नौकरशाही का मैनुअल: हम ही तो असली सरकार हैं!
#नौकरशाही भी अजीब नाम है। ‘नौकर’ भी और ‘शाह’ भी। अंग्रेजी का ‘ब्यूरोक्रेसी’ अधूरा सा लगता है। ‘गवर्नमेंट सर्वेंट’ या ‘पब्लिक सर्वेंट’ तो नितांत झाँसेबाजी लगती है। किसका सर्वेंट, काहे का सर्वेंट? अरे, हम तो राजा के प्रतिनिधि हैं, कर-चूषक हैं, तगादेकार हैं। हम ही तो असली सरकार हैं।
क्या कहा आपने? “राजा” अब कहॉं रहे? अरे भाई! यह तो हम भी जानते हैं कि प्रजातंत्र में राजा नहीं होते। लेकिन आप यह न भूलें कि ‘प्रजातंत्र’ में ‘प्रजा’ तो होती है। अब प्रजा है, तो राजा भी होगा ही, चाहे उसे किसी और नाम से पुकारें। आपको अपने स्कूल में यह घुट्टी अवश्य पिलाई गई होगी कि प्रजातंत्र में सरकार का चुनाव जनता करती है। वह आपका और आपके शिक्षकों का भ्रम था। आप तो विधायक और सांसद चुनते हैं। ये विधायक और सांसद आपस में मिलकर मंत्रिमंडल और मंत्री बनाते हैं और समझते हैं कि हमने सरकार बना ली। ये भी एक छलावा ही है।
सरकार-मंत्री या उनकी कुर्सियाँ नहीं होती। ये सब तो भ्रम बनाए रखने के साधन मात्र हैं। सरकार फाइलों में होती है, जो हमारी आल्मारियों में बंद रहती हैं। सरकार हम नौकरशाहों की कलम में होती है, जिसका ढ़क्कन कसकर बंद करके हम अपनी जेबों में रखते हैं। जिस दिन हमने आल्मारी से फाइल निकाली, कलम से कुछ नोटिंग बनाई, उस दिन सरकार के सरकने का सा अनुभव होता है और सरकार के होने का अहसास भी पैदा होता है। फिर हमारा कोई सहकर्मी झपटकर फाइल को पकड़ लेता है और कुछ नोटिंग बनाकर अपनी वाली आल्मारी में बंद कर देता है। फाइल बंद, सरकार का सरकना बंद।
कभी-कभी कोई मंत्री झाँसे में नहीं आता और जबरन फाइल मँगवा लेता है। तब हम फाइल के साथ वह सारे कोड और मैनुअल लगा देते हैं जिनमें काम नहीं करने के पचास तरीके बताये गये होते हैं। “हाऊ टू स्टॉप वर्क ऐंड फ्राइटेन द बॉस” – यह नौकरशाही का फलसफा हमने पिछले सत्तर सालों में खूब गुना है। अगर मंत्री जी फिर भी न मानें, तो उन्हें प्रिसिडेंट और पास्ट-केसेस का हवाला देकर बताया जाता है कि “सर, ठीक ऐसे ही केस में अमुक मंत्री की सीबीआई इंक्वायरी हुई थी, और फलॉं वाले सर तो जेल की हवा भी खा आए थे, कुर्सी गई सो अलग।”
अब मैनुअल तो मैनुअल है, कोई ऑटोमेटिक तो है नहीं कि हर जगह स्वयमेव ही चिपक जाए। इसीलिए यह मैनुअल और सीबीआई-विजिलेंस की तिकड़म केवल वहीं लगाई जाती है जहाँ नौकरशाह लगाना चाहता है। जहाँ काम में अपना भला हो, वहॉं गरीबों, पिछड़ों, सामाजिक-न्याय, आर्थिक-प्रगति, प्राथमिक-शिक्षा या राष्ट्रीय-सुरक्षा के कारण बताकर फाइल बढ़ाई जाती है।
इन मुद्दों का कोई कोड या मैनुअल नहीं होता। ये तो हमारी कलम के उद्गम से निकलने वाली नदी की धाराएँ हैं। इनको पॉलिसी का नाम दिया गया है। फाइल पर लिख दिया जाता है कि अगर इस वाले प्रस्ताव का तुरंत अनुमोदन नहीं किया गया, तो फलाँ गाँव में भूख से, चारे के अभाव में, तीन-चार हजार बकरियॉं दम तोड़ देंगी, या कल प्रात:काल के पहले ही चीन तवांग पर अपना आधिपत्य कर लेगा। फिर क्या मंत्री और क्या मंत्री के चचा! हस्ताक्षर करने के सिवा उनके पास चारा ही क्या बचता है? कभी-कभी तो उनके पास केवल चारा ही बचता है।
अरे साहब, मंत्री तो आते-जाते रहते हैं, पाँच-साल वाले जो ठहरे। हम तो तीस-पैंतीस वर्षों के सुनिश्चित और सुरक्षित ठेके पर पदासीन हैं। राजा तो दशकों गद्दी से लगे रहे। जिसने चूँ-चपड़ की उसका सर काट डाला। यदि उनको पाँच साल का टर्म मिला होता, तब क्या वह विस्मयकारी और आश्चर्यजनक वास्तु बनवा पाते? इतने कम समय में तो एस्टीमेट और टेंडर ही नहीं फाइनल हुए होते। अर्थात् कोई काम करने और करवाने के लिए सिस्टम पर पकड़ होनी चाहिए, और वह पकड़ आती है अनुभव से, स्थायित्व से, समय से! नेता, मंत्री आदि लालबत्ती की गाड़ी में पाँच साल घूमें और सत्ता का आनंद लें, दो-चार बीघा भूमि का घोटाला कर लें, अपनी भैंस के खोने पर पूरे पुलिस तंत्र को लगाकर नाम कमाएँ। फाइल तो बंधु तभी सरकेगी जब हम कहेंगे।
इसीलिए हमने यह नाम दिया #नौकरशाह, ताकि आप किसी भ्रम में न रहें। #नौकर आप, #शाह हम!
साभार: “नौकरशाही का मैनुअल”