कर्णप्रयाग तक रेल पहुंचने से काफी आसान हो जाएगी सीमावर्ती क्षेत्रों की निगरानी
पहाड़वासियों के लिए आजाद भारत के इतिहास की यह सबसे बड़ी घटना होगी, जिसे केवल विकास की सहयात्रा का प्रतीक मानना सही नहीं होगा। यह इस क्षेत्र में एक दूरगामी सामाजिक-सांस्कृतिक बदलाव की भी एक शुरुआत है
व्योमेश चंद्र जुगरान
उत्तराखंड के भीतरी पहाड़ों में रेलगाड़ी का दशकों पुराना सपना अब उड़ान भरने लगा है। राज्य सरकार के दावे पर यदि भरोसा किया जाए, तो अगले 5 सालों में ऋषिकेश और कर्णप्रयाग के बीच 125 किमी के ट्रैक पर ट्रेन दौड़ने लगेगी। तब 100 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से जुड़कर आम यात्री ऋषिकेश से कर्णप्रयाग की यात्रा दो घंटे से भी कम समय में पूरा कर सकेगा।
राज्य सरकार के अनुसार काम द्रुत गति से चल रहा है और पहाड़ी रेल न्यू-ऋषिकेश से 6 किमी दूर वीरभद्र स्टेशन तक पहुंच चुकी है। इसके आगे इसे शिवपुरी, व्यासी, देवप्रयाग, मलेथा, श्रीनगर, धारीदेवी, रुद्रप्रयाग, घुलतीर, गौचर और अंततः कर्णप्रयाग स्टेशन तक पहुंचने के लिए 16 छोटे-बड़े पुलों और 17 सुरंगों से होकर रेल लाइन बिछाई जानी है।
कल्पना की जा सकती है कि जिस पर्वतीय अंचल में रेल सेवाओं के विस्तार की इच्छा आकाश से चांद तोड़कर लाने की बाल सुलभ इच्छा जैसी मानी जाती रही हो, वहां यदि रेल पहुंचने जा रही है तो इसके क्या मायने हो सकते हैं! निस्संदेह यह पहाड़वासियों के लिए आजाद भारत के इतिहास की सबसे बड़ी घटना है जिसे केवल विकास की सहयात्रा का प्रतीक मानकर संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता। यह इस क्षेत्र में एक दूरगामी सामाजिक-सांस्कृतिक बदलाव की भी एक शुरुआत है।
हालांकि रेल पहाड़वासियों की मुखर मांग कभी नहीं रही, लेकिन पहाड़ में रेल लाइन का विचार काफी पुराना है। ऋषिकेश-कर्णप्रयाग लाइन के लिए पहला सर्वे 1919 में गढ़वाल के तत्कालीन डेप्युटी कमिश्नर जे.एम. क्ले ने करवाया था। अंग्रेज मसूरी और कर्णप्रयाग दोनों जगह रेल ले जाना चाहते थे। पहाड़ के बूढ़े-बुजुर्ग मानते हैं कि यदि अंग्रेज कुछ समय और रुक गए होते तो उत्तराखंड के भीतरी पहाड़ उसी दौरान छुक-छुक की आवाज से गूंज उठे होते।
आजादी के बाद पहली बार कर्णप्रयाग रेल लाइन के विचार को मूर्त रूप देने के लिए 1996 में तत्कालीन रेल राज्यमंत्री सतपाल महाराज ने सर्वेक्षण के आदेश जारी किए थे, मगर वह सर्वे रिपोर्ट दिल्ली के बड़ोदा हाउस की रेलवे लाइब्रेरी में धूल फांकती रही। इसके डेढ़ दशक बाद 2010 में तत्कालीन रेलमंत्री ममता बनर्जी ने रेल बजट में ऋषिकेश-कर्णप्रयाग लाइन के लिए 4,295 करोड़ का बजट प्रावधान कर पहाड़ पर रेल के विचार को फिर से जिंदा किया था।
तत्पश्चात 9 नवंबर 2011 को रक्षामंत्री ए. के. एंटनी की उपस्थिति में चमोली जिले के गौचर नामक स्थान पर इस रेल परियोजना की आधारशिला भी रख दी गई, लेकिन आने वाले वित्तीय वर्षों में इसे आगे बढ़ाने पर कुछ नहीं हो सका। तथापि वर्ष 2014 में मोदी सरकार आने के बाद जहां 12.50 हजार करोड़ की लागत से ऑल वेदर रोड जैसी महत्वाकांक्षी योजना की शुरुआत हुई, वहीं तत्कालीन रेलमंत्री सदानंद गौड़ा ने अपने प्रथम बजट भाषण में चारधाम रेल लाइन के सर्वेक्षण की घोषणा कर पहाड़ के भीतरी हिस्सों में रेल संपर्क का उद्देश्य घोषित किया था।
यदि रेलवे लाइन से पहाड़ों में किसी क्रांतिकारी बदलाव की उम्मीद न लगाई जाए, तो भी उत्तराखंड में पर्यटन और तीर्थाटन के विकास का नया दौर अवश्य प्रारंभ होगा। मोटरगाड़ी की कष्टप्रद यात्रा के कारण ज्यादातर पर्यटक नैनीताल या मसूरी जैसे नजदीकी हिल स्टेशनों से आगे जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। इसके अलावा दूर-दराज की उपजाऊ घाटियों में कृषि उत्पादों को लाभकारी मूल्य पर मैदानी बाजारों में पहुंचाना आसान हो जाएगा।
इसके अलावा चीन की सीमा से लगे सीमावर्ती क्षेत्रों का रेल परिवहन से जुड़ना देश के सामरिक हितों के लिए भी अत्यंत आवश्यक है। चीनी रेल तिब्बत तक पहुंच चुकी है। इससे आगे उसका भारत, नेपाल और भूटान से लगे सीमावर्ती क्षेत्रों में रेल लाइनों का जाल बिछाने का मिशन भी जारी है।
अभी इस क्षेत्र में हमारे पास भारत-तिब्बत सीमा पुलिस का अंतिम कैंप घस्तौली है जो बदरीनाथ से आगे नागताल से निकल रही सरस्वती नदी के किनारे माणा दर्रे के करीब है। माणा दर्रे से मानसरोवर को रास्ता जाता है, जिसे तिब्बत पर चीनी अतिक्रमण के बाद से बंद कर दिया गया था। रेल लाइन बन जाने से इन सीमावर्ती क्षेत्रों पर निगरानी निश्चित रूप से काफी आसान हो जाएगी।
साभार: एनबीटी
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