इधर देश उलझा है सीएए/एनआरसी के चक्कर में, उधर चुपचाप हो रहा है रेलवे का निजीकरण
देश की संवैधानिक और पारंपरिक प्रक्रियाओं का हो रहा खुला उल्लंघन, किया जा रहा है जन-आकांक्षाओं का मान-मर्दन
जनता की गाढ़ी कमाई से बनी देश की वेशकीमती संपदा का निजीकरण करके खुद की रियासतें बनाने में लगे हैं तथाकथित राजनेता!
सुरेश त्रिपाठी*
पूरे देश को सीएए/एनआरसी की भंवर में उलझाकर और भारतीय रेल के करीब 14000 अधिकारियों को कैडर मर्जर में लपेटकर तथा लगभग 13.30 लाख रेलकर्मियों को 30/55 के चक्कर में फंसाकर और उनके अंदर नौकरी जाने का डर पैदा करके तथा उन्हें निकम्मा बताकर रेलवे के निजीकरण का काम चुपचाप किया जा रहा है। हालांकि मान्यताप्राप्त रेल संगठन इस सबका अपनी तौर पर पुरजोर विरोध कर रहे हैं, मगर उनके इस विरोध का सरकार पर कोई असर नहीं हो रहा है। सरकार ने पिछले कुछ सालों से विरोध/शिकायतों को अनदेखा और विरोधी स्वरों को अनसुना करने की अघोषित नीति अपना रखी है।
रेल कारखानों और 150 ट्रेनों सहित अन्य कई प्रकार से किए जा रहे निजीकरण के खिलाफ मान्यताप्राप्त रेल संगठनों ने गत दिनों एनसी-जेसीएम का बहिष्कार किया। इसके अलावा सभी जोनल/मंडल मुख्यालयों पर एक हफ्ते तक विरोध सप्ताह मनाया और अब दोनों रेल संगठन ‘रेल बचाओ-देश बचाओ’ संगोष्ठियां कर रहे हैं। इधर मान्यताप्राप्त रेल संगठन अपने अस्तित्व को बचाने में लगे हुए हैं। उधर अधिकारियों को कैडर मर्जर में उलझाकर उन्हें आपस में बांट दिया गया है। यही नहीं, एक ‘डपोरशंख’ सलाहकार ने सत्ता की दलाली करते हुए कैडर मर्जर पर एक अधिकारी संगठन का समर्थन घोषित कर दिया है।
उपरोक्त हालात के मद्देनजर यदि चुपचाप रेलवे के निजीकरण का निर्णय हो गया, तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। अब सरकार ने रेलवे के निजीकरण को मंजूरी दी ही दी है, तो रेलवे के सबसे कमाऊ और व्यस्त 100 रेल मार्गों पर 150 निजी ऑपरेटरों की निजी ट्रेनें चलेंगी और जनता से निजी ऑपरेटरों द्वारा मनमाना किराया वसूल किया जाएगा। परंतु सरकार ने यह स्पष्ट नहीं किया है कि क्या इन निजी ट्रेनों के इंजन और कोच भी निजी होंगे या फिर यह सब पहले की ही भांति सरकारी संपत्तियां रहेंगी? क्या वे फैक्ट्रियां, जहां कोच, धुरा, पहिया इत्यादि बनते हैं, वह सरकार के पास ही रहेंगी, अथवा वह भी प्राइवेट हाथों में बेच दी जाएंगी?
रेलवे स्टेशन, उनका रखरखाव, यह सब प्राइवेट को सौंपा जाएगा या सरकार के पास रहेगा! टिकटिंग, सिग्नलिंग आदि का क्या किया जाएगा! अभी सिर्फ तेजस एक्सप्रेस का ही प्रयोग किया गया है, जिसमें कैटरिंग सर्विस को अन्य ट्रेनों की तरह निजी हाथों में सौंपा गया है, जबकि कहा यह जा रहा है कि यह पूरी ट्रेन निजी ऑपरेटर को सौंप दी गई है। तथापि सिर्फ कुछ लड़कियों को चुनकर उनको एयर होस्टेस जैसे टाइट ड्रेस पहनाकर और वैसा मैनरिज्म सिखाकर यदि यह सोचा जा रहा है कि ट्रेन प्राइवेट हो गई, रेलवे का निजीकरण हो गया, तो यह प्रयोग कम से कम तेजस के मामले में तो सफल नहीं हुआ है। यह एक बड़ा मुगालता ही नहीं, बल्कि एक बहुत बड़ा धोखा भी है।
इसके अलावा, जनता के पैसे (टैक्स) यानि जनता की गाढ़ी कमाई से रेलवे की जो-जो संपत्तियां बनी हैं, वह चाहे कोच और इंजन हों, कोच फैक्ट्रियां हों, रेल लाइनें हों, रेलवे स्टेशन हों, स्टाफ हो, रेलवे की जमीन हो, यह सब जनता के टैक्स से बने हैं। इन्हें बेचा नहीं जा सकता है और बेचा भी नहीं जाना चाहिए।
तथापि यदि बेचना अपरिहार्य ही है, तो इनकी बोलियां लगाकर इन्हें औने-पौने दाम पर अपने कुछ चहेतों को सौंपने के बजाय, ओपन टेंडरिंग का पारदर्शी तरीका अपनाया जाना चाहिए। अथवा यदि निजी क्षेत्र रेल चलाने के लिए इतना ही उत्सुक और सक्षम है, तो उसे इसके लिए अपनी अलग रेल लाइनें बिछाकर और पूरा इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा करके रेल चलाने की अनुमति दी जाए। परंतु इस सबसे ध्यान हटाने के लिए देश में जो कुछ चलाया जा रहा है, वह ठीक नहीं है। यह कहना है तमाम वरिष्ठ रेल अधिकारियों और रेलवे क्षेत्र के विषेशज्ञों का।
यह बात सार्वभौमिक रूप से सत्य साबित हुई है कि रेलवे का निजीकरण कभी सफल नहीं हुआ है। तमाम विशेषज्ञों का भी यही मानना है। उनका कहना है कि इंग्लैंड सहित विश्व भर में अब तक जिन-जिन देशों में रेलवे का निजीकरण किया गया, उन सभी देशों को अंततः उनका पुनर्राष्ट्रीयकरण करना पड़ा है। उनका यह भी कहना है कि दुनिया के जिन-जिन देशों ने रेलवे का निजीकरण किया, उन्हें बाद में उसका राष्ट्रीयकरण करने के लिए मजबूर होना पड़ा है।
ब्रिटेन ने भी कुछ साल पहले अपनी ब्रिटिश रेलवे का निजीकरण किया था, अब वहां भी एक-एक करके रेल लाइनों का राष्ट्रीयकरण किया जा रहा है। यहां यह भी बताना जरूरी है कि ब्रिटेन की तत्कालीन सरकार ने अपनी ही पार्टी के उद्योगपति सांसदों को अपनी रेलवे को तोड़कर और कंपनियों में उसके तुकड़े करके सौंपी थी। इन सांसदों ने इस दरम्यान रेलवे से सिर्फ मुनाफा कमाया, मगर उनके रखरखाव और प्रगति पर कोई तवज्जो नहीं दी। नतीजा यह हुआ कि रेल दुर्घटनाएं बढ़ती गईं, जिससे वहां की जनता में सरकार के खिलाफ गुस्सा भर गया और रेलवे के पुनर्राष्ट्रीयकरण की मांग जोर पकड़ने लगी। इसके परिणामस्वरूप ब्रिटिश सरकार को रेल का राष्ट्रीयकरण करने के लिए मजबूर होना पड़ा है।
उल्लेखनीय है कि अर्जेंटीना को भी रेल दुर्घटनाओं में भारी वृद्धि के बाद वर्ष 2015 में रेलवे का फिर से राष्ट्रीयकरण करना पड़ा था। इसी तरह न्यूजीलैंड ने भी वर्ष 1980 में रेलवे का निजीकरण किया था, उसको भी 2008 में भारी घाटे के बाद रेलवे का पुनर्राष्ट्रीयकरण करने के लिए मजबूर होना पड़ा। यही हाल आस्ट्रेलिया का भी हुआ, जहां आस्ट्रेलियाई जनता द्वारा बड़े पैमाने पर चलाए गए ‘हमारा ट्रैक वापस लो’ आंदोलन के बाद वहां की सरकार को रेलवे को फिर से अपने हाथों में लेना पड़ा।
ऐसा ही कुछ अब भारत में भी किया जा रहा है। वर्तमान केंद्र सरकार अपने चहेते कुछ उद्योग घरानों को रेलवे की वेशकीमती संपदा सौंपने की नीति पर चलती नजर आ रही है। ऐसा लगता है कि सरकार ने दुनिया के अनुभव और इतिहास से कोई सबक नहीं लिया है, जिसके परिणाम निकट भविष्य में बहुत घातक सिद्ध हो सकते हैं और देश की 132 करोड़ जनता को इसका बहुत बुरा खामियाजा भुगतना पड़ सकता है।
सच्चाई यह है कि शिक्षा, स्वास्थ्य और परिवहन यह तीनों विषय न सिर्फ सब्सिडाइज्ड होने चाहिए, बल्कि सरकार के ही हाथों में रहना चाहिए, ताकि जनता को इसका लाभ और सुविधा मिलती रहे। यह तीनों विषय देश की जनता के लिए बिना किसी भेदभाव के समान रूप से उपलब्ध होने चाहिए। लेकिन प्रत्यक्ष रूप से देखने में यह आ रहा है कि हमारी सरकार इन तीनों विषयों को न सिर्फ बरबाद कर रही है, बल्कि इन्हें एक-एक करके निजी हाथों में सौंपती जा रही है। जहां देश में शिक्षा का बुरा हाल है, वहीं तमाम सरकारी अस्पताल खुद बीमार हैं।
जबकि राज्यों की परिवहन व्यवस्था जहां लगभग राजनीतिक लोगों या उनके सिपहसालारों के हाथों में खेल रही है, वहीं केंद्र सरकार के स्वामित्व वाली एकमात्र बची भारतीय रेल, जो इस देश के सर्वसामान्य सहित सबसे निचले तबके की सवारी है, पर भी इनकी नजर लगी हुई है। इसे भी अब बेचने की शुरूआत कर दी गई है। रेलवे की कुछ वेशकीमती जमीनें अपने चहेतों को बेच दी गई हैं, अथवा लंबे समय की लीज पर दे दी गई हैं। अब ट्रेनें बेची जा रही हैं। देश और जनता की किसी को फिक्र नहीं है, सभी राजनीतिक लोग सिर्फ अपनी-अपनी रियासतें बनाने में लगे हुए हैं।
दिल्ली मेट्रो की नीति का पालन करने के बजाय मनमानी तरीके से भारतीय रेल का बंटाधार किया जा रहा है। अब ये जो 150 निजी ट्रेनें 100 कमाऊ और फायदे वाले रेल मार्गों पर चलाई जाने वाली हैं, उनके 15 मिनट आगे और 15 मिनट पीछे भारतीय रेल की कोई ट्रेन नहीं चलेगी। यह फैसला चुपचाप ले लिया गया और पूरे देश का ध्यान एक ऐसे मुद्दे पर उलझा दिया गया, जो कि बहुत महत्वपूर्ण होने के बावजूद देश की अत्यंत कीमती संपत्ति निजी हाथों में सौंपने से ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं हो सकता है। लेकिन ऐसे फैसले चुपचाप लिए जा रहे हैं, जिनके लिए देश की जनता को चौतरफा चौकन्ना रहने की जरूरत है।
कहा जा रहा है कि मोदी सरकार अब खुलकर रेलवे का निजीकरण करने पर उतर आई है। प्राइवेट ऑपरेटरों को 100 रेलमार्गों पर 150 प्राइवेट ट्रेनों के परिचालन की अनुमति दे दी गई है। पीटीआई के मुताबिक निवेश को लेकर ‘निजी भागीदारी: यात्री रेलगाड़ियां’ शीर्षक से एक डिस्कशन पेपर लाया गया है, जिसमें कहा गया है कि इन 100 मार्गों पर निजी इकाईयों को 150 गाड़ियों के संचालन की अनुमति देने से 22,500 करोड़ रुपये का निवेश आएगा।
खास बात यह है कि इन प्राइवेट ऑपरेटरों को अपनी गाड़ियों में बाजार के अनुसार किराया वसूलने की छूट होगी। वे इन गाड़ियों में अपनी सुविधा के हिसाब से विभिन्न श्रेणियों की बोगियां लगाने के साथ-साथ रूट पर उनके ठहराव वाले स्टेशनों का भी चयन कर सकेंगे। अभी तक तेजस में प्राइवेट आपरेटर को किराया तय करने के अलावा ट्रेन के भीतर अपना टिकट चेकिंग और कैटरिंग एवं हाउसकीपिंग स्टाफ रखने की छूट है।
रेलवे अपने इंफ्रास्ट्रक्चर एवं रनिंग स्टाफ का उपयोग करने के लिए प्राइवेट आपरेटर से हॉलेज शुल्क वसूल रहा है, लेकिन अब जो 150 ट्रेनों को संचालित करने की योजना बनाई गई है, इसमें रेलवे बोर्ड निजी आपरेटरों के साथ सीधे कंसेशन एग्रीमेंट करने जा रहा है। अब प्राइवेट आपरेटरों को रोलिंग स्टॉक के चयन में भी छूट मिलने जा रही है। प्राइवेट ऑपरेटर चाहे तो विदेशों से ट्रेनसेट/कोच का आयात कर संचालन कर सकता है। उस पर भारतीय रेल के कारखानों में बने ट्रेनसेट्स और कोचों का उपयोग करने की शर्त लागू नहीं होगी।
यानी देश के बड़े-बड़े रेलवे कारखानों पर भी जल्दी ताला लगने वाला है।
सबसे बड़ी बात तो यह है कि देश में पहली प्राइवेट ट्रेन ‘तेजस एक्सप्रेस’ के मुनाफे के बारे में झूठी खबरें फैलाई गईं और यह कहा गया कि इसे एक महीने में ही 70 लाख रुपए का मुनाफा हुआ। लेकिन इस पर संसद में उठाए गए सवाल के जवाब में जो बताया गया, उससे इसकी असलियत सबके सामने आ गई। संसद में बताया गया, तेजस को 447.04 लाख रुपये की कुल आमदनी हुई और 439.31 लाख रुपये का खर्च हुआ। इसका अर्थ यह है कि मात्र 7.73 लाख रुपये का मुनाफा हुआ है। इस दरम्यान तेजस की ऑक्यूपेंसी भी मात्र 62% रही है, जबकि इसी रूट पर चलने वाली शताब्दी एक्सप्रेस की ऑक्यूपेंसी 90% से 100% के बीच रही है।
रेलमंत्री कह रहे थे कि दिल्ली-लखनऊ तेजस एक्सप्रेस को प्रायोगिक आधार पर चलाया गया है। यदि उनकी कही गई यह बात सच है और रेलमंत्री अभी भी अपनी कही गई बात पर कायम हैं, और अब जब तेजस एक्स. का प्रयोग भी असफल हो गया है, तो क्या रेलमंत्री देश को बताएंगे कि फिर कैसे 150 प्राइवेट ट्रेनों को चलाने की अनुमति दी जा रही है?
क्या रेलमंत्री देश के सामने यह भी खुलासा करेंगे कि 26 साल पुरानी रिपोर्ट के आधार पर कैडर मर्जर करके रेलवे का कौन सा भला होने वाला है? और यह भी कि संसद की अनुमति के बिना, सिर्फ कैबिनेट से पास करवाकर, यह कैडर मर्जर संवैधानिक कैसे हो सकता है? क्या रेलमंत्री यह भी बताएंगे कि इस कथित कैडर मर्जर से संविधान के चैप्टर 18, आर्टिकल 309 का उल्लंघन नहीं हो रहा है?
*लेखक, www.railsamachar.com के संपादक हैं और उपरोक्त उनके निजी विचार हैं।