रेलवे को डुबा रहा है प्रशासनिक तदर्थवाद!
रेलमंत्री को स्पष्ट करना चाहिए कि प्रशासनिक निर्णय लेने में इतना ज्यादा विलंब क्यों हो रहा है! अन्यथा जनसामान्य का सरकार पर यह आरोप सही सिद्ध होगा कि जनता से सीधे जुड़े मंत्रालय का चार्ज जनता से सीधे न चुने गए प्रतिनिधि को देकर प्रधानमंत्री ने गलती की है! इसीलिए रेल के कारण मोदी सरकार की छवि धूमिल हो रही है, जिसका परिणाम 2024 में अवश्य दिखाई देगा!
सुरेश त्रिपाठी
ऐसा लगता है कि रेलवे बोर्ड का नया निजाम, रेलवे में “विभागवाद” के नए कीर्तिमान स्थापित करने में लगा है। यह अलग बात है कि इसी “विभागवाद” के नाम पर रेलवे में एक नई सर्विस का पदार्पण किया गया है। हालांकि यह भी कहा गया है कि नई “सर्विस” के “सर्विस” में आने के बाद यह विभागवाद खत्म हो जाएगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है, क्योंकि यह हमारी “बिरादरीवाद” से अर्थात हमारी जड़ों और संस्कारों से भी जुड़ा हुआ मामला है। तथापि ऐसा ढ़ीठ आचरण अब तक रेलवे बोर्ड में आए अत्यंत निकम्मे, अकर्मण्य और दुष्ट प्रकृति के निजाम भी नहीं किए थे, क्योंकि तमाम पक्षपात के बावजूद उनमें कहीं कुछ तो लाज-लिहाज बाकी बची हुई थी।
इसके अलावा, रेलवे में वह सब कुछ हो रहा है, जिसे बहुत आवश्यक नहीं कहा जा सकता। जो कुछ नहीं हो रहा है, वह केवल समय पर गाड़ियां चलाने (राइट टाइम ट्रेन ऑपरेशन) का काम नहीं हो रहा है, जो कि वास्तव में रेलवे की सबसे पहली और आखिरी प्राइम ड्यूटी है। पूरी ट्रेनें न चलाकर भी ट्रेन समय पर चल नहीं पा रही हैं। पानी नहीं होने, टॉयलेट गंदे और बदबूदार होने इत्यादि की शिकायतें चरम पर हैं। पर रेल की छवि सोशल मीडिया पर एकदम चौकस है। (बायो टॉयलेट के नाम पर रेल में जो हजारों करोड़ का कथित निवेश हुआ, उसका कोई लाभ यात्रियों को नहीं मिला, अर्थात एक बड़ा स्कैम हुआ, यह विषय अलग है, इस पर फिर कभी विस्तार से लिखा जाएगा।)
प्रसिद्धि की होड़ और हतोत्साहित वर्कफोर्स
हर किसी को हड़काने का काम चरम पर है। श्रेय लेने के लिए सब आगे बढ़कर फोटो खिंचा रहे हैं। सोशल मीडिया पर देखकर ऐसा लगता है कि भारतीय रेल आसमान में उड़ रही है। यह दिखाने की कोशिश हो रही है कि रेल में इतना काम हो रहा है कि जो आजतक कभी नहीं हुआ था। परंतु जीएम और बोर्ड मेंबर्स की पोस्टिंग समय पर कर पाने में हर बार मंत्री सहित पूरा बोर्ड अक्षम साबित होता है। इसके चलते काम नहीं हो रहा है। किसी अधिकारी और कर्मचारी की काम करने में कोई रुचि नहीं दिखाई दे रही है। पूरी वर्कफोर्स हतोत्साहित है। यह सब किसी को भी दिखाई नहीं दे रहा!
जीएम पैनल बना नहीं, जूनियर्स को चार्ज
जीएम के दस पद खाली हो गए हैं। परंतु जीएम पैनल, जो कि दिसंबर 2021 में फाइनली रेलवे बोर्ड के पास होना चाहिए था, अब तक उसे बनाने की प्रक्रिया शुरू भी नहीं की गई है। रेलवे बोर्ड मेंबर्स के भी दो पद खाली हो गए हैं, जिन पर तमाम नियम कायदों को दरकिनार कर एडिशनल मेंबर्स को सचिव स्तर के बोर्ड मेंबर्स का चार्ज दे दिया गया है और वहीं बैठे उनसे सीनियर्स को दरकिनार कर दिया गया है।
इसी प्रकार जीएम स्तर के पदों पर एजीएम और जूनियर अधिकारियों को चार्ज दिया गया है। भारत सरकार के निर्धारित नियमों के तहत किसी जूनियर अधिकारी को ऊपर के पद का अल्प अवधि के लिए लुकिंग ऑफ्टर का चार्ज तो दिया जा सकता है, परंतु वित्तीय और कार्मिक/प्रशासनिक अधिकार कदापि नहीं दिया जा सकता। तथापि “सीनियर” को अगर उसके लायक नहीं समझा गया, तो सबसे बेहतर यह होता कि पहले उन्हें “घर” भेज देने का साहस दिखाया जाना चाहिए था।
वैधानिक व्यवस्था की अनदेखी
“ट्रांजेक्शन ऑफ बिजनेस रूल्स” और “एलोकेशन ऑफ बिजनेस” यह दोनों ऐसे वैधानिक नियम हैं, जिनके आधार पर पूरी सरकार और नौकरशाही का पूरा कामकाज चलता है। देश की पूरी प्रशासनिक व्यवस्था संचालित होती है। इसके अलावा, इंडियन रेलवे ऐक्ट अथवा इंडियन रेलवे रूल्स के अनुसार जीएम ही जोन की एकमात्र ऐसी अथॉरिटी होता है, जिसमें सारी वित्तीय एवं प्रशासनिक शक्तियां निहित होती हैं। यह शक्तियां जीएम के अलावा अन्य किसी व्यक्ति या अधिकारी को तब तक नहीं सौंपी जा सकती हैं, जब तक कि इसके लिए केंद्रीय कैबिनेट का पूर्व अप्रूवल न लिया गया हो। अगर ऐसा किया गया है तो रेल मंत्रालय अर्थात रेलमंत्री को यह स्पष्ट करना चाहिए।
लेकिन इन सब स्थापित नियमों की अनदेखी करके जूनियर अधिकारियों को वित्तीय और प्रशासनिक अधिकार कैसे दिए गए, यह एक महत्वपूर्ण जांच का विषय है। कई एजीएम और जूनियर अधिकारी, जिन्हें जीएम का चार्ज सौंपा गया है, वह वहां नियुक्त पीएचओडीज से कई-कई वर्ष जूनियर हैं। फिर भी विभागवाद या बिरादरीवाद के चलते उन्हें सारी शक्तियां सौंप दी गईं, जिसके चलते सीनियर अधिकारियों में भारी असंतोष व्याप्त है। नतमस्तक और हतोत्साहित तो वे पहले से ही हैं। कहते हैं कि इतिहास अपने को दोहराता है। इसी तर्ज पर कहा जा रहा है कि भारतीय रेल में जाफर शरीफ का दौर पुनः लौट आया है।
विसंगतिपूर्ण स्थिति
अब विसंगतिपूर्ण स्थिति यह है कि जो जोनल जीएम इंडिपेंडेंट और सर्वाधिकार संपन्न होता है, वह अब एएम, जो भले ही जीएम के ग्रेड में होता है, मगर इंडिपेंडेंट नहीं होता, उसे जीएम से जूनियर ही माना जाता है, को सारे जीएम “सर” कहकर संबोधित करेंगे! यही स्थिति जोनल मुख्यालयों में भी होगी, जहां जूनियर एजीएम सहित उन सभी चार्ज होल्डर्स, जिन्हें जीएम का चार्ज सौंपा गया है, को उससे सीनियर पीएचओडी “सर” कहकर बुलाएंगे, और तब वह थोड़ा और ज्यादा अकड़कर अपनी कुर्सी पर तन जाएगा।
विभागवाद या पक्षपात अथवा बिरादरीवाद के उदाहरण नीचे दी गई सूची से स्पष्ट होते हैं:
1. दक्षिण रेलवे: जीएम/आईसीएफ ए. के. अग्रवाल, IRSME का चार्ज छीनकर बी. जी. माल्या, IRSEE एजीएम/दक्षिण रेलवे को दिया।
2. दक्षिण मध्य रेलवे: जीएम/द.प.रे. संजीव किशोर, IRSME का चार्ज छीनकर ए. के. जैन, IRSEE एजीएम/द.प.रे. को दिया, जबकि वहीं सिकंदराबाद में ही नियुक्त उनसे सीनियर डीजी/IRISET को यह चार्ज सौंपा जा सकता था।
3. विसंगति: पूर्वोत्तर रेलवे के जीएम का चार्ज वहां के एजीएम अमित अग्रवाल, IRSME को नहीं सौंपा गया।
4. पश्चिम रेलवे के जीएम का चार्ज वहां एजीएम प्रकाश भुटानी, IRSME को नहीं सौंपा।
5. सेंटर फॉर रेलवे इलेक्ट्रिफिकेशन (CORE) के जीएम का चार्ज वहां के सीएओ अरुण कुमार, IRSEE को दिया गया।
6. पूर्वोत्तर सीमांत रेलवे/कंस्ट्रक्शन के जीएम का चार्ज वहां के सीएओ को इसलिए नहीं दिया गया, क्योंकि वह IRSEE नहीं है?
7. पूर्व तट रेलवे के जीएम का चार्ज वहां के एजीएम को इसलिए नहीं सौंपा गया, क्योंकि वह IRSEE नहीं है?
8. मॉडर्न कोच फैक्ट्री/रायबरेली के जीएम का चार्ज एक बैच जूनियर IRSME/1986 के पीसीएमई को दे दिया, जबकि वहीं उनसे एक बैच सीनियर पीसीएमएम, IRSS/1985 बैठा है।
9. NAIR/वड़ोदरा के डीजी का चार्ज डीजी/IRIEN को इसलिए दिया गया, क्योंकि वह IRSEE है?
10. प्रिंसिपल सीएओ/पीएलडब्ल्यू/पटियाला का चार्ज एएम/आरई IRSE को देना चाहते थे, लेकिन फिर न जाने क्या सोचकर जीएम/आरसीएफ को दे दिया गया।
हालांकि उम्मीद जताई जाती है कि यह सब कुछ तो अच्छा सोचकर किया गया होगा! जैसा कि हर गलत काम के लिए तर्क दिया जाता है कि “अच्छाई में भी बुराई ढ़ूंढ़ निकालने की कुछ लोगों की प्रवृत्ति होती है।” परंतु यह तर्क तब सही नहीं लगता है जब सामने इसके ढ़ेरों ज्वलंत उदाहरण मौजूद होते हैं। ऐसे में यह कहा जा सकता है कि उपरोक्त तर्क व्यक्ति द्वारा केवल अपने बचाव में तब दिया जाता है, जब उसके पास सामने मौजूद प्रमाणों का कोई तर्कसंगत जवाब उपलब्ध नहीं होता।
प्रशासनिक तदर्थवाद की जांच हो
“यह सारा प्रशासनिक तदर्थवाद कौन कर रहा है? यह तो निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता, मगर इसकी जांच पीएमओ अथवा कैबिनेट सचिव को अवश्य करवानी चाहिए, क्योंकि रेल मंत्रालय भारत सरकार का ही एक विभाग है। यहां किसी एक की जमींदारी अथवा हुकूमत चलने का परिणाम सामने है, जिसके कारण आज रेल की प्रशासनिक दुर्दशा हो रही है।” बड़ी तल्खी के साथ यह कहना है कई वरिष्ठ अधिकारियों का।
विभागवाद अथवा बिरादरीवाद या पक्षपात का उपरोक्त वर्गीकरण #Railwhispers का नहीं, बल्कि रेल के ही वरिष्ठ अधिकारियों का किया हुआ है। उनका आगे यह भी कहना है कि “अब जहां तक बात दो बोर्ड मेंबर्स (सचिव) का चार्ज दो एएम को सौंपे जाने की है, तो उनकी विश्वसनीयता कितनी है, और उनकी निष्ठा किसके साथ जुड़ी हुई है, उनका विगत चरित्र कैसा रहा है, रेल में यह सब किसी से छिपा हुआ नहीं है।”
तदर्थवादी निर्णय के पीछे कोई लॉजिक नहीं
जानकारों का कहना है कि पहले भी ऐसा हो चुका है, जब बोर्ड मेंबर का चार्ज जीएम को सौंपा गया है। मगर अब जो किया गया, उसके पीछे न तो कोई लॉजिक है, न ही यह किसी को समझ में आ रहा है। मगर हां, ऐसा क्यों किया गया है, यह सबको समझ में आ रहा है! उनका कहना है कि, अब जहां तक बात सर्वाधिकारसंपन्न “फुल फ्लेज चार्ज” सौंपे जाने की है, तो इसका भी मतलब और उद्देश्य किसी से छिपा हुआ नहीं है। उन्होंने कहा कि यह जो “फुल फ्लेज चार्ज” अर्थात “सर्वाधिकार” उन्हें सौंपा गया है, ऐसा इसलिए किया गया है कि उनसे मनचाहा काम कराया जा सके, मनचाही जगह उनसे साइन कराए जा सकें, और डांट-डपटकर, और कभी-कभी लात मारकर काम लिया जा सके, क्योंकि यह तो सर्वज्ञात है ही कि “गुलाम” कभी-भी कोई चूं-चपड़ नहीं करता।
शिखंडीपन छोड़कर सीनियर्स ले लें वीआरएस
अब जहां तक बात इस सबके चलते सीनियर अफसरों के हतोत्साहित होने की है, तो इस पर भी जानकारों की बहुत कड़ी और तल्ख टिप्पणी है। उनका स्पष्ट कहना है कि ये जो सीनियर अफसर हैं, वे वास्तव में हतोत्साहित और अपमानित महसूस कर रहे हैं, यह सही है, मगर वे अपनी इस नपुंसकता का प्रदर्शन छोड़कर अपने अधिकार के लिए स्वयं आगे नहीं आना चाहते। वे चाहते हैं कि वे शिखंडी बने रहें और उनकी लड़ाई कोई दूसरा लड़े! परंतु हर बार ऐसा नहीं होता!
उन्होंने कहा कि ऐसे में उनके सामने दो ही विकल्प बचते हैं – एक, यह कि या तो वह अपनी सारी शर्मोहया और स्वाभिमान को अपनी टेबल की दराज में डालकर चुपचाप मुंडी नीची करके जो कर रहे हैं, करते रहें। दूसरा, या फिर अपने अस्तित्व को साबित करें कि वह जीवित हैं, तब अगर थोड़ा सा भी स्वाभिमान बचा हो, तो वीआरएस लेकर चले जाएं! क्योंकि अब उन्हें कुछ पाने या खोने के लिए कुछ बचा नहीं है। इसका स्पष्ट संकेत उन्हें पहले ही मंत्री से मिल चुका है। फिर क्यों बेशर्म बनकर बैठे हैं? जबकि बाहर उनके लिए उनके अनुभव के आधार पर यहां से ज्यादा मोटी तनख्वाह पर बहुत सारे अवसर उपलब्ध हैं!
नए रूल्स का औचित्य?
अब जहां तक बात जीएम का सेलेक्शन और पोस्टिंग प्रोसीजर तय करने के लिए नए रूल्स बनाए जाने की है, तो इस पर भी जानकारों का कहना है कि हर नया मंत्री और सीआरबी आकर यही हेकड़ी दिखाता है, पर होता कुछ नहीं है, वह कर कुछ नहीं पाता है, और अंततः जब चारों तरफ हो-हल्ला मचने लगता है, दो-चार डिरेलमेंट हो जाते हैं – जो कि हो रहे हैं, ताजा-ताजा कल देवलाली – नासिक रोड के पास हुआ है – दस-बीस यात्री मर जाते हैं, सौ-पचास घायल, लंगड़े, लूले हो जाते हैं, तो सारा प्रोसीजर, सारी हेकड़ी एक तरफ धरी रह जाती है और फिर उन्हीं पुराने रूल्स के हिसाब से इन पदों पर पोस्टिंग करनी पड़ती है। यही अब तक हुआ है, और आगे भी यही होगा।
उन्होंने कहा कि वर्तमान रूल्स में भी कोई कमी नहीं है। वह भी डीओपीटी द्वारा प्रमाणित हैं। उनके आधार पर भी आप अपने लायक लॉयल जीएम का चयन कर सकते हैं, फिर ये नए नियम बनाने का कोई औचित्य नहीं रह जाता है, उनके नाम पर रेलवे की पूरी प्रशासनिक व्यवस्था को एडहॉक पर रखने की आवश्यकता भी नहीं रह जाती है। उनका कहना है कि समस्या किसी रूल या नियम अथवा प्रोसीजर की नहीं है, समस्या यह है कि यहां न कोई बोलने वाला है, न ही कोई सुनने वाला है, तब जो हो रहा है, उसे चुपचाप भुगतने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। समस्या यह भी है कि मंत्री और सीआरबी रेल को बनाना क्या चाहते हैं, किस दिशा में ले जाना चाहते हैं, उनको भी शायद स्पष्ट तौर पर यह ज्ञात नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि अगर आप आर्मी से अपनी (रेलवे की) तुलना करते हैं, तो क्यों नहीं उसके प्रशासनिक ढ़ांचे और समस्त ट्रांसफर/पोस्टिंग प्रक्रिया पर अमल करते!
डीओपीटी नहीं मानता
उनका यह भी कहना है कि रेलवे बोर्ड का हर सीआरबी और रेलमंत्री जो भी नया रूल बनाकर भेजता है, डीओपीटी उन्हें नहीं मानता, या तो लौटा देता है, या फिर डस्टबिन में डाल देता है। उन्होंने यह भी कहा कि डीओपीटी की भारत सरकार के दर्जनों विभागों, मंत्रालयों की प्रमोशन/पोस्टिंग में साम्यता रखने की जिम्मेदारी है, रेलवे के जीएम और बोर्ड मेंबर्स को अलग से सुर्खाब के पर नहीं लगाने हैं, जो उनके लिए अलग और विशिष्ट नियमों पर वह तवज्जो देगा! उनका कहना है कि रेलवे बोर्ड चाहे जो नए रूल बना ले, हमेशा की तरह उन्हें लगता है कि डीओपीटी उनको मान्य नहीं करेगा। तब एक बार फिर वही होगा, जो अब तक हुआ है।
अंत में #Railwhispers का यह मानना है कि रेलमंत्री को अपनी नीति सार्वजनिक रूप से स्पष्ट करनी चाहिए कि वे रेल को आखिर क्या बनाना चाहते हैं! किस दिशा में ले जाना चाहते हैं! इसके अलावा उन्हें यह भी स्पष्ट करना चाहिए कि कोई भी प्रशासनिक निर्णय लेने में इतना ज्यादा विलंब क्यों हो रहा है! अन्यथा जनसामान्य का सरकार पर यह आरोप सही सिद्ध होगा कि जनता से सीधे जुड़े मंत्रालय का चार्ज जनता से सीधे न चुने गए प्रतिनिधि को देकर प्रधानमंत्री ने गलती की है। इसीलिए रेल के कारण मोदी सरकार की छवि धूमिल हो रही है जिसका परिणाम 2024 में अवश्य दिखाई देगा! अर्थात 2024 में जीतना है, तो रेल को सर्व सुविधायुक्त और जनोन्मुखी बनाना होगा। अन्य कोई विकल्प नहीं है। क्रमशः
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