नेता जी की फोन टैपिंग

“नेता जी ने मजदूरों का कम, सरकार के हित साधन का ही ज्यादा ध्यान रखा, कभी सरकार से दो-दो हाथ करने के स्थिति में नहीं दिखे। ऐसे में उनका फोन टैप करने की सरकार को ऐसी क्या गरज पड़ गई? कहीं कोई फिरकी तो नहीं ले रहा है नेता जी की!”

“पेगासस” विवाद में रेलवे के एक बड़े वाले नेता जी को पता चला कि सरकार ने उनकी भी फोन टैपिंग करवाई है। उन्होंने इसका लाभ उठाते हुए, अपना कुछ और वेटेज बढ़ाने के लिए इसको मुद्दा बना लिया। पिछले सात सालों में हालांकि उनके सामने रेलकर्मियों के सैकड़ों मुद्दे थे, मगर वह शायद उतने महत्वपूर्ण नहीं थे उनके लिए, जितना कि उन्हें अपनी कुर्सी बचाए रखना महत्वपूर्ण था। अतः फोन टैपिंग – झूठा या सच्चा, इसकी अधिकारिक पुष्टि होनी अभी बाकी है – को उन्होंने सरकार के खिलाफ मुद्दा बना लिया और अपने अहमकाना व्यक्तित्व को थोड़ी और ऊंचाई देने के लिए पूरी भारतीय रेल में दो दिन पहले “धिक्कार दिवस” मनवा डाला।

हालांकि रेलकर्मियों को धिक्कार दिवस तो अपने नेताओं की अकर्मण्यता, अक्षमता, अय्याशी तथा लाखों कर्मचारियों के नाम पर अपनी दुकान चलाने के नाम पर मनाना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य देखिए इन रेल कर्मचारियों का कि इनका नेता अपने निजी एजेंडे को सभी रेल कर्मचारियों से और भारतीय रेल से भी जोड़ दे रहा है और जहां सारे रेल कर्मचारियों का हित जुड़ा होता है, वहां तो ये सरकार से या तो मांडवली यानि कि समझौता कर लेते हैं और शेर की खाल ओढ़कर श्रृंगाल की तरह दुबक जाते हैं।

अच्छा तो तब होता जब ये नेता जी तेजी से हो रहे भारतीय रेल सहित सार्वजनिक क्षेत्र के निजीकरण पर कम से कम एक “धिक्कार दिवस” ही मना लेते, क्योंकि अखिल भारतीय स्तर पर तो क्या, मंडल स्तर पर भी इनकी पकड़ इनके इसी दैहिक तथा आत्मकेंद्रित और आत्मश्लाघित प्रवृत्ति के कारण इतनी सी भी न रही कि “एक दिन का भी रेल बंद” कर सकें।

दुर्भाग्य से चार दशकों से मजदूर यूनियनों का ऐसा दौर शुरू हो गया है, जिसमें मजदूरों की सहभागिता कम है, लेकिन उनके नाम पर मुट्ठी भर लोग प्रेशर ग्रुप बनाकर अपना एजेंडा और व्यवसाय चला रहे हैं, जिनका मजदूरों के वास्तविक हित से धेला भर भी कुछ लेना-देना नहीं है।

कुछेक अपवाद छोड़कर ऐतिहासिक तौर पर शुरू से ही “मजदूर आंदोलन” का मतलब “मजदूर” नाम के झुंड को लेकर किसी ज्यादा चतुर आदमी द्वारा अपना महत्व स्थापित करना और अपना हित साधना ही रहा है, न कि मजदूरों का हित करना, और इसकी शुरुआत मार्क्स साहब ने ही सबसे पहले की थी।

इस मजदूर आंदोलन के नाम पर ही तो कानपुर, लुधियाना, मुंबई, एचईसीएल रांची इत्यादि देश के बड़े-बड़े अद्योगिक शहरों के फलते-फूलते छोटे-बड़े उद्योग बंद हो गए। मजदूर हित के नाम पर चलाए गए आंदोलनों ने लाखों मजदूरों को बेरोजगार कर दिया, करोड़ों के मुंह का निवाला छीन लिया और भविष्य के लाखों युवाओं की बेरोजगारी को सुनिश्चित कर दिया, जिससे बेरोजगारी के नाम पर आगे भी उनकी राजनीति चलती रहे।

जिन-जिन बड़े-बड़े अद्योगिक शहरों को मजदूर आंदोलन ने बंजर कर दिया, वहां पर उतने ही बड़े-बड़े लीजेंडरी मजदूर नेता पैदा हुए, जो लाखों लोगों की रोजी-रोटी छीनकर सांसद बनकर दिल्ली पहुंच गए। जिस-जिस राज्य में जितने उद्योग बंद हुए, उस-उस राज्य से उतने ही यूनियन और नक्सल नेता संसद पहुंचे। अब इसी प्रवृत्ति के चलते भारतीय रेल भी बंजर होने की तरफ अग्रसर है।

इस बात को यूं भी समझना चाहिए कि अगर इनका (यूनियन और मजदूर नेताओं का) उद्देश्य मजदूरों का उत्थान और हित साधन करना रहता, तो आज तक इस देश में जितने भी बड़े कल-कारखाने या संस्थान हैं, वे मजदूर आंदोलन के कारण ही बंद नहीं हुए होते और जितने भी वंचित तथा असंगठित मजदूरों के इलाके हैं, वहां पर यह आंदोलन नक्सल का रूप लेकर उन्हें बाकी दुनिया की मुख्यधारा में लाने में सबसे बड़ा रोड़ा बनकर यह क्यों खड़ा हो जाता है? वहां भी असंगठित मजदूरों के नाम पर कई पार्टियां खड़ी हो गई हैं और कई नेताओं की अपनी “दूकानें” चल रही हैं।

संगठित और असंगठित मजदूर आंदोलन में एक समानता बहुत स्पष्ट है, और वह यह है कि दिनों-दिन मजदूर तो हासिये पर चले गए, लेकिन इनके जितने नेता थे सब संसद जरूर पहुंच गए। लेकिन पिछले चार दशकों में खासकर संगठित मजदूर नेतृत्व की यह गहरी कुंठा रही है कि उसमें इतनी भी काबिलियत नहीं रही कि जो उन्हें विधानसभा भी पहुंचा सके, संसद तो बहुत दूर की बात है।

बाहर के लोगों का तो नहीं पता, लेकिन रेल के कर्मचारी तो बोल रहे हैं कि “फोन टैपिंग के लिए क्या सरकार को रेल के यह तुच्छ नेता ही मिले थे?” उनका कहना है कि “उन्हें तो इस बात पर ही आश्चर्य हो रहा है कि नेता जी तो हमेशा सत्ता के साथ कदमताल करते रहे हैं। उन्होंने मजदूरों का कम, सरकार के हित साधन का ही ज्यादा ध्यान रखा, कभी सरकार से दो-दो हाथ करने के स्थिति में नहीं दिखे। ऐसे में उनका फोन टैप करने की सरकार को ऐसी क्या गरज पड़ गई? कहीं कोई फिरकी तो नहीं ले रहा है नेता जी की!”

सर्वप्रथम तो रेल यूनियन के नेताओं का स्तर देखकर लोगों को विश्वास ही नहीं हो रहा है, लेकिन अगर ऐसा है भी और जिनका भी फोन टैप हुआ है, यदि वे एकदम सही हैं, तो लोगों का कहना है कि “इसको पूरी रेल के साथ न जोड़ते हुए नेता जी को निर्भीक होकर व्यक्तिगत रूप से ही इसे लड़ना चाहिए, और एफआईआर कराकर अपना मोबाइल (अगर उसमें कुछ गलत या आपत्तिजनक नहीं है तो) भी जांच एजेंसी को सौंप देना चाहिए, जिससे वह उनके फोन टैपिंग पर ठीक से जांच कर सके।”

दूसरी तरफ, जानकारों का कहना है कि “प्रथमत: तो अभी तक इसकी अधिकारिक पुष्टि नहीं हुई है। दूसरे यह मामला मजदूर हितों के नुकसान से जुड़ा ही नहीं है, क्योंकि नेता जी फोन पर मजदूर हितों की नहीं, बल्कि राजनीतिक हितसाधन की बातें ज्यादा करते हैं। इसके अलावा उनका यह भी कहना था कि टैपिंग की अधिकारिक पुष्टि या सरकारी स्वीकृति से पहले ही कउवा कान ले गया की तर्ज पर व्यवस्था में अपना वेटेज बढ़ाने और सरकार को अपनी ताकत दिखाने के लिए नेता जी ने कुछ कामचोर रेलकर्मियों का उपयोग कर लिया।”

बहरहाल, “पेगासस विवाद” काफी विवादास्पद हो गया है। करीब दो हफ्ते से संसद लगभग ठप है। पक्ष-विपक्ष दोनों अपने-अपने मोर्चे पर डटे हुए हैं, दोनों का अपना-अपना हित जुड़ा हुआ है। कुर्सी और पद तथा अधिकार का दुरुपयोग कोई नई बात नहीं है। इसीलिए नेता जी ने भी अपने स्तर पर अपनी पोजीशन का लाभ उठाते हुए रेलकर्मियों का उपयोग किया, जो कि वह पहले से ही करते आ रहे हैं – फिर वह चाहे रेल हड़ताल की बात हो, चाहे डीए/डीआर फ्रीजिंग का मामला हो, कैडर मर्जर की बात हो, प्रिंटिंग प्रेस बंद करने का फैसला हो, इत्यादि – जब बिना रेलकर्मियों की पूर्व सहमति लिए उन्होंने रेल प्रशासन और सरकार के साथ समझौता कर लिया!

प्रस्तुति: सुरेश त्रिपाठी

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