क्यों नहीं भरे जा रहे खाली पड़े सरकारी पद !

युवाओं को स्वरोजगार की राह पर आगे बढ़ाने की घोषित नीति जमीन पर कारगर साबित नहीं हो रही!

लेखक: उमेश चतुर्वेदी

ब्रिटिश इतिहासकार पॉल माइकल कैनेडी ने अपने एक लेख में कहा है कि जब भी अपने दोस्तों से वे पूछते हैं कि 21वीं सदी में सबसे सुरक्षित रोजगार क्या होगा तो उनका एक ही जवाब होता है- स्वास्थ्य क्षेत्र में सक्रिय लोगों को रोजगार की कमी नहीं होगी। लगातार बढ़ते अस्पताल, दवाएं, सर्जिकल सामान और फिट रहने के उपायों की बढ़ती दुकानें देखते हुए पॉल कैनेडी का यह विचार शत प्रतिशत सही लगता है। लेकिन 5 ट्रिलियन डॉलर इकॉनमी की ओर बढ़ते अपने देश का एक और रूप भी है।

अपने यहां सॉफ्टवेयर, बैंकिंग, बीमा और रेस्त्रां के अलावा बाकी सभी क्षेत्रों की नौकरियों में जिस तरह उथल-पुथल बढ़ी है, उससे युवा एक बार फिर सरकारी क्षेत्र की ओर गंभीरता से देखने लगे हैं। इसकी बड़ी वजह यह है कि निजीकरण और ठेके की नौकरियां बढ़ने के बावजूद दूसरे क्षेत्रों के मुकाबले सरकारी क्षेत्र में श्रम कानूनों का ज्यादा सख्ती से पालन होता है और वहां कार्यरत व्यक्ति अपने भविष्य को लेकर अपेक्षाकृत ज्यादा निश्चिंत होता है।

तीन बड़े मुद्दे:

आजादी से लेकर अब तक लोकसभा या विधानसभा के जितने भी चुनाव हुए हैं, उन सबका जोर कमोबेश तीन मुद्दों पर ही रहा है- बेरोजगारी, किसानों की बदहाली और महंगाई। ये मुद्दे हमेशा वोटरों को मथते रहे हैं और इन मोर्चों पर बेहतर सपने दिखाने वाला दल अन्य विकल्पों के मुकाबले ज्यादा कामयाब होता रहा है। इसके बावजूद हकीकत यही है कि किसी भी सरकार का रिकॉर्ड इन मुद्दों पर बहुत अच्छा नहीं है। वैश्विक अर्थव्यवस्था के मौजूदा दौर में तो यह संभव भी नहीं है।

महंगाई काबू में करेंगे तो आय के मुकाबले उत्पादन की बढ़ती लागत को संतुलित करना संभव नहीं होगा। सबको रोजगार देना दुनिया की किसी भी सरकार के लिए संभव नहीं रह गया है। किसानों की स्थिति पहले की तुलना में बेहतर जरूर हुई है लेकिन समाज के दूसरे वर्गों के मुकाबले उनका विकास कम हो रहा है। ऐसा न होता तो सबको अपना बेहतर भविष्य शहरों में ही नहीं दिखता और गांव खाली न हो रहे होते।

दंगे-फसाद और अराजकता की घटनाएं ज्यादा होती हैं, तब भी कमोबेश इन्हीं तीन वजहों को जिम्मेदार ठहराया जाता है। मनरेगा और खाद्य सुरक्षा जैसे कानूनों के लागू होने के बाद भुखमरी की गुंजाइश पिछली सदी की तुलना में कम हुई है। कहा जा सकता है कि राज व्यवस्था अब किसी को भूखा नहीं मरने देगी। लेकिन असली सवाल बेहतर जिंदगी का है। इसीलिए हर कोई चाहता है कि उसे पक्की नौकरी मिले या फिर उसके पास कारोबार के बेहतर संसाधन हों।

मौजूदा व्यवस्था में सबके लिए यह संभव नहीं है, इसलिए रोजगार योग्य हाथों का सबसे ज्यादा ध्यान सरकारी नौकरियों की ओर जा रहा है। लेकिन वित्तीय बोझ से जूझ रही सरकारों के लिए सबको सरकारी नौकरी दे पाना भी संभव नहीं है। राजनीतिक दल हर चुनाव के पहले लोगों को रोजगार देने के वायदे करते हैं लेकिन जैसे ही उन्हें सत्ता मिलती है, उन्हें अपने तंत्र की आर्थिक सीमाएं पता चलने लगती हैं और वे चुनावी वायदों को या तो टालने लगते हैं या उन्हें भूल जाते हैं।

नई अर्थव्यवस्था के दौर में सरकारी तंत्र का बोझ कम करने की कोशिश शुरू हुई। गीता कृष्णन समिति ने इस सदी के शुरुआती दिनों में हर सरकारी विभाग से बाबू और चपरासी जैसे पदों को समाप्त करने की अनुशंसा की थी। इसका असर यह हुआ कि ग्रुप बी, क्लर्क और तीसरे दर्जे के पदों पर भर्तियां रुक गईं, लेकिन अधिकारियों की नियुक्तियां उस अनुपात में कम नहीं हुईं।

गीता कृष्णन समिति की बात मानने का असर यह हुआ कि जरूरी सरकारी कामों का होना सुनिश्चित करने के लिए अधिकारियों के अधीन ग्रुप बी, ग्रुप सी या बाबू आदि के पदों पर ठेकेदार के जरिए या फिर कभी सीधे ठेके पर रोजगार दिए जाने लगे। इससे वेतन मद में होने वाला सरकारी खर्च अवश्य कम हुआ लेकिन साथ ही यह भी साबित हुआ कि गीता कृष्णन समिति की सिफारिशें व्यावहारिक नहीं हैं।

आज हालत यह है कि कुछ विभागों के बारे में कहा जा रहा है कि वर्ष 2022 के बाद वहां स्थायी कर्मचारियों का हिस्सा दस या पंद्रह प्रतिशत ही रह जाएगा। वैसे, नवंबर 2018 में संसद में केंद्रीय कार्मिक मंत्रालय ने माना है कि एक मार्च 2016 तक 4 लाख 12 हजार 752 पद खाली थे, जिनमें 15,284 पद ग्रुप ‘ए’, 26,310 पद ग्रुप ‘बी’ (राजपत्रित), 49,740 पद ग्रुप ‘बी’ (गैर राजपत्रित) और 321,418 पद ग्रुप ‘सी’ के खाली थे।

आज का युवा अगर रोजगार की ओर देखता है, तो उसकी निगाह में ये पद ही ज्यादा होते हैं। इनके अलावा सरकारी अनुमानों में ही माना गया है कि 10 लाख माध्यमिक और प्राथमिक शिक्षकों के पद खाली हैं। इसी तरह पुलिस अनुसंधान एवं विकास ब्यूरो के मुताबिक करीब 4,40,000 सशस्त्र बल जवानों और 90,000 पुलिसकर्मियों की जरूरत है। इतना ही नहीं, विभिन्न अदालतों में 5,800 पदों के साथ डाक विभाग में 54 हजार पद खाली हैं।

निजी क्षेत्र में खलबली:

औद्योगिक क्रांति के पहले अपने देश की अर्थव्यवस्था कृषि और शिल्पकारी पर आधारित थी। औद्योगिक क्रांति का फायदा इसे आजादी के बाद ही मिल पाया। आजाद भारत में सरकारी नौकरियां बढ़ीं, तो लोगों का उधर रुझान बढ़ा। आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत के बाद लोगों की निजी क्षेत्र में दिलचस्पी बढ़ी। लेकिन जब आर्थिक उथल-पुथल का दौर शुरू हुआ तो लोग एक बार फिर सरकारी क्षेत्र की ओर ही झुकने लगे हैं।

आज अगर रोजगार को लेकर सरकारों पर सवाल उठ रहे हैं, तो इसकी बड़ी वजह सरकारी नौकरियों की कम होती गुंजाइश और निजी क्षेत्र की उथल-पुथल है। जाहिर है, जब भी रोजगार के मोर्चे पर सोचना होगा, तब हमें सरकारी क्षेत्र के इन खाली पड़े पदों की तरफ देखना ही होगा। रोजगार के मोर्चे पर जारी बहस को तभी संतुलित रखा जा सकेगा।

डिस्क्लेमर : उपरोक्त विचार लेखक के अपने हैं।

सौजन्य से: एनबीटी

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