गांव को जमींदार साहब की आर्थिक सहायता

इस काल्पनिक कहानी का 20 लाख करोड़ के सरकारी आर्थिक पैकेज से कोई संबंध नहीं है, विषय और स्थान की साम्यता केवल एक संयोग मात्र होगा!

एक बार एक गांव में बड़ी महामारी फैली। पूरे गांव को लंबे समय तक के लिए बंद कर दिया गया। केवट की नाव घाट पर बंध गई। कुम्‍हार का चाक चलते-चलते रुक गया। क्‍या पंडित का पत्रा, क्‍या बनिया की दूकान, क्‍या बढ़ई का वसुला और क्‍या लुहार की धौंकनी, सब बंद हो गए। सब लोग बड़े घबराए।

गांव के दबंग जमींदार ने सबको ढांढस बंधाया। सबको समझाया कि महामारी चार दिन की विपदा है। विपदा क्‍या है, यह तो संयम और सादगी का यज्ञ है। काम-धंधे की भागम-भाग से शांति के कुछ दिन हासिल करने का सुनहरा काल है। जमींदार के भक्‍तों ने जल्‍दी ही गांव में इसकी मुनादी करवा दी। गांव वालों ने भी कहा जमींदार साहब कह रहे हैं, तो यही सही होगा।

लेकिन जल्‍दी ही लोगों के घर चूल्‍हे बुझने लगे। फिर लोग दाने-दाने को मोहताज होने लगे। कई लोग भीख मांगने को मजबूर हो गए। तभी जमींदार साहब ने कहा कि यही समय पड़ोसी और गरीब की मदद करने का है। यह दरिद्र नारायण की सेवा का पर्व है।

लोग कुछ मन से और कुछ लोक मर्यादा से मदद करने लगे। उन्‍होंने सोचा कि चार दिन की बात है, मदद कर देते हैं। लेकिन मामला लंबा खिंच गया। मदद करने वालों की खुद की अंटी में दमड़ी नहीं बची, खुद के खाने के लाले पड़ने लगे। जब घर में ही खाने को न हो, ऐसे में दान कौन करे। स्थिति बहुत विकट हो गई।

गांव के सब लोग जमींदार की तरफ आशा भरी निगाहों से देखने लगे। जमींदार साहब यह बात बखूबी जानते थे। लेकिन उनकी खुद की हालत खराब थी। सब काम-धंधे बंद होने से न तो उन्‍हें चौथ मिल रहा था और न ही लगान वसूली हो रही थी। ऊपर से जो कर्ज उनकी जमींदारी ने बाहर से ले रखे थे, उसका ब्‍याज तो उन्‍हें चुकाना ही था।

लेकिन जमींदार साहब यह बात गांव वालों को बताते तो फिर उनकी चौधराहट का क्‍या होता। इसलिए उन्‍होंने कहा कि अगले सोमवार को वह पूरे गांव के लिए आर्थिक सहायता की घोषणा करेंगे। इतनी बड़ी घोषणा करेंगे, जितनी उनकी पूरी जमींदारी की आमदनी भी नहीं है। लोगों को लगा कि उनकी सूखती धान पर अब पानी पड़ने ही वाला है।

सोमवार आया। जमींदार साहब घोषणा शुरू करते उसके पहले उनके कारकुन ने आकर जमींदार साहब की तारीफ में कसीदे पढ़े। उन्‍हें सतयुग के राजा दलीप, द्वापर के दानवीर कर्ण और कलयुग के भामाशाह के साथ तौला।

अब जमींदार साहब ने घोषणा की: वह जो गांव के बाहर पड़ती जमीन पड़ी है, उस पर अगले साल गांव वाले खेती करें और खूब अनाज उपजाएं, चाहें तो नकदी फसलें भी लगाएं। उन्‍हें विदेशों को बेचें और लाखों रुपये कमाएं। मेरी ओर से लाखों रुपये की यह भेंट स्‍वीकार करें। फिर उन्‍होंने कहा कि गांव के चार साहूकारों के पास खूब पैसा है, जाओ जाकर जितना उधार लेना है, ले लो। यह मेरी ओर से आप लोगों को दूसरी सौगात है।

इन दो घोषणाओं के बाद लोग एक दूसरे का मुंह देखने लगे कि यह क्‍या बात हुई। जमींदार साहब तो मुफ्त का चंदन, घिस मेरे नंदन, जैसी बातें कर रहे हैं। हमारे लिए कुछ कहेंगे या नहीं।

गांव वालों की खुसर-फुसर शुरू हो पाती, इससे पहले ही जमींदार साहब ने कहा: बहुत से लोग घर में राशन न होने और भूखे रखने की शिकायत कर रहे हैं। उन्‍हें चिंता की जरूरत नहीं है, उनके लिए तो मैंने महामारी के शुरू में ही राशन दे दिया था। उनके पास तो खाने की कमी हो ही नहीं सकती। लोगों ने अपने भूखे पेट की तरफ देखा और सोचा कि जो हम जो खा चुके हैं, क्‍या उसे दुबारा खा सकते हैं!

जमींदार साहब ने आगे घोषणा की कि जिन कुम्‍हारों का चाक नहीं चल रहा है, जिन पंडित जी का पत्रा नहीं खुल पा रहा है, जिस लुहार की धोंकनी नहीं चल रही और जिस केवट की नाव घाट पर लंबे समय से बंधी पड़ी है, वे बिलकुल परेशान न हों। पत्रा बनाने वाली, धोंकनी बनाने वाली और नाव बनाने वाली कंपनियां भी बड़े साहूकारों से कर्ज ले सकती हैं और इन चीजों का निर्माण शुरू कर सकती हैं। हम आपदा को अवसर में बदलने के लिए तैयार हैं। यही ग्राम निर्माण का सबसे बड़ा अवसर है।

केवट और पंडित जी एक दूसरे को देखकर सोचने लगे कि कंपनियों को कर्ज मिलने से हमारा काम कैसे शुरू हो जाएगा!

जमींदार साहब ने आगे कहा: हम चौथ और लगान वसूली में कोई कमी तो नहीं कर रहे, लेकिन लोग चाहें तो दो महीने की मोहलत ले सकते हैं। यह हमारी ओर से गांव वालों को एक और आर्थिक उपहार है।

इससे पहले कि गांव वाले कुछ सवाल करते, सभा में जोर का जयकारा होने लगा। जमींदार साहब के कारिंदों और भक्तों ने जमींदार साहब की जय और ग्राम माता की जय के नारे गुंजार कर दिए। चारों तरफ खबर फैल गई कि गांव में ज्ञात इतिहास की सबसे बड़ी आर्थिक सहायता पहुंच चुकी है।

यह हल्‍ला तब तक चलता रहा, जब तक कि हर आदमी को यह नहीं लगने लगा कि उसके अलावा सभी को मदद मिल गई है। उसे लगा कि वही एक अभागा है, जो मदद से वंचित है। जमींदार साहब की नीयत तो अच्‍छी है। जब सबको दिया है, तो उसे क्‍यों नहीं देंगे। अब उसकी किस्‍मत ही फूटी है, तो जमींदार साहब क्‍या करें। उसने भी जमींदार साहब का जयकारा लगाया।

बस, गांव के दो बुजुर्ग थे, जो कब्र में पांव लटकाए यह तमाशा देख रहे थे। वे कुछ कहना तो चाह रहे थे, लेकिन इस डर से कि कहीं जमींदार के कारिंदे उन्‍हें ग्राम द्रोह के आरोप में जेल में न डलवा दें, इसलिए चुप ही बने रहे। इसके अलावा उन्‍हें उन्‍मादी भीड़ की लिंचिंग का भी डर था। इसलिए उन्‍होंने चुपचाप एक लोटा पानी पिया और जोर की डकार ली।

#साभार सोशल मीडिया