकेंगे? यदि हां, तो और जमकर करें! यदि नहीं, तो यह सब तत्काल बंद कर दिया जाए! क्योंकि यह सब वैसे भी नियम, मर्यादा और पदानुरूप आचरण के विरुद्ध है।

प्रस्तुति: सुरेश त्रिपाठी

#IndianRailway #RailMinIndia #PiyushGoyal #VKYadav #CEO #CRB #GM #DRM #RailwayBoard #CLW #WesternRailway