“खेत खाए गदहा, मार खाए जुलाहा”
हम लोग स्वभाव से राजनीतिक हैं, तथापि #कोरोना ने हमारी राजनीतिक चेतना को लगभग निगल लिया था। बिहार विधानसभा चुनाव से उपजे उत्साह से पता चला कि देश में हर छह महीने पर एक चुनाव होना हमारी राजनीतिक सेहत के लिए बहुत जरूरी है।
परंतु देखने वाली बात यह है कि चुनाव के समय लाखों लोगों की भीड़ देखकर जो कोरोना कहीं किसी कोने में दुबक गया था, वह दीवाली, छठ पूजा आदि सनातन तीज-त्योहारों के आते ही फिर से फफक उठा। यह राजनीतिक दोगलापन है। और यहीं पर आकर हमारी राजनीतिक चेतना कुंद होकर टुकड़ों में खंड-खंड हो जाती है।
देश की वर्तमान सामाजिक विसंगति और बहुसंख्यकों के अधिकारों को लेकर आईटी सेल रूपी यूनिवर्सिटियों द्वारा गीता, रामायण, महाभारत, वेद-पुराण इत्यादि और यहां तक कि चूं-चूं के मुरब्बे यानि संविधान के भी तमाम उद्धरण देकर हमें बरगलाया जा रहा है।
परंतु मंदिरों से सरकारी आधिपत्य हटाने, मंदिरों की दानराशि पर मंदिर समितियों को आधिपत्य देकर उन्हें सनातन समाज के विकास हित में स्कूल-कालेज, आईआईटी, इंजीनियरिंग संस्थान स्थापित करने, सनातन शिक्षा-व्यवस्था की स्थापना करने जैसे मूलभूत कार्य किए जाने और जिन पर हमें भी दबाव बनाना चाहिए, वह नहीं हो रहा है। हमें सिर्फ उनका भोंदू पिछलग्गू बनाया जा रहा है। यहां हमारी राजनीतिक चेतना मात खा रही है।
अब हर साल स्मॉग को ऐसे ही रहना है, यह तय है। शहरी संस्कृति की पैदाइश वाले मानव-प्रदत्त प्रदूषण के मामले में “खेत खाए गदहा, मार खाए जुलाहा” वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। मूल समस्या कहीं और है, ठीकरा होली-दीवाली पर फोड़ा जाता है।
एनजीटी, विद्या की गद्दी पर और सरकार में बैठे लोग तांगे के टट्टू की तरह एकतरफा देख रहे हैं! सीधी बात ये है कि हर साल होली-दीवाली पर सरकारी और राजनीतिक ज्ञान बांटना फौरन बंद होना चाहिए! यहां हमारी राजनीतिक चेतना का उपयोग होना चाहिए, जो हम नहीं कर रहे हैं।
देश की सर्वसामान्य जनता को यह बात बहुत अच्छी तरह समझकर गांठ बांध लेनी चाहिए कि कोई भी राजनीतिक दल या राजनेता किसी समाज विशेष की प्रगति के लिए, राष्ट्रवाद के लिए, देश के विकास के लिए, देशहित के लिए, व्यवस्थाहित के लिए राजनीति नहीं कर रहा है, वह सिर्फ सत्ता के लिए और अपने राजनीतिक फायदे के लिए राजनीति कर रहा है।
यदि इन कथित राजनेताओं को उक्त सभी दायित्वों के प्रति उद्देशित करना है, जिम्मेदार बनाना है, तो अपने सामाजिक हितों और संवैधानिक अधिकारों को लेकर इनसे सवाल पूछना शुरू करना होगा। तभी हमारी कथित राजनीतिक चेतना का सही सदुपयोग हो सकेगा!
आदमी और कुत्ते में अंतर जानना है तो केवल इतना समझ लें कि – आदमी, कुत्ता हो सकता है! किंतु कुत्ता, आदमी नहीं हो सकता!!
प्रस्तुति: सुरेश त्रिपाठी
#rajneeti #politics #corona