भारतीय रेल राष्ट्रीय अकादमी का अवसान – बड़ी चालाकी से हड़पा गया एक रेल संस्थान!
रेलवे के गौरवपूर्ण प्रशिक्षण संस्थान का पतन: न खुदा मिला, न विसाल-ए-सनम
जिस प्रकार इस देश के बहुसंख्यक हिंदुओं की सामूहिक गुलामी का प्रतीक रहा है श्रीराम जन्मभूमि के ऊपर किया गया बाबरी मस्जिद का निर्माण, काशी-विश्वनाथ मंदिर के ऊपर किया गया ज्ञान वापी मस्जिद का निर्माण, और मथुरा में श्रीकृष्ण जन्मभूमि के ऊपर किया गया मस्जिद का निर्माण, तथा जिस प्रकार बहुसंख्यकों के छल करके उन्हें कायर बनाया गया, उसी प्रकार भारतीय रेल के हजारों अधिकारियों की सामूहिक गुलामी, जनखई और कायरता का प्रमाण बन रहा है, भारतीय रेल राष्ट्रीय अकादमी (#NAIR, #नायर) – पूर्व नाम रेलवे स्टाफ कॉलेज (#RSC) – की छाती पर बनाया गया गति शक्ति विश्वविद्यालय!
प्रारंभ से ही शिथिलता और गतिहीनता का शिकार GSV
माना की गति शक्ति विश्वविद्यालय (#GSV) माननीय प्रधानमंत्री की सोच की उपज है। तथापि यदि ऐसा है तो इतनी प्रतिष्ठित परियोजना के लिए धन अथवा धरती की क्या कभी कोई कमी हो सकती थी? यदि एक उत्कृष्ट विश्वविद्यालय बनाना ही लक्ष्य था, तो वड़ोदरा में अच्छी से अच्छी जगह यह भूमि अधिग्रहीत की जा सकती थी, अच्छे-से-अच्छे आर्किटेक्ट को नियुक्त करके महान एवं भव्य विश्वविद्यालय का निर्माण 3-4 वर्षों में किया जा सकता था। किंतु लगभग पाँच वर्षों का समय कामचोर और खुशामदी रेल प्रबंधन ने कामचोरी में ही गँवा दिया, और अपना सारा ध्यान बारह लाख रेलकर्मियों तथा इस देश की जनता के साथ चीटिंग करने-करवाने में ही लगाए रखा।
चूंकि इस विश्वविद्यालय के निर्माण की जिम्मेदारी भारतीय रेल को दी गई थी, इसलिए इसका सारा प्रोजेक्ट मैनेजमेंट भारतीय रेल के अफसरों को ही करना था। लेकिन कामचोरी में दक्ष और चाटुकारिता में अग्रणी रेल के अधिकारियों ने शॉर्टकट निकाला – एक बनी-बनाई-स्थापित सुंदर सी रेलवे की प्रशिक्षण इकाई, जो कि भारतीय रेल के अधिकारियों की सेंट्रलाइज्ड ट्रेनिंग का गौरव हुआ करती थी, उसे थाली में सजाकर एक प्राइवेट व्यक्ति द्वारा शीर्षस्था की यूनिवर्सिटी को दे दिया गया। यदि एक नए कैंपस की परिकल्पना की गई होती तो आधुनिक सुख-सुविधाओं से सुसज्जित एक वर्ल्ड-क्लास विश्वविद्यालय बनाया जा सकता था, जिसमें आधुनिकतम प्रयोगशालाएँ, सभागार, और प्रशिक्षण सुविधाएँ होतीं, जो कि जमालपुर स्थित इरिमी से भी बेहतर होतीं। लेकिन उसके लिए एस्टिमेट बनाना पड़ता है, नक्शे बनाने पड़ते हैं, ढ़ाँचा खड़ा करना पड़ता है, तमाम व्यवस्था करनी पड़ती है, पूरी परियोजना की कौशल एवं कुशलतापूर्वक हैंडलिंग करनी पड़ती है; कुल मिलाकर कड़ा परिश्रम करना पड़ता है, दिमाग लगाना पड़ता है, जिसमें दुष्टता के प्रतीक रहे विनोद कुमार यादव, सुशांत कुमार मिश्रा, अलका अरोड़ा मिश्रा, सुधीर कुमार, नवीन कुमार, जितेंद्र सिंह जैसे अधिकांश रेल अधिकारी हमेशा ही कमतर पाए गए हैं।
GSV के आरंभिक दिनों में की गई गड़बड़ियाँ
इसके लिए रेलवे बोर्ड में पदस्थ एक कार्यकारी निदेशक/ट्रेनिंग एवं मैनपॉवर प्लानिंग ने यह तरकीब निकाली कि क्यों न रेलवे की बनी-बनाई प्रशिक्षण इकाई ही सीधे-सीधे गति शक्ति विश्वविद्यालय को दे दी जाए। ज्ञातव्य है कि उक्त अधिकारी – सुश्री अलका अरोड़ा मिश्रा – की नियुक्ति कालांतर में अतिरिक्त महानिदेशक (#ADG) के पद पर में हुई थी, लेकिन उनकी समर्पण नीति के पुरस्कारस्वरूप तत्कालीन रेलमंत्री ने लेवल-16 के नायर के पद को रेलवे बोर्ड में स्थानांतरित किया तथा उन्हें दिल्ली में ही अतिरिक्त सदस्य के पद पर नियुक्त कर दिया। यह धांधली करने के लिए एसीसी को भी अंधकार में रखा गया।
उल्लेखनीय है कि लेवल-16 के किसी भी पद के परिचालन अथवा उस पर नियुक्ति के लिए नियमानुसार एसीसी का अनुमोदन आवश्यक होता है। लेकिन सुश्री अलका अरोड़ा मिश्रा को अन्य रेल अधिकारियों के अधिकार को मारकर एक निरर्थक-सी यूनिवर्सिटी के पक्ष में अनधिकृत निर्णय लेने का पुरस्कार दिया गया। इस शर्मनाक आत्म-समर्पण में वर्तमान रेलमंत्री एवं उनके महाषड्यंत्रकारी सलाहकार सुधीर कुमार ने भी अपना पूरा योगदान दिया। इस जोड़ी – रेलमंत्री और उनके सलाहकार – के दो ही उद्देश्य रहे हैं – बड़े-बड़े टेंडर करना और रेल अधिकारियों के मनोबल को ध्वस्त करना!
रेलवे में माँझी ही नाव डुबाता है!
रेल अधिकारियों के मनोबल एवं उनके आत्मसम्मान, पद-प्रतिष्ठा को तब एक और अपरिवर्तनीय झटका लगा, जब नायर की सारी परिसम्पत्तियाँ इस कथित रूप से निरर्थक गति शक्ति विश्वविद्यालय को हस्तांतरित कर दी गईं। सोमवार, 18 दिसंबर 2023 को रेलवे बोर्ड द्वारा जारी पत्र के अनुसार नायर की सारी संपत्ति, सारे उपकरण, सारे संसाधन, गति शक्ति विश्वविद्यालय को मुफ्त में परोस दिए गए हैं। यह विस्मयकारी निर्णय है, जिसमें रेल अधिकारियों का गौरव-मुकुट समझा जाने वाला रेलवे स्टाफ कॉलेज – वर्तमान में भारतीय रेल राष्ट्रीय अकादमी (नायर) – जिसमें समस्त रेल अधिकारियों का फाउंडेशन पाठ्यक्रम आयोजित किया जाता था, कतिपय अकर्मण्य, अक्षम एवं केचुआ टाइप चाटुकार अधिकारियों के अतार्किक निर्णय से संपूर्ण रूप से कैसे नष्ट किया जा सकता है, यह देखने में आ रहा है।
क्या भारतीय प्रशासनिक सेवा (#IAS) के अधिकारियों के लिए बनी ऐतिहासिक मसूरी-स्थित लाल बहादुर शास्त्री अकादमी को ऐसे ही सरेंडर किया जा सकता था? क्या हैदराबाद स्थित भारतीय पुलिस सेवा (#IPS) के अधिकारियों के केंद्रीय संस्थान, सरदार पटेल अकादमी किसी रीढ़हीन आईपीएस अधिकारी के निर्णय से ऐसे ही किसी विश्वविद्यालय को प्रदान किया जा सकता था? क्या देहरादून स्थित भारतीय वन अधिकारियों का केंद्रीयकृत प्रशिक्षण संस्थान ऐसे ही किसी पॉलिटेक्निक को दिया जा सकता है? क्या पुणे की खड़गवासला स्थित राष्ट्रीय रक्षा अकादमी (#NDA) को किसी और की ट्रेनिंग के लिए सौंपा जा सकता है? ऐसा खतरा महसूस होते ही संबंधित कैडर्स के अधिकारी ऐसी शातिराना चालों का एकजुटता से विरोध करते। किंतु रेलवे में तो माँझी ही नाव डुबाता है!
आश्चर्य तो यह है कि नायर को आज भी आधिकारिक तौर पर बंद नहीं किया गया है। उसके महानिदेशक, समस्त प्राध्यापक, और कर्मचारी आज भी एक ऐसे संस्थान में नियुक्त हैं जिसका न कोई भवन है, न कार्यालय है, न चेंबर है, न बैठने का स्थान है, न ही आवास और अन्य सुविधाएँ, क्योंकि ये सब अब गति शक्ति विश्वविद्यालय को सौंपे जा चुके हैं। हालाँकि ये सब पहले ही जबरन कब्जाए जा चुके थे और डीजी/नायर के पद पर नियुक्त हुए अधिकारियों सहित यहाँ पहले से कार्यरत तमाम तथाकथित प्रोफेसर जनखों की भाँति यह सब केवल देखते रहे। समझ में नहीं आता कि नायर जैसा संस्थान बिना किसी भवन, बिना किसी उपकरण, बिना किसी संसाधन, बिना किसी आवास के कैसे अस्तित्व में रह सकता है? 18 दिसंबर के उक्त पत्र में यह भी लिखा गया है कि नायर को यदि कोई पाठ्यक्रम का आयोजन करना पड़े, तो वह गति शक्ति विश्वविद्यालय के उपकुलपति से अनुमति लेकर गति शक्ति विश्वविद्यालय के ही परिसर में – जो कि अब तक नायर का ही था – आयोजित कर सकते हैं। विडंबना है कि रेल के गौरव रेलवे स्टाफ कॉलेज को अब अपने ही परिसर के उपयोग के लिए एक गैर-रेलवे अर्थात् एक प्राइवेट अथॉरिटी से अनुमति लेनी पड़ेगी, और संभवत: ऐसे उपयोग के लिए उसे अब किराया भी चुकाना पड़ेगा। यह सब किसी छिपी हुई कुटिल चालबाजी से कम नहीं है।
GSV की रेल भवन प्रदत्त लाचारी और उस पर भेंट चढ़ते रेल के पुराने ट्रेनिंग इंस्टिट्यूट
यही नहीं, इस पत्र में यह भी संभावना व्यक्त की गई है कि गति शक्ति विश्वविद्यालय को रेल संबंधित विषयों के अध्यापन में समुचित दक्षता नहीं है। इस कमी को पूरा करने के लिए गति शक्ति विश्वविद्यालय जब चाहे रेलवे के दूसरे केंद्रीय प्रशिक्षण केन्द्रों, जैसे #IRIMEE, #IRICEN, #IRIEEN, #IRITM, #IRISAT, #IRIFM इत्यादि, से प्राध्यापकों की माँग कर सकता है। यह इन संस्थानों के लिए अनिवार्य होगा कि वे गति शक्ति विश्वविद्यालय के बुलावे को भागकर बिना किसी हीला-हवाली के स्वीकार करें। सोचने की बात यह है कि रेलवे के अन्य केंद्रीय प्रशिक्षण केंद्रों के महानिदेशक, जो कि लेवल-16 के वरिष्ठ रेल अधिकारी हैं, क्या अब वे गति शक्ति विश्वविद्यालय के उपकुलपति – जो कि उनसे निचले स्तर के वेतनमान में और एक प्राइवेट व्यक्ति हैं, अथवा एक बाहरी-निजी संस्थान के पदाधिकारी हैं – को रिपोर्ट करेंगे?
यहाँ इतिहास का थोड़ा अवलोकन करें तो पता चलेगा कि बड़ौदा नरेश महाराज गायकवाड़ ने न केवल बड़ौदा स्थित अपना महल – प्रताप विलास पैलेस – रेलवे को दान में दे दिया था, बल्कि नई दिल्ली स्थित उत्तर रेलवे मुख्यालय के लिए अपना बड़ौदा हाउस का दान भी उन्होंने ही दिया था। ऐसी संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि यदि गति शक्ति विश्वविद्यालय माँग करे कि उन्हें दिल्ली में भी एक कैंपस खोलना है, तो रेलवे के रीढ़हीन अधिकारी तत्काल ही यह बड़ौदा हाउस भी खाली करवाकर गति शक्ति विश्वविद्यालय के हाथों सौंप देंगे! यह अकल्पनीय नहीं है, क्योंकि कुछ ही वर्ष पहले एक रेलमंत्री की सनक में मध्य रेल की मुख्यालय बिल्डिंग, जो कि एक वर्ल्ड हेरिटेज साइट है, को एक प्राइवेट म्यूजियम में बदलने की पूरी तैयारी हो चुकी थी। अतः कोई आश्चर्य नहीं होगा यदि बड़ौदा हाउस को भी निकट भविष्य में एक निरर्थक विश्वविद्यालय की भेंट चढ़ा दिया जाए!
NRTU से बना NRTI, उससे बना GSV क्यों निरर्थक है?
गति शक्ति विश्वविद्यालय निरर्थक क्यों है? रेलवे के अधिकारियों की बुद्धि के दिवालियेपन का एक और प्रमाण यह है कि उन्होंने गति शक्ति विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त स्नातकों की नियुक्ति या उनके उपयोग का कोई यथोचित उपाय नहीं सोचा। हालाँकि ऐसा कोई उपाय हो भी नहीं सकता, क्योंकि रेलवे में ग्रुप ‘ए’ की भर्ती केवल केंद्रीय लोक सेवा आयोग (#UPSC) के माध्यम से ही होती है। गति शक्ति विश्वविद्यालय में भर्ती होने वाले छात्रों को न तो उनकी भर्ती के पहले, और न ही उनकी शिक्षा के बाद, #UPSC की ओर से कोई परीक्षा देनी होती है, न ही उन्हें इसका कोई प्रमाण-पत्र मिलता है। अतः वहाँ के ग्रेजुएट तीन या चार वर्षों की दिशाहीन शिक्षा के बाद खुले बाजार में अपने भाग्य की आजमाइश वैसे ही करेंगे जैसे किसी भी अन्य तृतीय श्रेणी के विश्वविद्यालय के छात्र करते हैं। यह एक जाँच का विषय होना चाहिए कि प्रधानमंत्री की दूरदृष्टि से प्रभावित और प्रेरित विश्वविद्यालय को ऐसे अधर में क्यों छोड़ दिया गया? यह भी एक जाँच का विषय होना चाहिए कि यह विश्वविद्यालय बनने के इतने वर्षों बाद भी इसमें अच्छे स्तर के प्राध्यापक क्यों नहीं नियुक्त किए जा सके? और क्यों इस विश्वविद्यालय को रेलवे के प्रशिक्षण संस्थानों से अध्यापक बुलाने पड़ते हैं – वह भी जबरन – जो कि न तो विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (#UGC), और न ही ऑल इंडिया काउंसिल फॉर टेक्निकल एजुकेशन (#AICTE) के मापदंड में सक्षम होते हैं!
अधिकारियों के लिए बनी व्यवस्था पर छात्रों को रखना, छात्रों के लिए भी ठीक नहीं
जिस तत्परता से, चाटुकारिता की पराकाष्ठा को पार करके रेलवे के रीढ़हीन अधिकारियों ने नायर की समस्त परिसंपत्तियों को एक निरर्थक विश्वविद्यालय को सौंप दिया, यह रेलवे के प्रबंधन, उसके प्रोबेशनरी अधिकारियों, तथा सेवारत अधिकारियों के लिए भी अत्यंत शर्मनाक बात है। प्रोबेशनरी अधिकारियों के लिए बनाया गया बहुमंजिला एयरकंडीशन होस्टल भी गति शक्ति विश्वविद्यालय के छात्रों के लिए समर्पित कर दिया गया। भारत के किसी भी संस्थान में, यहाँ तक कि #IIT और #IIM में भी छात्रों के लिए एयरकंडीशन छात्रावास नहीं होते। इसके पहले भी नायर के अधिकारियों पर दबाव डालकर नायर का ऑफिसर्स क्लब, जो कि अधिकारियों के निजी पैसों से चलता था, गति शक्ति विश्वविद्यालय के छात्रों को दे दिया गया, और नायर के अधिकारियों से कहा गया कि वे अपने पैसे से छात्रों के लिए क्लब में व्यवस्था करते रहें।
रेलवे अधिकारियों की ऐसी रीढ़हीनता, भीरुता तथा चाटुकारिता किसी अन्य ऑर्गनाइज सर्विस में देखने को नहीं मिलती। लेकिन रेलवे के वरिष्ठ अफसरों से यह उम्मीद करना कि वे अपने ही स्वाभिमान, अपनी प्रशिक्षण की आवश्यकता, तथा अपने युवा अधिकारियों के सम्मान की रक्षा करें, कुछ असंभव सा प्रतीत होता है।
रेलवे के पतन के सूत्रधार सुधीर कुमार तथा कार्यकारी निदेशक प्रशिक्षण के पद पर नियुक्त रही सुश्री अलका अरोड़ा मिश्रा की मिलीभगत से रेलवे अधिकारियों के मनोबल का जो ह्रास हुआ है, अब उसकी भरपाई असंभव है। वर्तमान अध्यक्ष रेलवे बोर्ड की भूमिका भी संदिग्ध और असम्मानजनक है। उन्होंने अपने 11 महीने के मिले एक्सटेंशन के अहसान के बदले में यह पत्र जारी करवाकर मंत्री जी का थोड़ा सा कर्ज उतारा है। अभी ऐसे बहुत से कर्ज उन्हें उतारने होंगे। रेलवे के अधिकारी न तो माननीय प्रधानमंत्री की परिकल्पना का एक अच्छा विश्वविद्यालय बना सके, और न ही अपने गौरवपूर्ण रेलवे स्टाफ कॉलेज को बचा सके। अर्थात्-
न खुदा मिला, न विसाल-ए-सनम!
न इधर के रहे, न उधर के रहे हम !!
अब केवल उम्मीद ही की जा सकती है कि रेलवे के अधिकारी अब भी नींद से जागेंगे और अपने आत्मसम्मान की रक्षा के लिए हर स्तर पर कार्य करेंगे। गलत का विरोध करेंगे। इसके लिए वे अपने संगठन और उसके लतखोर पदाधिकारियों पर निर्भर नहीं रहेंगे, लेकिन इसके लिए आवश्यक है कि अधिकारीगण ईमानदारी बरतें, परिश्रम करें, ट्रांसफर-पोस्टिंग की परवाह न करें, और सबसे पहले चाटुकारिता से परहेज करें। क्या यह हो सकेगा? क्रमशः जारी..
सम्प्रति: यह पूरा लेख पूर्व एवं वर्तमान रेल अधिकारियों से प्राप्त फीडबैक पर आधारित है!
प्रस्तुति: सुरेश त्रिपाठी