रेल में चल रहा विकट खेल

मौजूदा आठ सेवाओं के बदले दो कैडर रेलमंत्री की अपेक्षाओं को बेहतर ढंग से पूरा कर सकते हैं, बशर्ते उनके प्रशिक्षण और कार्य-संस्कृति में बुनियादी बदलाव लाया जाए

प्रेमपाल शर्मा

भारतीय रेल संगठन में ऐतिहासिक बदलाव की विभिन्न घोषणाओं ने रेल कर्मचारियों में भारी हलचल मचा दी है। अधिकारियों में यह हलचल और भी ज्यादा मची हुई है। इसके वाजिब कारण भी हैं। पहला तो यही कि इतने बड़े बदलाव की घोषणा करने से पहले न तो लोकतांत्रिक ढंग से कोई विचार-विमर्श किया गया और न ही उद्देश्यों की स्पष्टता, कार्य-नीति ही सामने आई है।

यों रेल विभाग से बदलाव की अपेक्षा पूरे देश को है। क्योंकि करोड़ों लोगों को बेहतर सुविधाएं चाहिए, सुरक्षित यात्रा चाहिए और 21वीं सदी में वो स्पीड भी चाहिए, जिस पर आज फ्रांस, जापान, चीन की रेलगाड़ियां चल रही हैं। इन अपेक्षाओं को पूरा कैसे किया जाए जब रेल विभाग की वित्तीय स्थिति लगातार बिगाड़ की तरफ है? 98.44 खर्च करके मात्र 100 की कमाई है और वह भी इतने बड़े हाथी संगठन के बावजूद।

जब वित्तीय स्थिति ऐसी होगी तो सेवाओं में सुधार कैसे होगा? कैसे नई लाइनें बिछेंगी? कैसे नई तकनीक, नए इंजन, नई शुरुआत होगी? पिछले बजट में जो आकलन किए गए थे, उसके अनुसार यह सब करने के लिए अगले 10 वर्षों में लगभग 50 लाख करोड़ पूंजी की जरूरत होगी। तो आखिर रास्ता क्या हो? और यह भी कि जनता कब तक इंतजार करे?

लेकिन क्या आनन-फानन में सारी रेल सेवाओं को एक करके, रेल प्रबंधन सेवा बनाने के विकल्प से सारी समस्याएं हल हो जाएंगी? पिछले 20 वर्षों में रेलवे में बदलाव के लिए कई उच्च स्तरीय समितियों ने विचार किया है जिनमें 1994 में प्रकाश टंडन कमेटी, 2000 में राकेश मोहन कमेटी, 2012 में सैम पित्रोदा कमेटी और 2016 में विवेक देबरॉय समिति शामिल है।

कुछ बातें हर समिति ने दोहराई हैं, जैसे रेलवे के विभिन्न विभागों में आपसी खींचतान, जिसके कारण किसी भी निर्णय में देरी होती है। रेलमंत्री ने भी अपने निर्णय के पीछे इन बातों के अलावा सुस्ती, लालफीताशाही, फिजूलखर्ची, केंद्रीकरण और अकर्मण्यता को दोहराया है। और समाधान के रूप में जो घोषणाएं की हैं, वे हैं कि मौजूदा नौ सदस्यों वाले रेलवे बोर्ड की जगह चेयरमैन समेत सिर्फ 5 मेंबर्स होंगे। मेंबर इंफ्रास्ट्रक्चर, ऑपरेशन , वित्त और रोलिंग स्टॉक। चेयरमैन सीईओ की तरह काम करेगा।

इसके अलावा फील्ड के सभी जनरल मैनेजर को सचिव के स्तर का पद दिया जाएगा। रेलवे बोर्ड के आकार को छोटा करना तथा जोनल महाप्रबंधकों को और ताकत देना तो अच्छा कदम है, लेकिन आठ सेवाओं को संपूर्ण तैयारी, पाठ्यक्रम, ट्रेनिंग, आधारभूत ढ़ांचे के बिना बनाना पूरी रेल प्रणाली को मुश्किल में डाल सकता है।

रेल विभाग में लगभग 13.50 लाख कर्मचारी काम करते हैं, जिसमें 8000 अधिकारी स्तर के है। भर्ती प्रक्रिया के तहत इन अधिकारियों को दो श्रेणियों में मुख्यतः बांटा जा सकता हैं। यूपीएससी द्वारा आयोजित सिविल सेवा परीक्षा से चुने हुए, जैसे भारतीय यातायात सेवा, लेखा, कार्मिक सेवा और दूसरे इंजीनियरिंग सेवा परीक्षा के माध्यम से, जैसे सिविल, मैकेनिकल, इलेक्ट्रिकल और सिग्नल इंजीनियर।

रेलवे की प्रतिष्ठा, काम का संतोष, प्रमोशन और सुविधाओं को देखते हुए अधिकतर उम्मीदवार इन सेवाओं में आने को लालायित रहते हैं। लेकिन पहली बार इस घोषणा के बाद आने वाले दिनों में यूपीएससी में साक्षात्कार के लिए बैठने वाले उम्मीदवार यह सोचकर एक दोराहे पर खड़े हो गए हैं कि क्या रेलवे में अब उनका भविष्य सुरक्षित रहेगा?

वहीं पिछले कुछ वर्षों में रेल सेवा में आने वाले दर्जनों अधिकारियों ने संघ लोक सेवा आयोग और कार्मिक मंत्रालय को उनका कैडर बदलने का अनुरोध किया है ।यह कारण बताते हुए कि इतनी अच्छी रैंक, मेरिट होने के बावजूद भी उन्होंने रेलवे को चुना था, तो उस विशेषज्ञता के लिए चुना था, ऐसे डावाडोल भविष्य के लिए नहीं। इसलिए उनके इस विश्वास को लौटाना भारतीय रेल की प्रतिष्ठा और बेहतरी के लिए और भी जरूरी है।

निसंदेह दुनिया तकनीक से आगे बढ़ी है लेकिन तकनीक को बढ़ाने वाला मनुष्य और उसकी मेधा ही होती है। भविष्य कृत्रिम बुद्धिमत्ता और रोबोट की मदद लेगा, लेकिन इन सब के पीछे भी मनुष्य की मेधा ही काम करेगी। इसलिए लाखों कर्मचारियों के इंजन के रूप में काम करने वाले इन अधिकारियों के असंतोष को किसी भी तर्क से नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। उनके हौसले और अपेक्षा को बरकरार रखना रेल प्रशासन और संगठन के हित में है। इसलिए बदलाव का स्वागत तो है, लेकिन कुछ सुधार, परिवर्तन के साथ।

रेलमंत्री की घोषणाओं के अनुसार सचिव स्तर की एक कमेटी इस पर विचार करेगी और फिर उस पर मंत्रिमंडल समूह अंतिम निर्णय लेगा। देखा जाए तो यह सही प्रक्रिया है। इसलिए रेल विभाग की लगभग 166 वर्ष पुरानी तकनीकी विरासत, अनुभव, विशेषज्ञता को देखते हुए अच्छा हो कि केवल एक कैडर के बजाय तकनीकी और गैर तकनीकी दो कैडर, सेवाएं बनाई जाएं।

सिविल सेवा परीक्षा से आने वाले एक समूह में और इंजीनियर दूसरे समूह में। हां, यह जरूर सुनिश्चित किया जाए कि प्रमोशन और सुविधाओं, शक्तियों के मामले में वे सब एक समान हों। मौजूदा व्यवस्था की एक बड़ी बुराई की तरह उनमें अंतर न हो, और न सामाजिक जातिवाद की तरह भेदभाव किया जाए। यह संभव बनाया जा सकता है और तुरंत ऐसा हो सकता है।

रेल मंत्रालय एक तकनीकी मंत्रालय है और हमें स्वीकार करना चाहिए कि तकनीक के मामले में हम दुनिया के देशों के मुकाबले में अभी भी बहुत पीछे हैं। ज्यादातर तकनीक हम विदेशों से आयात करते रहे हैं। कमी हमारे नौजवानों की नहीं है लेकिन शिक्षा व्यवस्था, राजनीतिक इच्छाशक्ति, दृष्टि या कहें हमारे रेल संगठन में कुछ तो ऐसी कमी है कि हम अपेक्षाओं से बहुत पीछे चल रहे हैं।

इन्हीं अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए रेलमंत्री की कुछ घोषणाएं निजीकरण की तरफ भारतीय रेल को धकेल रही हैं, तो कुछ एकीकृत रेल सेवा बनाने की ऐतिहासिक गलती वाले कदम की ओर।

निश्चित रूप से रेलवे की वित्तीय स्थिति को छोड़ दिया जाए, तो पिछले वर्ष रेलवे ने पर्याप्त बेहतरी के संकेत दिए हैं जिनमें दुर्घटनाओं में कमी, रेल सेवाओं में बेहतरी, ट्रेनों की स्पीड में बढ़ोतरी, ज्यादातर प्रोडक्शन यूनिट में उत्पादन क्षमता में अभूतपूर्व सुधार, उत्तर पूर्व और कश्मीर में रेल लाइनों के फैलाव के साथ-साथ आजादी के बाद पिछले पांच सालों में रेलवे लाइन को बढ़ाने का अभूतपूर्व रिकॉर्ड बना है।

डेडीकेटेड फ्रेट कॉरिडोर, बुलेट-तेजस जैसी योजनाओं पर भी तेजी से काम हो रहा है। लेकिन यह भी सोचने की जरूरत है कि पिछले दिनों की जो उपलब्धियां हैं उसका श्रेय 13.50 लाख रेलकर्मियों और अधिकारियों के सामूहिक नेतृत्व, लगन और कार्यक्षमता को भी जाता है। अच्छा होगा कि उनके अंदर अपने विभाग के प्रति निष्ठा वैसी ही बनी रहे और इसीलिए जरूरी है कि उनके सामने उनके कैरियर का स्पष्ट सांचा हो।

मौजूदा आठ सेवाओं के बदले दो कैडर रेलमंत्री की अपेक्षाओं को बेहतर ढंग से पूरा कर सकते हैं, बशर्ते उनके प्रशिक्षण और कार्य-संस्कृति में बुनियादी बदलाव लाया जाए।

रेलवे की नौकरशाही, आपसी खींचतान, निर्णय न लेने की जो बीमारियां हैं, देखा जाए तो ये बीमारियां पूरी भारतीय नौकरशाही में हैं, क्योंकि यह नौकरशाही उसी ब्रिटिश नौकरशाही की तीसरी घटिया कॉपी है, जो अभी भी सत्ता के सामंतों की तरह व्यवहार करती है।

नौकरी में चुने जाने के क्षण से ही इनमें सर्वश्रेष्ठ होने का दंभ घर कर लेता है। नाम तो इनका लोकसेवक है लेकिन बंगला चपरासी, और दूसरे इतनी तरह के फिजूल सेवकों से घिरे ये अपने को आजाद भारत के शहंशाह ज्यादा समझते हैं।

अतः इनके प्रशिक्षण को कुछ इस रूप में बदलने की आवश्यकता है कि ये अपने-अपने क्षेत्र के विशेषज्ञ बनें। पदोन्नति में सिर्फ उम्र का पैमाना न हो। हर बार अगले पद के लिए उनकी क्षमता का परीक्षण किया जाए, जैसा कि निजी क्षेत्र में होता है। 360 डिग्री गोपनीय असेसमेंट का पैमाना अभी पूरी तरह से रेलवे में लागू नहीं किया गया।

रेल अधिकारियों को भी दिल्ली-मुंबई-कोलकाता जैसे महानगरों में ही पूरी सेवा करने या उम्र गुजार लेने की आकांक्षाओं से मुक्त होने की जरूरत है। इससे उनकी कार्यक्षमता में तो गिरावट आती ही है, अधिकारियों में आपस में पक्षपात, चापलूसी को भी बढ़ावा मिलता है।

80 के दशक में गुजराल और हाल के दिनों में मेट्रो मैन ई. श्रीधरन के उदाहरण बताते हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर एक अच्छे रेल प्रशासक आप कैसे बन सकते हैं। अमूल दूध के बूते भारत को दुनिया में नंबर एक की हैसियत दिलाने वाले वर्गीज कुरियन ने तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के सामने शर्त रखी थी कि वे दिल्ली में नहीं रहेंगे, किसानों के बीच में रहेंगे। रेल अधिकारियों को भी अपने अंदर झांकने की जरूरत है।

ब्रिटिश राज की सर्वश्रेष्ठ विरासतों में भारतीय सेना और भारतीय रेल दोनों को भी हाल तक गिना जाता रहा है, लेकिन राजनीतिक हस्तक्षेप से जहां भारतीय सेना मुक्त रही है, भारतीय रेल में अतिरिक्त हस्तक्षेप से उतनी ही बरबादी हुई है। इसलिए सिर्फ इकहरी दृष्टि से अथवा एक विशेष लॉबी के इशारों पर चलते हुए तुगलकी अंदाज से एक सेवा के गठन से हम अपेक्षित मंजिल तक शायद नहीं पहुंच पाएंगे।

सुधार होना चाहिए, इस बात का समर्थन सब कर रहे हैं, लेकिन रफ्ता-रफ्ता और सर्वसम्मति से। परंतु उससे पहले ज्यादा जरूरी है कार्य-संस्कृति को बदलना और कार्य-संस्कृति सामाजिक बदलाव के अनुरूप बदलती है। वह सेवाओं के एक करने से शायद संभव न हो। हो सकता है इस जल्दबाजी से रेल और भी पटरी से उतर जाए। रेलमंत्री की मजबूत इच्छाशक्ति का सबूत तो यह फैसला है ही।

प्रेमपाल शर्मा, वरिष्ठ लेखक, समीक्षक और साहित्यकार हैं। रेल मंत्रालय में संयुक्त सचिव रहे हैं। संपर्क: 9971399046