फेस्टिवल स्पेशल ट्रेनों के किराए में वृद्धि का आधार क्या है?
भारतीय रेल की नीतियों और निर्देशों में कोई एकरूपता नहीं रही। एक दिन लिया गया निर्णय अगले ही दिन पलट जाता है। कोविड और पीक त्यौहारी सीजन के नाम पर चलाई गई विशेष गाड़ियों (स्पेशल ट्रेनों) के मामले में भी यही बात लागू होती है।
पिछले कुछ महीनों में ऐसे ही कुछ निर्णयों के चलते न सिर्फ सरकार के प्रति लोगों की नाराजगी बढ़ी है, बल्कि भारतीय रेल आम लोगों की पहुंच से दूर होती जा रही है। इसके अलावा अब सामान्य लोगों को रेलयात्रा काफी कठिन महसूस होने लगी है।
राजनीतिक नेतृत्व ने भी जनता की मूलभूत सुविधाओं पर ध्यान न देने का जैसे निश्चय कर लिया है। कहीं पर किसी की कोई सुनवाई नहीं है।
रेल अधिकारी भी राजनीतिक नेतृत्व को खुश रखने और उसके अनुरूप निर्णय लेकर न सिर्फ भारतीय रेल का हर तरह से भट्ठा बैठाने में लगे हैं, बल्कि उन्हें सर्वसाधारण जनता की कोई परवाह नहीं रह गई है।
अब यही देख लें कि फेस्टिवल के नाम पर स्पेशल ट्रेनों की कथित सुविधा देकर रेल यात्रियों को नियमित से अधिक किराया वसूल कर खुलेआम लूटा जा रहा है। परंतु ऐसा क्यों हो रहा है, किसके कहने और किस आधार पर किया जा रहा है, इसका स्पष्टीकरण देने को कोई तैयार नहीं है।
इन तथाकथित स्पेशल या फेस्टिवल ट्रेनों में खाना-पानी, चाय-नाश्ता और बेडरोल इत्यादि की कोई सुविधा उपलब्ध नहीं कराई जा रही है, तथापि इनका बढ़ा हुआ किराया सर्वसामान्य यात्रियों को देना पड़ रहा है। ऐसा क्यों हो रहा है? इसका जवाब किसी के पास नहीं है।
मेल/एक्सप्रेस में सामान्य स्लीपर का किराया वड़ोदरा से कल्याण के लिए लगभग ₹265 है, वही फेस्टिवल स्पेशल ट्रेन के स्लीपर क्लास का किराया लगभग ₹400 रेल यात्रियों से वसूला जा रहा है।
यह मात्र एक उदाहरण है, जबकि ऐसा ही अनुभव अन्य लंबी दूरी की गाड़ियों में हो रहा है। इन ट्रेनों में टिकटिंग की जो फोर्जरी हो रही है, वह अलग है।
रेलवे का यह गणित आम रेलयात्रियों की समझ से परे है, जो कि कोरोना काल की पाबंदियों के चलते पहले से ही लुटे-पिटे पड़े हैं। सामान्य यात्रियों की लूट से अपने घाटे की पूर्ति करने की संस्कृति सरकार अथवा भारतीय रेल की कभी नहीं रही।
फिर ऐसा क्यों हो रहा है? कहीं सरकार की छवि खराब करने वाले ऐसे निर्णयों के पीछे कुछ अधिकारियों की कोई सोची-समझी रणनीति काम तो नहीं कर रही है!
ऐसे फैसलों पर रेलमंत्री को खुद अपने नीति-निर्माताओं से जवाब-तलब करना चाहिए और उन पर लगाम लगाने के कदम उठाए जाने चाहिए।