रेल एक ऐसा महकमा है, जहां चल रहा है चौतरफा जुगाड़ तंत्र!
रेलवे में न तो मानव संसाधन की कोई कद्र है, और न ही होती है क्षमतावान प्रतिभाओं की उपयुक्त तैनाती
रेलवे, भारत सरकार का एक ऐसा महकमा है, जहां चारों तरफ अंधेरा छाया हुआ है। ऐसी अंधेरगर्दी चल रही है कि ऐसा लगता है जैसे इस विभाग का कोई रखवाला ही नहीं रहा। अधिकारी से लेकर कर्मचारी तक सब अपनी-अपनी जुगाड़ में लगे हुए हैं। यहां किसी का भी रेल के प्रति कोई समर्पण दिखाई नहीं देता। जिसको जहां अवसर मिल रहा है, वहां लूट रहा है। सब अपने लिए समेट लेना चाहते हैं, भले ही रेल डूब जाए।
इसमें सबसे बड़ा योगदान ज्यादातर अधिकारियों का एक जगह एक शहर में लंबे समय से जमे रहने का है। सब अपनी-अपनी जुगाड़ बनाए हुए हैं। कोई इनकम टैक्स, सीबीआई, ईडी, आईबी, आईएएस/आईपीएस में कार्यरत अपने पति या पत्नी की आड़ लेकर अथवा धौंस जमाकर लंबे समय से दिल्ली, मुंबई, कोलकाता या चेन्नई जैसे एक ही महानगर में जमा हुआ है, तो कोई अपनी चारित्रिक काबिलियत के बलबूते पर अपनी हेकड़ी बनाए हुए है, तो कोई कुछ बड़े नेताओं का पल्लू पकड़े हुए है।
इसी प्रकार, बहुत से फील्ड कर्मचारी, जिसमें चतुर्थ श्रेणी ट्रैकमैन से लेकर तृतीय श्रेणी के सुपरवाइजर तक शामिल हैं, भी अधिकारियों की कमजोरियां का फायदा उठाकर, चापलूसी करके अथवा उनके तमाम घरेलू कामकाज करके आसान कार्यालयीन ड्यूटी कर रहे हैं। इनमें रनिंग स्टाफ – लोको पायलट, लोको इंस्पेक्टर और गार्ड्स – जैसा एसेंशियल स्टाफ भी शामिल है। यही नहीं, इस मामले में कुछ इंस्पेक्टर, सुपरवाइजर तो अधिकारियों से भी ज्यादा समृद्ध और जुगाड़ू हैं।
इस तरह जब अधिकारी अपनी जुगाड़ में लगे हैं, तब कर्मचारी को कौन रोकेगा! कौन टोकेगा! और कौन उन्हें अपनी निर्धारित फील्ड ड्यूटी करने को कहेगा! जब कोई रखवाला ही नहीं है, तब कौन किसको क्या कहेगा! रेल के इस पूरे परिदृश्य को देखते हुए एक वरिष्ठ रेल अधिकारी का कहना है कि “रेलवे एक ऐसा महकमा बन गया है, जहां सक्षम और निष्ठावान दरकिनार हैं, वहां निकम्मे, भ्रष्ट और जुगाड़ू पंजीरी फांक रहे हैं, क्योंकि यहां प्रशासन में बैठे लोगों को रेल की कोई चिंता नहीं है, सब बिना किसी अड़चन के केवल अपना-अपना कार्यकाल जैसे-तैसे पूरा करके जाना चाहते हैं।”
बताते हैं कि रेलवे में रेलगाड़ियों, खासतौर पर गुड्स ट्रेनों के नियमित संचालन में गार्डों उर्फ ट्रेन मैनेजरों की भारी कमी अथवा उपलब्धता न होने के कारण कई गाड़ियां नहीं चल पाने से रेलवे को रोजाना करोड़ों रुपये का नुकसान हो रहा है। मगर इसकी किसी को भी कोई चिंता नहीं है। सब यही कहते सुने जाते हैं कि लोडिंग और परिवहन पिछले साल से ज्यादा हुआ है। लेकिन मैनपावर की कमी अथवा अन्यत्र हरामखोरी से जो नुकसान हो रहा है, उसको समेटने या कम करने की चिंता किसी को भी नहीं है।
बहुत से रनिंग स्टाफ ऐसे भी हैं जो अपनी रनिंग ड्यूटी न करके भी रनिंग अलाउंस और अन्य भत्ते भी ले रहे हैं। यही स्थिति कुछ लोको रनिंग स्टाफ की भी है, जो ऑफिस अथवा रनिंग रूम्स में केयरटेकर की ड्यूटी कर रहे हैं, या अधिकारियों ने उन्हें अपने आगे-पीछे अपनी चापलूसी, चमचागीरी में लगाकर रखा है। जबकि कुछ लोग यूनियनों की आड़ में भी मौज कर रहे हैं।
यहां तक भी हुआ है, और हो रहा है, कि गुड्स से मेल/ एक्सप्रेस तक के सारे प्रमोशन बिना रनिंग ड्यूटी किए ही ले लिए गए हैं। यही हाल कुछ लोको पायलट्स का भी है, जो एक दिन भी लोको का हैंडल पकड़े बिना ही मेल/एक्सप्रेस ड्राइवर के सारे लाभ लेते हुए मौज कर रहे हैं। प्रमोशन के लिए ज्वाइनिंग, रिलीविंग भी नए स्टेशन पर एक-दो दिन में ही हो गई।
यहां ऐसे भी कई मामले देखने को मिल जाएंगे कि 35-38 साल तक की सर्विस बिना रनिंग स्टाफ की ड्यूटी किए और सारे प्रमोशन लेकर, पूरी सर्विस करके सुखरूप रिटायर भी हो गए।
सीएमआई की भी ड्यूटी कुछ रनिंग कर्मचारी कर रहे हैं। एक लोको इंस्पेक्टर का कहना है कि “ऐसे रनिंग स्टाफ, जो अपनी निर्धारित ड्यूटी न करके अन्य ड्यूटी कर रहे हैं, उनकी एक लिस्ट हर महीने डिवीजन वाइज बननी चाहिए और यह डीआरएम एवं जीएम तक को पुटअप की जानी चाहिए, जिससे उन्हें कम से कम यह तो पता चल सके कि कौन कितना आउटपुट दे रहा है, और कौन कामचोरी करके मुफ्त का वेतन-भत्ता और माइलेज ले रहा है।”
ट्रेन न चलाकर, अतिरिक्त भत्ते लेना कहां तक ठीक है? यह सवाल उन कर्मचारियों का है जो फील्ड में लगातार अपनी निर्धारित ड्यूटी तो कर रहे हैं, मगर उन पर उन लोगों के भी कार्य का अतिरिक्त बोझ पड़ रहा है, जो चापलूसी करके कथित कार्यालयीन कामकाज या चमचागीरी में लगे हुए हैं। यही कारण है कि तमाम अवार्ड/रिवार्ड्स भी ऐसे निकम्मे कर्मचारियों को ही मिल रहे हैं।
कुछ उदाहरण:
1. दिल्ली मंडल, उत्तर रेलवे का एक गुड्स/मेल/एक्स. गार्ड, रेलवे बोर्ड के कोल सेक्शन, फ्रेट कंट्रोल में बतौर स्पेशल ड्यूटी लगभग 30 साल से अधिक समय तक कार्यरत रहा और वेतन-भत्ते दिल्ली मंडल, उत्तर रेलवे से लेता रहा। रिटायर होने के बाद अब वह क्रिस, चाणक्यपुरी, नई दिल्ली में बतौर कंसल्टेंट लगा है।
2. दिल्ली मंडल, उत्तर रेलवे का एक अन्य रनिंग स्टाफ अभी फ्रेट कंट्रोल, रेलवे बोर्ड में कार्यरत है, जो पहले उत्तर रेलवे के एकाउंट में था, परंतु अब रेलवे बोर्ड के रोल पर है।
3. इससे पहले भी दिल्ली मंडल, उत्तर रेलवे के दो रनिंग स्टाफ, रेलवे बोर्ड फ्रेट कंट्रोल में रह चुके हैं।
4. रनिंग कैडर के अलावा भी इस स्तर के जोनल रेलों के अन्य सैकड़ों कर्मचारी रेलवे बोर्ड में कार्यरत हैं।
रेलवे में इस्टैब्लिशमेंट/पर्सनल/फाइनेंस/एकाउंट्स आदि सभी संबंधित विभागों की भी इसके लिए सहमति ली जाती है, या नहीं? इसकी कोई जानकारी अथवा खोज-खबर किसी को नहीं है।
जुगाड़ प्रमोशन/जुगाड़ पोस्टिंग
जोनल रेलवे/रेलवे बोर्ड में हर एक कंट्रोल का इंचार्ज चीफ कंट्रोलर ही होता था। चीफ कंट्रोलर की ऊपर तक पहचान होने से उसका प्रोमोशन एटीएम, एसटीएम में होता है और पोस्ट भी अपग्रेड कराकर चीफ कंट्रोलर से वह एटीएम, एसटीएम, सीनियर डीओएम, सीनियर डीसीएम भी उसी कार्यालय में ही बन जाते हैं।
मुंबई, मध्य रेलवे का एक वाणिज्य कर्मचारी, जो वर्ग विशेष से आने के कारण जल्दी-जल्दी प्रमोशन लेकर जेएजी तक पहुंच गया, उसी डिवीजन में एसीएम/डीसीएम तक जमा रहा। जब जेएजी मिला, तब वहीं सीनियर डीसीएम बनने का दावा ठोक दिया। यही नहीं, उसी जगह मुख्यालय में बैठा दिए जाने के बावजूद पत्नी के नाम पर कमर्शियल स्टाफ से सामान भेजवाने वाले इस तथाकथित अधिकारी का यह दावा आज भी बरकरार है। ऐसी कथित प्रतिभाओं के बल पर रेल का भविष्य क्या होगा, यह समझना मुश्किल नहीं है।
तृतीय एवं चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों के डेपुटेशन की अधिकतम अवधि का नियम क्या है और क्या इसका पालन हो रहा है? यह किसी को पता नहीं है।
पहले जुगाड़ लगाकर स्पेशल ड्यूटी में आ जाते हैं और टीए/डीए आदि कई सालों तक लेते रहते हैं, फिर वहीं एडजस्ट हो जाते हैं। लाइन पर प्रमोशन नियमित, बिना रेलवे में ज्वाइन/रिलीव होते हुए भी ले लेते रहते हैं।
बहुत से सेक्शन में मिनिस्टीरियल/क्लेरिकल स्टाफ की जगह फाइल आदि का कार्यालयीन कार्य भी, रेलवे के एसेंशियल सर्विस वाले स्टेशन मास्टर, गार्ड्स आदि से करवाए जाते हैं। जबकि मिनिस्टीरियल स्टाफ खाली बैठा रहता है।
ऑफिस और चेंबर्स में भी सीसीटीवी लगने चाहिए, ताकि प्रत्येक कर्मचारी कार्यालयीन कार्य कितना कर रहा है, या कंप्यूटर पर मनोरंजन कार्यक्रम देख रहा है, इसका पता प्रशासन को चलना चाहिए।
ऐसा भी ही रहा है कि नाम कहीं चल रहा है और काम कहीं और हो रहा है तथा प्रोटोकॉल कहीं और चल रहा है। सेल्फ अप्रेजल फार्म में भी, स्वयं न किए गए कार्यों का बखान कर, “आउटस्टैंडिंग” एपीएआर मिलती है।
प्रत्येक कर्मचारी का कमरा नंबर और उसके काम की लिस्ट भी लगाई जानी चाहिए। सीसीटीवी से यह सभी झूठ पकड़े जा सकते हैं।
कम्प्यूटराईजेशन से स्टाफ की संख्या बढ़नी चाहिए या घटनी चाहिए, यह भी सोचने-समझने की जरूरत है।
ऐसे बहुत से इंस्पेक्टरों/सुपरवाइजरों आदि ने ग्रुप ‘बी’ से ग्रुप ‘ए’, तथा रिटायरमेंट तक की सर्विस, सेक्रेटरी आदि बनकर दिल्ली में ही निकाल रहे हैं/निकाल भी दी है। परंतु कोई पूछने वाला नहीं है।
कुछ उदाहरण:
1. एक जोनल रेलवे का मूवमेंट इंस्पेक्टर, रेलवे बोर्ड के फ्रेट कंट्रोल में एक आईआरटीएस ऑफीसर का दाहिना हाथ बना हुआ है।
2. एक ट्रैफिक इंस्पेक्टर पहले सेक्रेटरी/पीसीओएम/उ.रे. बना और अब ग्रुप ‘ए’ स्टेशन डायरेक्टर हो गया।
3. एक कंट्रोलर पहले पंक्चुअलिटी सेल, रेलवे बोर्ड में एटीएम, फिर एसटीएम, और अब वहीं इस्टैब्लिशमेंट का कोई कामकाज देख रहा है।
4. उत्तर रेलवे, पश्चिम रेलवे, पूर्वोत्तर रेलवे इत्यादि जोनल रेलों के कई कर्मचारी रेलवे बोर्ड में कार्यरत हैं।
रेलवे बोर्ड में जोनल रेलों के नॉन-गजटेड स्टाफ के डेपुटेशन (प्रतिनियुक्ति) की अधिकतम अवधि और उसकी स्पेशल ड्यूटी की अवधि क्या है? और यह अधिकतम कितनी अवधि की हो सकती है? स्पेशल ड्यूटी और डेपुटेशन की योग्यता क्या है? सेलेक्शन प्रोसीजर क्या है? रेल प्रशासन अथवा रेलवे बोर्ड को इस बारे में अपनी नीति स्पष्ट करनी चाहिए।
यह सही है कि प्रतिभा अर्थात टैलेंट का सम्मान होना चाहिए और उसे उपयुक्त अवसर भी मिलना चाहिए, परंतु रेलवे में ऐसा नहीं हो रहा है – फिर वह चाहे कर्मचारी हो या अधिकारी। यहां वही पुरस्कृत हो रहा है, जिसका दबदबा है, जिसकी पहुंच है, और जो जुगाड़ तकनीक के उपयोग में सिद्धहस्त है। इसके परिणामस्वरूप वास्तविक प्रतिभाएं दरकिनार हैं, साइड लाइन हैं, जिसके फलस्वरूप आज पूरी रेल व्यवस्था में सड़न पैदा हो गई है। अगर इसकी सफाई की अविलंब शुरुआत नहीं की गई, तो “भारतीय रेल” जल्दी ही इतिहास का हिस्सा हो जाएगी!
प्रस्तुति: सुरेश त्रिपाठी