फंड लेने से कतरा रहे हैं रेल इंजीनियर!

रेलमंत्री और सीआरबी की सक्रियता या मॉनिटरिंग रेल अधिकारियों को इसलिए खल रही है, क्योंकि बाहर निकलने और काम करने-करवाने की उनकी आदतें लगभग छूट चुकी हैं। यह भी सही है कि बहुत समय बाद कोई काम के प्रति समर्पित रेलमंत्री और सीआरबी मिला है, तो लगभग आलसी और अकर्मण्य हो चुके रेल इंजीनियरों को उनकी यह सक्रियता रास नहीं आ रही है!

रेलमंत्री और सीआरबी ने जिस तरह रेल परियोजनाओं की कड़ी मॉनिटरिंग शुरू की है, उससे सर्वसामान्य रेल अधिकारियों और खासकर रेल इंजीनियरों की हालत पतली हो रही है। जो अब तक फंड की कमी का रोना रोते नहीं अघाते थे, वह अब फंड लेने में आनाकानी कर रहे हैं। जो अब तक “रेल इंजीनियर” के बजाय “रेल मैनेजर” बने जा रहे थे, वह “रेल वर्कर” मात्र रह जाने से बौखलाए हुए हैं। ऊपर से आईआरएमएस सेलेक्शन का माध्यम ईएसई के बजाय सीएसई रख दिए जाने से उनको अचानक अपनी असली हैसियत का आभास हो गया है। इसलिए जो अब तक अपने असली काम से जी चुराकर “मैनेजर” बने जा रहे थे, वे अचानक फिर से “मजदूर” बन जाने से खिन्न हो रहे हैं।

उल्लेखनीय है कि 19 फरवरी से 21 फरवरी के दरम्यान लगातार तीन दिन की मैराथन समीक्षा बैठकों में रेलमंत्री ने स्पष्ट किया कि रेल परियोजनाओं का काम रुकना नहीं चाहिए, यदि फंड की कहीं कोई कमी है, तो उन्हें अभी बता दिया जाए, जिससे संसद के अगले महीने शुरू होने वाले बजट समीक्षा सत्र में पर्याप्त फंड की मांग रखी जा सके। रेलमंत्री के इसी स्पष्ट नीति-निर्देश के बाद अचानक रेल इंजीनियरों को अपने उत्तरदायित्व का आभास हुआ, और इसका अर्थ यह हुआ कि समय से काम पूरा करना पड़ेगा, और इसका मतलब हुआ कि दिन-रात काम करना पड़ेगा। फिर भी अगर कहीं कोई कमी रह गई, तो उन्हें उत्तरदाई ठहराया जाएगा।

रेलमंत्री ने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं रेलवे को भरपूर फंड उपलब्ध कराने को तैयार हैं। ऐसे में फंड की कमी से रेल परियोजनाएं विलंबित होने का बहाना अब नहीं चलेगा। अब रेल निर्माण परियोजनाओं का काम किसी भी स्थिति में नहीं रुकना चाहिए और इसके साथ ही सभी परियोजनाएं पूर्व निर्धारित समय पर पूरी होनी चाहिए।

रेलमंत्री अपने लक्ष्य के प्रति जितने गंभीर हैं, उसका कुल मिलाकर अर्थ यह है कि रेल परियोजनाओं के विलंबित होने पर उनकी बढ़ी हुई लागत के लिए संबंधित अधिकारियों की जिम्मेदारी तय की जा सकती है। रेलमंत्री की इसी बात से रेल के उन सभी इंजीनियरों के हाथ-पांव फूले हुए हैं जो अब तक न केवल मौज कर रहे थे, चेंबर्स से नहीं निकल रहे थे, बल्कि इस मुगालते में भी रहते थे कि रेल वही चला रहे हैं, रेल का सारा दारोमदार उन्हीं के कंधों पर है, जबकि ट्रैक, ब्रिज जैसे कुछेक अपवादों को छोड़ दिया जाए, तो रेलवे इंजीनियरों द्वारा बनाए गए ज्यादातर आवास मानक इंजीनियरिंग के नमूने भी नहीं हो सकते हैं।

परंतु अब जब प्रधानमंत्री, रेलमंत्री और सीआरबी तीनों सक्षम प्राधिकार से एक ही बात कही जा रही है कि काम करो, फंड की कोई कमी नहीं है, जितना चाहिए, उतना मिलेगा, मगर काम निर्धारित मानक के अनुरूप तय समय सीमा में पूरा होना चाहिए, तब इंजीनियर्स की धड़कनें बढ़ गई हैं। बताते हैं कि जहां यूजर डिपार्टमेंट अर्थात कमाऊ विभाग उदाहरण स्वरूप अगर ₹200 करोड़ रुपये की लागत आने का अनुमान बताकर इतने ही फंड की डिमांड इंजीनियरिंग विभाग से करने के लिए कह रहा है, वहां संबंधित सीएओ/पीसीई द्वारा बड़ी हीलाहवाली के बाद मात्र ₹5-10 करोड़ लेने की बात कही जा रही है।

बताते हैं कि संबंधित जीएम भी यूजर डिपार्टमेंट की बात को इसलिए बहुत ज्यादा सपोर्ट नहीं कर रहे हैं कि कहीं प्रोजेक्ट समय से पूरा नहीं हुआ, तो उन्हें भी जवाबदेह ठहराया जाएगा। परंतु यूजर डिपार्टमेंट पर ट्रेनों की गति बढ़ाने का दबाव बना हुआ है, मगर वह इसमें इसलिए किंकर्तव्यविमूढ़ हो रहा है, क्योंकि ऐसे सैकड़ों स्टेशन हैं जहां केवल दो ही लाइनें हैं। ऐसे में नॉन-इंटरलॉकिंग (एनआई) तथा अन्य प्रकार के मेंटीनेंस कार्यों के चलते उनके पास कोई विकल्प नहीं है। इसलिए गाड़ियां घंटों दूरदराज खड़ी रहती हैं और लेट होती हैं।

यूजर डिपार्टमेंट का कहना है कि जिन-जिन स्टेशनों पर दो लाइनें हैं, वहां एक अतिरिक्त लाइन बिछाई जाए और जहां केवल एक लाइन है, वहां दोहरीकरण किया जाना चाहिए, तभी ट्रेनों को अपेक्षित गति से चलाया जा सकता है। परंतु रेल इंजीनियरों को यह सब करने और जिम्मेदारी उठाने की सोचकर पसीना आ रहा है, जबकि उन्हें अब जब पर्याप्त फंड सामने से प्रधानमंत्री और रेलमंत्री उपलब्ध करा रहे हैं, तब वह अपनी संपूर्ण कार्य क्षमता का पूरा प्रदर्शन करने से कतरा रहे हैं। जिम्मेदारी उठाने में कोताही कर रहे हैं।

जब उनसे यूजर डिपार्टमेंट यह कहता है कि अगर पांच स्टेशनों पर काम होना है, तो वह काम अलग-अलग पांच ठेकेदारों को आवंटित कर दिया जाए, तब काम जल्दी और एकसाथ समान समय सीमा में पूरा होगा। यह भी इंजीनियर्स को स्वीकार नहीं हो रहा है। जबकि उन्हें केवल टेंडर करना है, मॉनिटरिंग करनी है, काम तो निजी ठेकेदारों को ही करना है, वही करते भी हैं, मगर रेल इंजीनियर्स अपने नियत ठेकेदारों के अलावा अन्य को रेलवे में घुसने ही नहीं देना चाहते हैं। इसीलिए टेंडर्स का योग्यता मानक (एलिजिबिलिटी क्राइटेरिया) भी उन्होंने उन्हीं के अनुरूप बना रखा है।

अर्थात सरकारी फंड पर पहले तो अपने फेवरेट नजदीकी यारों-दोस्तों और नाते-रिश्तेदारों को ठेकेदार बनाना है, फिर उनके लिए अनाप-शनाप लागत के टेंडर तैयार करना है, फिर मोटा कमीशन खाना है, जो कि वास्तव में टेंडर की लागत का ही हिस्सा होता है। कई ठेकेदार और कुछेक अधिकारी (इंजीनियर) भी इस तथ्य को स्वीकार करते हुए व्यक्तिगत बातचीत में कहते हैं कि कोई भी ठेकेदार अपने घर से लाकर कुछ नहीं देता है। वह मैटेरियल में कमीबेशी करके, अमानक निर्माण कार्य करके अपनी लागत कम करता है, क्योंकि फील्ड कर्मचारी (पीडब्ल्यूआई/आईओडब्ल्यू) को छोड़ कभी कोई इंजीनियर (डिप्टी सीई, सीई आदि) वर्क साइट पर शायद ही विजिट करता है।

रेल के ही लोग कहते हैं कि रेलवे में इंजीनियर का मतलब ‘बाबूलाल’ हो गया है। न कोई नया इन्नोवेशन, न कोई नया मानक, न ही मानक कार्य, रेलवे में केवल चेंबर में बैठकर बाबूगीरी और कमीशनखोरी करने का नाम है रेल इंजीनियर! वह कहते हैं कि कुछ अपवादों को छोड़कर “रेल इंजीनियर” वास्तव में “इंजीनियर” कहलाने के लायक ही नहीं हैं। इसमें तब और ज्यादा बट्टा लगा जब 8वीं, 10वीं पास सारे अधकचरे फील्ड कर्मियों को बिना किसी इंजीनियरिंग योग्यता के सीधे जेई/एसएसई बना दिया गया। इसका खामियाजा रेल को, और जनसाधारण को भी भुगतना पड़ रहा है।

जबकि रेलमंत्री और सीआरबी का कहना है कि जो भी निर्माण परियोजनाएं चल रही हैं, उनकी ऑन द स्पॉट मॉनिटरिंग होनी चाहिए। यह मॉनिटरिंग संबंधित टेंडर आवंटन अधिकारी से लेकर जीएम तक को करनी है। परंतु यदि वास्तव में देखा जाए तो सारे तथाकथित इंजीनियर अपने चेंबर्स से शायद ही कभी निकलने की दयानतदारी दिखाते हैं। चेंबर में बैठकर ही वे ठेकेदार अथवा उसके सुपरवाइजर से सारी अपडेट लेते हैं। जबकि रेलमंत्री और सीआरबी का कहना है कि जीएम, सीएओ, सीई इत्यादि सब बारी-बारी से स्पाट विजिट करें और प्रत्यक्ष अपडेट लेकर उस काम में लगे सभी मजदूरों को भी बताएं कि उस परियोजना में प्रतिदिन कितना खर्च हो रहा है और उसकी कुल लागत कितनी है, जिससे वे भी अपनी पूरी जी-जान लगाकर काम करें तथा समर्पित होकर अपना पूरा योगदान दें।

रेल के जानकारों का मानना है कि रेलमंत्री और सीआरबी की सक्रियता या मॉनिटरिंग रेल अधिकारियों को इसलिए खल रही है, क्योंकि बाहर निकलने और काम करने-करवाने की उनकी आदतें छूट चुकी हैं। यह भी सही है कि बहुत समय बाद कोई काम के प्रति समर्पित रेलमंत्री और सीआरबी मिला है, तो लगभग आलसी और अकर्मण्य हो चुके रेल इंजीनियरों को उनकी यह सक्रियता रास नहीं आ रही है। जबकि रेलमंत्री और सीआरबी का कहना है कि मौज-मस्ती का दौर गुजर चुका है, अब या तो काम करना पड़ेगा, या फिर वीआरएस लेकर घर जाना पड़ेगा। इस पर भी रेलमंत्री और सीआरबी ने अपनी स्थिति बहुत स्पष्ट कर दी है। अर्थात काम करने या वीआरएस लेने के अलावा रेलकर्मियों-अधिकारियों के सामने अब अन्य कोई विकल्प नहीं बचा है।

बहरहाल, इस सबके विपरीत आदर्श स्थिति यह होनी चाहिए कि रेलमंत्री को काम करने के लिए तो अवश्य कहना चाहिए, मगर फंड झोंकने की बात कहना सही नहीं है। काम और उसकी आवश्यकता के अनुरूप फंड का आवंटन किया जाना चाहिए।

प्रस्तुति: सुरेश त्रिपाठी