“काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती!”

रेलवे में चतुर्थ श्रेणी (ग्रुप ‘डी’) भर्ती में सुधार हेतु कुछ आवश्यक सुझाव

ग्रुप ‘डी’ भर्तियों का वर्तमान तरीका अत्यंत अनुचित और अव्यवहारिक है!

पिछले कुछ सालों से रेलवे में लाखों की भर्तियां करने का ढ़िंढ़ोरा बड़े जोर-शोर से पीटा जा रहा है। ढ़िंढ़ोरा पीटने का यह सिलसिला खासतौर पर चुनावों से कुछ पहले शुरू होता है और चुनावों तक चलता है। फिर सब कुछ ठंडे बस्ते में चला जाता है। पिछले तीन चुनावों के समय कम से कम यही देखने में आया है।

कहावत है कि “काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती!” इसी तर्ज पर लोगों को उल्लू बनाने के लिए एक ही बहाना बार-बार नहीं चला करता। बेहतर होगा कि सरकार और नौकरशाही “रोजगार प्रबंधन” में अपनी योग्यता और क्षमता का परिचय दे!

रेलवे में फिलहाल चतुर्थ श्रेणी (ग्रुप ‘डी’) की भर्तियां रेलवे रिक्रूटमेंट बोर्ड (आरआरबी) से केंद्रीयकृत (सेंट्रलाइज) तरीके से होती हैं। इसे विकेंद्रीकृत करने की आवश्यकता है।

अर्थात आदमी को बोझ उतना ही उठाना चाहिए, जितना उठाने के लायक हो, वरना बोझ के साथ स्वयं तो धराशाई होगा ही, व्यवस्था भी चरमराकर बैठ जाएगी।

ग्रुप ‘डी’ भर्तियों में चयन का वर्तमान तरीका अत्यंत अव्यवहारिक और अनुचित है।

एक ग्रुप ‘डी’ कर्मचारी जैसे खलासी, हेल्पर, प्यून, पोर्टर, ट्रैकमैन इत्यादि को नौकरी मिलने के बाद सामान्यतः ₹25,000 प्रतिमाह वेतन मिलता है।

इस प्रकार से चयनित कर्मचारी अक्सर अपने राज्य, जिले या गांव से बहुत दूर पदस्थापित होते हैं और नौकरी मिलने के तुरंत बाद दशकों तक अपने गांव-घर के आसपास स्थानांतरण लेने के लिए प्रयासरत रहते हैं। ऐसे में उनकी काम के प्रति लगन और निष्ठा संभव नहीं हो पाती।

अतः ग्रुप ‘डी’ का चयन, मंडल में वरिष्ठ मंडल कार्मिक अधिकारी द्वारा समयबद्ध तरीके से होना चाहिए। रिक्त स्थानों के अनुसार होना चाहिए तथा अधिवास मानदंड (डोमिसाइल क्राइटेरिया) अनिवार्य होना चाहिए।

जिस किसी रेलवे/मंडल का विस्तार जिन-जिन राज्यों में है, केवल उन्हीं राज्यों के उम्मीदवारों को यह परीक्षा देने की अनुमति होनी चाहिए।

इससे चयन प्रक्रिया सरल, सुगम, पारदर्शी, प्रबंधनीय, तत्काल और औचित्यपूर्ण हो जाएगी। इस प्रक्रिया से चयनित कर्मचारी अपनी जी-जान लगाकर अपने ही क्षेत्र में काम करेंगे। रेलवे का काम बाधित नहीं होगा।

वर्तमान व्यवस्था में केवल ₹25,000 माहवार वेतन पाने वाले कर्मचारी की बिहार/उत्तर प्रदेश से केरल या पश्चिम बंगाल अथवा तमिलनाडु में पदस्थापना होती है। वह वहां जाकर काम करता है, यह व्यवस्था अत्यंत अव्यवहारिक और अन्यायपूर्ण है। इसका शीघ्र निराकरण किया जाना आवश्यक है।

वैसे भी मंडलों और जोनल रेलों में बैठे कार्मिक अधिकारियों के पास यूनियन पदाधिकारियों के साथ सांठ-गांठ करने के अलावा कोई काम नहीं है, और न ही वह कोई काम करना चाहते हैं। ऐसे में मंडल स्तर की रिक्तियों को भरने का अधिकार और जिम्मेदारी मंडल के कार्मिक अधिकारियों को सौंपी जानी चाहिए।

माना कि इसमें भी भ्रष्टाचार और जोड़-तोड़ होने की पूरी संभावना है। परंतु यह भ्रष्टाचार और जोड़-तोड़ तो आरआरबी/आरआरसी में भी बड़े पैमाने पर हो रहा है। तथापि मंडलों में इसको नियंत्रित और सीमित किया जा सकता है। ऐसी कोई खामी पाए जाने पर संबंधितों को सीधे बर्खास्त किया जाए।

अगर रेलवे की भर्तियों में भ्रष्टाचार, जोड़-तोड़ और देरी को रोकना है तो सबसे पहले आरआरबी को तत्काल प्रभाव से बंद कर दिया जाना चाहिए।

वैसे भी अब जब “राष्ट्रीय भर्ती बोर्ड” स्थापित हो चुका है, तब आरआरबी को बनाए रखने का कोई औचित्य नहीं रह गया है।

सभी भर्तियां समयबद्ध, पारदर्शी, साधारण और स्थानीय स्तर पर सुनिश्चित की जानी चाहिए।

सभी जोनों और मंडलों को अपने-अपने स्तर पर अपने लिए ग्रुप ‘डी’ और ग्रुप ‘सी’ की भर्ती/चयन करने की जिम्मेदारी सौंपी जानी चाहिए।

अंत में, जहां यह बात सही है कि बिहार के नवादा, आरा आदि क्षेत्रों में उग्र आंदोलन हुआ, रेल संपत्ति की भारी क्षति हुई, वहीं यह बात भी सही है कि यह सब करने वाले सभी छात्र नहीं थे! बल्कि उन्हें कुछ छद्म नक्सली, वामपंथी दुष्टों और असामाजिक तत्वों द्वारा उकसाया गया। जहां ऐसे कुछ तत्वों को गिरफ्तार किया गया है, वहीं ऐसे आंदोलनों का समर्थन करने वाले नेताओं को भी गिरफ्तार किया जाना चाहिए। उग्रता को बढ़ावा देने और सरकारी संपत्ति को नष्ट करने के लिए उकसाने हेतु उनके विरुद्ध भी कानूनी कार्रवाई की जानी चाहिए।

प्रस्तुति: सुरेश त्रिपाठी

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