रेल अधिकारियों की ‘कथनी’ और ‘करनी’ में अंतर
निकम्मे और नालायक अधिकारियों को अपने मातहतों से ‘जिन्न’ जैसी तत्परता की अपेक्षा क्यों होनी चाहिए?।
आमंत्रित लेख: सुरेश त्रिपाठी*
मोदी सरकार को बखूबी पता है कि रेलवे की लुटिया डुबाने वाले रेल कर्मचारी नहीं, बल्कि रेल अधिकारी हैं। यही वजह है कि 2014 में केंद्र की सत्ता में आने के बाद मोदी ने जब नजर घुमाई तो रेलवे में निकम्मे वर्कर कम, बल्कि दंभी, भ्रष्ट और कामचोर अधिकारियों की भरमार दिखी। मोदी ने यह भी देखा कि यहां जो काम आसानी से एक अधिकारी से हो सकता है, वहां चार-पांच अधिकारी तैनात हैं।
मोदी ने यह भी देखा कि अधिक पोस्टें होने के बावजूद खाली बैठा कोई भी अधिकारी नहीं दिखता, जिसे देखो वह ऑफिस में बैठकर ट्रेडिंग में, कांट्रेक्टरों से पार्टी-कमीशन लेने की प्लानिंग में, मोबाइल पर गेम खेलने अथवा सोशल मीडिया पर अपडेट करने में, कंप्यूटर, लैपटॉप पर ताश खेलने में, नए कांट्रेक्ट कैसे निकाले जाएं, तमाम काले-पीले काम कर तो दिए हैं, पर अब सीबीआई से बचा कैसे जाए आदि-आदि बेहद जरूरी कार्यों में व्यस्त अधिकारी दिखाई दिए।
और जो बचे-खुचे अधिकारी थे, वह जीएम तथा रेलवे बोर्ड की आंखों में धूल झोंकने की जुगाड़ में लगे नजर आए। कसाई को भी मात देते हुए इन्होंने रेल कर्मचारी कम करके ठेकेदारों से काम कराने की प्लानिंग तो सक्सेस कर ली, पर यह सब करते हुए वे भूल गए कि दावानल किसी को नहीं बख्शता।
हालांकि कथित ‘विभागवाद’ का कांटा निकालने के लिए तलवार के इस्तेमाल का मोदी का तरीका ऐतिहासिक गलती करने जैसा है। तथापि अधिकारियों की अक्ल का नमूना भी देखना जरूरी है, जो तथाकथित एमबीए, आईआईटी, बीटेक, एमटेक पास अधिकारी अपने विभाग को खत्म होने से बचाने के लिए अचानक आपसी बैर भूलकर एक हो गए हैं, वे ही 10वीं-12वीं पास रेलकर्मी से सभी तरह के कार्य कराने की न सिर्फ अपेक्षा रखते हैं, बल्कि हर हाल में करवाने का प्रयास करते हैं।
जहां एक विभाग का एक मंडल अधिकारी होता था, वहां अब 8 से 10 मंडल अधिकारी बैठे हैं। उनमें से वरिष्ठ को ‘समन्वय’ नाम दे दिया गया। मुख्यालय में एक एचओडी या पीएचओडी की जगह अनेकों अधिकारी ‘कोरोना वायरस’ जैसे पैदा हो गए। उनमें एक को अब ‘प्रिंसिपल’ नाम दे दिया गया है। एक डिवीजन में एक मंडल रेल प्रबंधक और एक उसका सहायक होता था, अब तीन-तीन, चार-चार अपर मंडल रेल प्रबंधक हो गए हैं, जो अपने-अपने केबिन में ऊंघते बैठे रहते हैं।
कर्मचारी पर आंखें तरेरने के लिए तो ये सब हैं, पर किसी समस्या के समाधान हेतु जब कोई कर्मचारी अथवा डीलिंग क्लर्क इनके पास जाता है, तो ये तथाकथित ‘हाईली एजुकेटेड’ रेलवे के कर्णधार तत्काल बोल देते हैं कि यह डिपार्टमेंट मैं नहीं देखता, दूसरे एडीआरएम से करवा लो, या उनके पास जाकर बताओ!
अपने मातहत सुपरवाइजर से हर तरह के ज्ञान और उसकी तमाम जानकारी से लैस होने की उम्मीद रखने वाले इन तथाकथित ज्ञानियों के पास एक भी समस्या का सकारात्मक और त्वरित हल उपलब्ध नहीं होता है। कांट्रेक्ट वर्क के अलावा इनसे कोई भी बात मनवा लेना किसी कर्मचारी या सुपरवाइजर के लिए हमेशा एक टेढ़ी खीर ही साबित होता है।
यदि डीलिंग क्लर्क ने कोई एक भी समस्या उठाई, तो वह पत्र डिवीजन से हेड क्वार्टर और हेड क्वार्टर से रेलवे बोर्ड जस्टिफिकेशन के लिए भेज दिया जाता है। जब हर समस्या का समाधान रेलवे बोर्ड को ही करना है, तो सवाल यह है कि फिर इन ढ़ेरों अधिकारियों को यहां बैठाया क्यों गया है?
ये अधिकारी हर काम की सीमाएं बताकर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। परंतु 10वीं-12वीं पास वर्कर से हर काम की मुस्तैदीपूर्ण उम्मीद रखते हैं। इसी तरह सीएलआई, सीटीआई, सीसीआई, सीएमआई इत्यादि इंस्पेक्टरों अथवा सुपरवाइजरों से इन्हें हर बात का सटीक और त्वरित निदान भी अपने चेंबर में बैठे-बैठे चाहिए होता है।
जहां इंस्पेक्टरों या सुपरवाइजरों की जरूरत नहीं है, वहां भी उन्हें भेजकर सारी बातों का आंखों देखा हाल भी इन्हें अपने चेंबर में ही चाहिए। जिसे यह उच्च अधिकारियों के सामने ऐसे पेश कर सकें कि जैसे उसे इन्होंने खुद किया है। अब इनको हर लोको इंस्पेक्टर या सुपरवाइजर से ईएमयू, इलेक्ट्रिक लोको, डीजल लोको सबके फेलियर अटेंड करवाने तथा हर इंजन, ईएमयू की बारीक से बारीक जानकारी भी चाहिए।
मुंबई उपनगरीय रेल नेटवर्क की जटिलता को देखते हुए विगत 100 वर्षों से ऐसा कभी नहीं हुआ। जबकि उस वक्त ट्रैफिक आज से 1000 गुना कम था। आज जब पंक्चुअलिटी के पीछे सारी रेल मशीनरी पड़ी है, तब ऐसे कठिन समय में यह विचार या तो रेलवे को डुबाने का षड्यंत्र है, या फिर यह रेलवे की छवि धूमिल करने का एक सोचा-समझा और पूर्व नियोजित प्रयास हो सकता है।
सारे सुपरवाइजर और इंस्पेक्टर निकम्मे हैं, कोई काम नहीं करते हैं, की रट लगाने वाले अधिकारी अपने पास इनकी पोस्ट न होने के बावजूद इनको अपने साथ चिपकाए हुए घूमते हैं। बिना सीएलआई, सीटीआई, सीसीआई या सीएमआई के यह बाहर एक कदम नहीं चल सकते हैं। तथापि इन्हें अपने आप पर और अपने मातहत स्वीकृत पदों पर कार्यरत सहायकों पर तनिक भी विश्वास नहीं है।
दंभी और कमजोर आत्मविश्वास वाले एक भूतपूर्व एडीआरएम तो जहां भी जिस पद पर भी रहे, वहां अपने एकमात्र फिक्स लोको निरीक्षक को पोस्ट के साथ ही लेकर घूमते रहे। उसी के भरोसे अपनी नैया पार लगाते रहे। अब एमआरवीसी में गए, तो वहां भी उसे ले जाने के सारे प्रयास किए, पर जब उसने पेमेंट कम हो जाने की बात कहकर उनके साथ जाने से साफ इंकार कर दिया, तो अब उसे उसकी ‘सेवा’ के फलस्वरुप उनकी जगह आए नए एडीआरएम के साथ चिपका दिया गया है।
ऐसे ही न जाने कितने लोको निरीक्षकों, मोटरमैनों, गार्डों जैसे अति-आवश्यक स्टाफ सहित तमाम वाणिज्य एवं इंजीनियरिंग कर्मियों को उनके मुख्य कार्य से हटाकर मुंबई मंडल के साथ ही अन्य लगभग सभी मंडलों में अधिकारियों ने अपने मार्गदर्शक के रूप में अपने साथ कार्यालयों में तैनात कर रखा है। उनको ‘लाइट-वर्क’ की मलाई खिलाई जा रही है, जबकि उनके काम का अतिरिक्त लोड अन्य लोको निरीक्षकों एवं रेलकर्मियों के सिर मढ़ दिया गया है।
इतने पर भी इनकी हद खत्म नहीं होती है, क्योंकि लाइन पर कार्यरत लाखों रुपये मासिक का वेतन पाने वाले लोको निरीक्षकों से बेसिर-पैर के काम कराने का अधिकारियों को ऐसा चस्का लगा है कि छूटता ही नहीं, जिससे तमाम लोको निरीक्षक और ऐसे ही अन्य वरिष्ठ रेलकर्मी ने सिर्फ अपने वास्तविक कार्य से बाहर हैं, बल्कि इससे रेलवे का ही भारी नुकसान हो रहा है। फिर भी हर अधिकारी इनसे असंतुष्ट ही दिखाई देता है, और समय आने पर अपना बचाव करते हुए हर पाप लोको निरीक्षक के सिर धकेल देता है।
इसके बावजूद हर अधिकारी चाहता है कि एक ही व्यक्ति ईएमयू, डीएमयू, मेमू और विभिन्न प्रकार के लोको इत्यादि सभी पर नजर रखे, उसके बारे में जाने और कार्य करे, मगर अधिकारी अभी भी इलेक्ट्रिकल, मैकेनिकल, सिविल, पर्सनल, ट्रैफिक, कमर्शियल, अकाउंट्स, स्टोर्स आदि-इत्यादि सब में भेद रखकर अपने सीमित क्षेत्र में कार्य करे। अधिकारियों की इस न्यून मानसिकता का आखिर क्या औचित्य है?
यदि ये अधिकारी परफेक्शन देने के नाम पर और इतनी हायर एजुकेशन के बावजूद अपने सीमित क्षेत्र में कार्य करने की दलील देते हैं, तो वर्कर से जिन्न जैसी अपेक्षा रखने के पीछे क्या रहस्य है? और यदि यह अधिकारी अपनी कमी अथवा अज्ञानता को छिपाने के लिए यह दलील दे रहे हैं, तो वर्कर को महाज्ञानी कैसे समझ रहे हैं?
अंततः यदि अधिकारी अपने निकम्मेपन के चलते यह दलील दे रहे हैं, तो वे सबसे पहले यह समझ लें कि वर्कर भी रेलवे का ही हिस्सा हैं। ताज्जुब तो तब होता है जब अपने चेंबर से कभी बाहर न निकलने वाला निकम्मा अधिकारी ही इस सब का सूत्रधार होता है, और वही अपने समकक्ष अन्य अधिकारियों के दिमाग में स्टाफ के विरोध का कीड़ा पैदा करता रहता है।
ऐसे अधिकारी या तो रेलवे को सुधार की जगह (सुधार तो तब होगा जब उसको अपने कार्य क्षेत्र के सेक्शन की जानकारी होगी) स्टाफ में कैसे असंतोष फैलाना है, की प्लानिंग करते रहते हैं, या फिर अपने मुंहलगे टीआई, रनिंग रूम के साथ बैठकर परचेज में घोटाले की योजना बना रहे होते हैं।
यदि अधिकारियों को अपना और कर्मियों का असंतोष हटाना है, तो जगह-जगह बाबूगीरी कर रहे लोको निरीक्षकों सहित अन्य रेलकर्मियों को हटाकर अपना आत्मविश्वास बढ़ाएं और फील्ड में कार्यरत निरीक्षकों का बेवजह बोझ कम करें। निरीक्षकों से फिजूल कार्य न करवाकर उनको उनका निर्धारित कार्य करने पर लगाएं। उनके कार्य अनुभव का इस्तेमाल रेलवे को अच्छी गति प्रदान करने में करें।
मुंबई की रेल प्रणाली की जटिलता रोज एक नई सीख देती है, और लगातार सीखते रहने का पैगाम भी। यहां सौभाग्य से पदस्थ होने वाले अधिकारियों को इसका लाभ उठाना चाहिए, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि जो अधिकारी मुंबई के उपनगरीय रेल नेटवर्क में एक बार काम कर लेता है, वह भारतीय रेल के किसी भी हिस्से में कभी फेल नहीं होता है!
*लेखक वरिष्ठ पत्रकार और रेलसमाचार.कॉम के संपादक हैं।