कोरोना और अमीरों की बस्ती
एक वायरस ने अमीरों को शिक्षा का पहला पाठ सिखा दिया है, जो न गांधी की नई तालीम सिखा पाई, न टालस्टॉय का दर्शन, और न हमारे आईआईटी, जेएनयू और आईआईएम जैसे शिक्षा संस्थान सिखा पाए हैं
प्रेमपाल शर्मा
भारत के शहरी मध्यवर्ग का जवाब नहीं! कोरोना वायरस और चीन के बारे में यों तो महीने भर से सनसनी चल रही थी, लेकिन यह वैसा ही था जैसे कुछ-कुछ भूत-प्रेत की सी बातें हों। रात हुई तो भूत और दिन होते ही साफ।
उन्हीं दिनों एक सरकारी भर्ती के लिए चल रहे साक्षात्कार में तो एक सदस्य सिर्फ यही कोरोना प्रश्न हर बच्चे से कर रहे थे। लेकिन ज्यों-ज्यों इटली, स्पेन, इंग्लैंड, फ्रांस की खबरें भारत पहुंचने लगीं, अमीरों को असली भूत का एहसास गरीबों से बहुत पहले होने लगा।
इसके कई कारण थे। ज्यादातर के बच्चे इन सभी देशों में हैं। कुछ आने वाले दिनों में बच्चों को वहां पढ़ाने के लिए वीजा की लाइन में लगे हुए थे, तो कुछ मई-जून की तपती दिल्ली में अपना वक्त रोम और स्विट्जरलैंड में गुजारना चाहते थे।
लेकिन उनकी तत्काल समस्या कुछ दूसरी थी और वो यह कि पूरा लॉक डाउन होने वाला है। यानि किसी को भी आने-जाने की छूट नहीं मिलेगी। यहां तक कि घर में काम करने वाली बाई, नौकर-नौकरानी को भी नहीं।
खाते-पीते अमीरों की बस्ती की स्मृति में यह सबसे बड़ी विपत्ति थी। हालांकि अभी लॉक डाउन में दो दिन बाकी थे, लेकिन उनके चेहरे पर चिंताएं साफ-साफ पढ़ी जा सकती थीं। हर तरफ यही खुसुर-पुसुर।
आनन-फानन में सोसायटी के हरे-भरे गार्डन में मीटिंग बुलाई गई और उसमें सबसे पहले वे सभी हाजिर थे, जो 15 अगस्त और 26 जनवरी को भी कभी नहीं देखे गए।
छूटते ही एक अमीर ने गोला दागा। बाई को बुलाने में क्या दिक्कत है? उनके घरों में कोई विदेशी थोड़े ही आते हैं? सरकार ने लाक डाउन इसलिए किया है कि जो विदेश से आ रहे हैं, उनके संपर्क में कोई नहीं आए। ये तो सुबह आएंगी और काम करके चली जाएंगी।
दूसरी अमीरन ने भी हां में हां मिलाई। एक पुराने अफसर तो ऐसे मौके पर अपनी बायोग्राफी तुरंत सुनाने लगते हैं कि जब वे कृषि मंत्रालय में थे, तो कैसे पूरी-पूरी रात ड्यूटी बजाते थे।
चौथे अमीर ने 1965 और 1971 की दास्तां सुनाने में पहले 10 मिनट लगाए। अपनी बहादुरी के किस्सों को बीच-बीच में पिरोते हुए कि कैसे हम खाईयों में घुस जाते थे। और फिर निष्कर्ष निकाला कि बाइयों का आना, नौकरों का आना तो उन दिनों भी बंद नहीं हुआ था। इसलिए हम तो अपनी नौकरानी को बुलाएंगे। इस उम्र में हमसे तो खाना बनाना नहीं होता।
दो अमीरन खुसर-पुसर कर रही थीं कि हमने तो अभी 10 दिन पहले ही नई बाई लगाई है तो हम घर बैठे पैसे कैसे दे दें? सरकार देना चाहे तो दे!
एक अन्य अपनी दास्तां और जोरों से बताने लगी कि जब वे सरकारी नौकरी करती थी, तो कैसे-कैसे पहाड़ तोड़ती थी। घंटों तक वाद-विवाद चलता रहा और बिना फैसले के मीटिंग खत्म हो गई।
समय की तो चिंता उनको थी ही नहीं, क्योंकि सभी के घरों में बाईयां या तो खाना बना गई थीं या बना रही थीं। कुछ तेज पत्रकार किस्म के लोगों की सूचना पर कि यह लॉक डाउन और भी लंबा खिंच सकता है, उनकी घबराहट और बढ़ गई।
तुरंत कई आवाज उठने लगीं कि हम भी घर पर रहेंगे, बच्चे भी स्कूल नहीं जाएंगे, तब तो खाना बनाने वाली, काम करने वाली की जरूरत तो और भी ज्यादा है, इसलिए कोई बुलाए, न बुलाए, हम तो अपनी नौकरानी को बुलाएंगे। सोसाइटी का इसमें क्या लेना-देना, यह हमारे और हमारी नौकरानी के बीच का मामला है।
लेकिन बाईयों के सामने बड़ा धर्म संकट था। न आएं तो नौकरी चली जाएगी और आएं, तो कैसे आएं? एक बाई की मालकिन ने बताया कि उसकी मालकिन कह रही है कि तुम सुबह सूरज निकलने से पहले ही आ जाना। मैं तुझे आने-जाने के अलग से पैसे दे दूंगी। लेकिन उनकी चिंता यह थी कि एक घर में आऊंगी और दूसरे में नहीं, तो कानपुर वाली तो मेरी जान ही ले लेगी। नौकरी भी चली जाएगी।
बाईयां तीन-तीन, चार-चार के झुंड में अलग विमर्श पर जुटी हैं कि किया जाए तो क्या किया जाए? अब मेमसाब और साब को भी तो सरकार घर बैठे पगार देगी। एक बाई कह रही थी कि उसकी मालिकन ने तो आज ही अगले दो-तीन दिन का खाना बनवा लिया है।
इस पर दूसरी ने कहा कि मेरी मालकिन भी यही करती है। होली-दिवाली की छुट्टी बाद में आती है, उस दिन का खाना पहले बनवा लेती हैं। भले ही वह बासी हो जाए और फेंकना पड़े। कई बार तो पूरी-सब्जी के डोंगे के डोंगे डस्टबिन में डाल देते हैं।
उसने आगे कहा, अरे भाई तुम्हें नहीं खाना तो हमें दे दो, गेट पर दे दो, किसी भिखारी को दे दो, अन्न का ऐसा अपमान तो मत करो। गोयल साब के घर में तो रोटियों को छत पर डाल देते हैं। पिछले दिनों इसीलिए उनकी छत पर बंदर आने लगे और उन बंदरों को रोकने के लिए सोसाइटी में एक लंगूर रखा गया।
एक बाई ने बताया कि उसकी मालकिन कह रही हैं कि हम तीन घरों ने मिलकर फैसला किया है कि बाईयों को एक-एक करके बुलाया करेंगे। वे तीनों घरों में काम करके चली जाया करेंगी।
एक अमीर ने कहा, कार साफ करने वाले और ड्राइवरों को भी हम ऐसे ही बुलाएंगे। सरकार अपना काम करे। हमारे काम में दखल न दे। नौकरों के शोषण का दिल्ली का कोपरेटिव फार्मूला। सरकारी आदेश की ऐसी-तैसी!
याद आए भारत-पाकिस्तान विभाजन के वे भयानक दिन! उर्वशी बुटालिया ने विभाजन के बाद सन् 2000 के आसपास एक किताब लिखी थी जिसमें विभाजन से गुजरे हुए लोगों के अनुभव दर्ज किए गए थे। बताते हैं सब से निश्चिंत पाकिस्तान में शौचालय साफ करने वाले जमादार थे।
वे थे तो हिंदू जमादार लेकिन पाकिस्तान के रईसों ने और मुस्लिम लीग के नेताओं ने यह स्पष्ट कर दिया था कि उन पर कोई आंच नहीं आनी चाहिए। यहां तक कि उन्हें तरह-तरह के लालच देकर रहने को फुसलाया भी गया।
उन्हें डर था कि यदि ये काम वाले जमादार चले गए तो हमारी गंदगी कौन साफ करेगा? कोरोना के दौर में वैसी ही स्थिति बाइईयों की बन रही थी। वैसे बाईयां इनके टॉयलेट की तरफ देख भी नहीं सकती।
बस्ती के अमीरों की चिंता में कोरोना का कहर नहीं था, बाईयों के न आने का कहर ज्यादा था। फिर कूढ़ा कौन उठाएगा? मेरा तो बच्चा छोटा है! अमुक घर में तो सिर्फ बूढ़े रहते हैं! उनको खाना कौन खिलाएगा?
किसी ने कहा भी दो-चार दिन के लिए आप इन बूढ़ों को भी नहीं खिला सकते? और बूढ़े खाते भी कितना हैं? क्या ऐसे दौर में जरूरी है कि छप्पन भोग बनवाए जाएं!
जिस देश का किसान अपने हाड़ तोड़कर अन्न उगाता है, सब्जियां पैदा करता है, वहां के शहरों के अमीर अपने हाथ से खाना भी बना-खा नहीं सकते! उनकी सोचो जो पांच-पांच सौ किलोमीटर पैदल चलकर अपने परिवार के पास पहुंचना चाहते हैं। कितने हिम्मती और मेहनतकश हैं यह गरीब!
कोरोना की चपेट में आज पूरी दुनिया आ चुकी है। चीन, कोरिया, यूरोप, अमेरिका से लेकर अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया तक, लेकिन छोटे-मोटे कामों को लेकर ऐसा संकट शायद किसी भी समाज के सामने नहीं होगा और न आएगा। भारत-पकिस्तान जैसे कुछ देशों को छोड़कर।
दरअसल ऐसी ऐतिहासिक चुनौतियों के सामने ही सत्ता समाज और तंत्र की पोल खुलती है। सर्वत्र हाहाकार की सी स्थितियां बनती जा रही हैं। हलवाई की दुकान पर काम करने वाले मजदूर कहां जाएं और कहां जाएं सड़क भवन और दूसरे निर्माण कार्यों में लगे लोग।
गरीब कैसे जिंदा रहे, जिन्हें दो जून की रोटी का जुगाड़ भी न हो और वह भी ऐसी अनिश्चितता में! ऊपर से मौत का डर अलग। लेकिन अमीरों की चिंता! बाप रे बाप!!बाई और नौकरों के बिना जिंदगी कैसे चलेगी? सुबह की चाय कौन बनाएगा और कौन उनके बच्चे को खिलाएगा?यह सबसे दुखद पहलू है।
चिंताओं में यूरोप, अमेरिका, चीन भी गुजर रहे हैं, लेकिन उनके वैज्ञानिक, उनकी प्रयोगशालाएं इससे निपटारे के लिए लगातार जूझ रही हैं। हमारी शिक्षा और आरक्षण व्यवस्था के चलते हम ऐसे वैज्ञानिक तो बाद में पैदा करेंगे, अभी तो हमारे बच्चे रसोई और छोटे-मोटे काम ही करना सीख लें, वही बहुत है।
दरअसल इस सबके पीछे लगातार बढ़ती सामाजिक आसमानताएं हैं। मुगलों और अंग्रेजों के समय जो जमीदारी, सामंती व्यवस्था फल-फूल रही थी, उसे आजादी के बाद न संविधान मिटा पाया, न कोई दूसरे उपाय।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का संदेश “डिग्निटी ऑफ लेबर” लगातार छीजता ही चला गया है।
ईश्वर करे, यह कोरोना जल्दी ही अपनी मौत मरे। लेकिन इसने भारतीय मध्यवर्ग की विशेष रूप से चूलें हिला दी हैं। चूलें तो सभी धर्म गुरुओं की भी हिली हैं, जो एक कार्टून में माइक्रोस्कोप में झांकते वैज्ञानिक के पीछे खड़े हुए किसी दवा का इंतजार कर रहे हैं। सब चमत्कार भूल गए और भूलना भी चाहिए। मानव सभ्यता विज्ञान के बूते ही आज यहां तक पहुंची है।
रहीम दास ने ठीक ही कहा है कि-
रहिमन विपदा हू भली जो थोड़े दिन होय।
हित-अनहित या जगत में जान परत सब कोय।।
आज पांचवा दिन है। सरकार की सख्ती का। इसलिए सब कुछ बंद कर दिया गया है। शुरू में तो नौकरी की धमकी देकर कुछ लोगों की काम वालियां आती रहीं, लेकिन अब सुनते हैं उन घरों के बच्चे भी अपने गिलास उठाकर पानी पीने लगे हैं और चिड़-चिड़ करते बर्तन भी मांजने करने लगे हैं।
बड़े साहब इस बात पर बड़ा नाज करते थे कि उन्हें चाय बनानी भी नहीं आती। वे चाय भी बनाना सीख गए हैं और फोन पर दिनभर दोस्तों को बताते हैं कि चावल बनाना भी सीख लिया है।
ज्यादातर मेम साहब खाना बनाना तो जानती थीं, लेकिन जिस देश में बाई और काम वाली इतनी सस्ती मिल जाए तो वे भी क्यों बनाएं? अगर वे खाना बनाएंगी, तो फिर जिम में जाने के लिए समय कहां मिलता! मोबाइल से घंटों बात करने की फुर्सत कैसे मिलती! और किटी पार्टी में फिर कब जाएंगी?
कुछ तो सरकारी कर्मियों को अपने घर पर बच्चों को खिलाने और उनकी पॉटी साफ करने के लिए अपने घरों में लगाए रहती थी। वह भी अब ये सब चौकड़ी भूल गए।
अमीरों को खूब पता है कि जब उनके बच्चे अमेरिका में जाते हैं, यूरोप में जाते हैं, तो वहां हर काम खुद करते हैं, लेकिन हिंदुस्तान में वे तब तक नहीं करेंगे, जब तक कि कोरोना जैसा कोई वायरस इनके घुटने न टिका दे!
वाकई एक वायरस ने इन अमीरों को शिक्षा का पहला पाठ सिखा दिया है, जो न गांधी की नई तालीम सिखा पाई, न टालस्टॉय का दर्शन सिखा पाया, और न हमारे आईआईटी, जेएनयू और आईआईएम जैसे शिक्षा संस्थान सिखा पाए हैं।
#प्रेमपाल शर्मा, पूर्व संयुक्त सचिव, रेल मंत्रालय, 96, कला विहार अपार्टमेंट्स, मयूर विहार फेज-1, एक्सटेंशन दिल्ली-9. मोबाइल 997139 90461.